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मंगलवार, 11 मार्च 2025

शंबूक विस्तृत व्याख्या BA 4th sem

 व्याख्या:

जगदीश गुप्त द्वारा लिखित शंबूक काव्य की इन पंक्तियों में रामराज्य की भव्यता, राजमहल की दिव्यता, और शासन की संरचना को चित्रित किया गया है।

आगे ज्योति मंडित, दीर्घ उन्नत, दिव्य राजद्वार – इन पंक्तियों में राजमहल के द्वार की विशालता और दिव्यता का वर्णन किया गया है। "ज्योति मंडित" से तात्पर्य है कि यह द्वार प्रकाशमय और अलौकिक तेज से युक्त है। "दीर्घ उन्नत" से द्वार की ऊँचाई और भव्यता का संकेत मिलता है।

पीछे शक्ति शाली, लोक रक्षक, राम का दरबार – इस पंक्ति में यह बताया गया है कि इस दिव्य राजद्वार के पीछे वह दरबार है जहाँ राजा राम न्याय करते हैं। यह केवल एक साधारण दरबार नहीं, बल्कि एक ऐसा स्थान है जहाँ शक्ति (सत्ता) और लोक रक्षा (जनता की सुरक्षा) का संतुलन बना हुआ है। राम का शासन धर्म और न्याय पर आधारित है।

ऊपर तोरणों, आच्छादनों, कलशों, ध्वजों की भांति – यहाँ महल की शिल्पकला और उसकी अद्वितीय बनावट का वर्णन किया गया है। "तोरण" यानी महल के प्रवेश द्वार पर बने सजावटी द्वार, "आच्छादन" यानी छतों पर की गई विशेष सजावट, "कलश" यानी शिखर पर रखे गए पवित्र कलश, और "ध्वज" यानी झंडे, जो महल की दिव्यता को और बढ़ाते हैं।

जितने रूप, उतने रंग, जितने रंग, उतनी भांति – यह वाक्य महल की विविधता और उसकी सौंदर्यपूर्ण भव्यता को दर्शाता है। यहाँ पर यह संकेत दिया गया है कि महल का हर कोना अलग-अलग रंगों, रूपों और शैलियों से सजा हुआ है, जो उसे अत्यंत आकर्षक और राजसी बनाता है।

समग्र रूप से, इन पंक्तियों में राम के दरबार की अद्वितीय भव्यता और न्यायपरायणता का चित्रण किया गया है, जो एक आदर्श शासन व्यवस्था का प्रतीक है।



व्याख्या:

इन पंक्तियों में अयोध्या की भव्यता, सामाजिक व्यवस्था, और ब्राह्मण के पुत्र  की मृत्यु से उपजे शोक व आक्रोश का चित्रण किया गया है।

पहला खंड: अयोध्या का वैभव और व्यवस्था

"सहज प्रहरी, दंडधारी हर प्रहर, हर दिशा उल्लास की उठती लहर" यहाँ अयोध्या की सुरक्षा व्यवस्था और अनुशासन का वर्णन किया गया है। "सहज प्रहरी" से तात्पर्य उन सैनिकों से है जो स्वाभाविक रूप से नगर की रक्षा में तैनात हैं। "दंडधारी" शब्द प्रशासनिक शक्ति और अनुशासन का प्रतीक है, जो अयोध्या में हर समय सक्रिय है। "हर दिशा उल्लास की उठती लहर" इस बात को इंगित करता है कि यह नगर समृद्ध, सुव्यवस्थित और उत्सवपूर्ण वातावरण से भरा हुआ है।

"यह अयोध्या का हृदय प्रत्यक्ष है, कौन इससे अधिक है समकक्ष है" इस पंक्ति में अयोध्या की श्रेष्ठता का चित्रण किया गया है। इसे आदर्श राज्य और न्याय का केंद्र माना गया है। प्रश्न के रूप में पूछे गए इन वाक्यों में गर्व और आत्मविश्वास झलकता है कि इस नगर की बराबरी करने वाला कोई अन्य राज्य या नगर नहीं है।

दूसरा खंड: एक विषादपूर्ण घटना

"चीर कर शाहनाइयों का नाद, बेधता किसका असीम विषाद" यहाँ विपर्यय (विरोधाभास) का चित्रण किया गया है। एक ओर तो अयोध्या में उल्लास और आनंद का वातावरण है, दूसरी ओर किसी के "असीम विषाद" (अत्यधिक दुःख) को वह खुशी भेद रही है। "शाहनाइयों का नाद" यानी उत्सवों और राजकीय वैभव की ध्वनि को किसी करुण क्रंदन ने चीर दिया है। यह संकेत करता है कि अयोध्या में कोई ऐसा अन्याय हुआ है जो इसके हर्षोल्लास पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है।

"शब्द कर्कश बोलता है कौन, अमृत में विष घोलता है कौन" यहाँ कवि प्रश्न करता है कि इस आदर्श राज्य में, जहाँ सब कुछ शांति और न्याय से संचालित होता है, यह कठोर और कटु शब्द कौन बोल रहा है? "अमृत में विष घोलता है कौन" – यह संकेत है कि रामराज्य की पवित्रता और न्यायप्रियता को किसी घटना ने कलंकित कर दिया है।

तीसरा खंड: ब्राह्मण का शोक

"शिखा खोले, क्षुब्द ब्राह्मण एक, दे रहा अभिशाप, बाँहें फेंक" यहाँ एक ब्राह्मण का चित्रण किया गया है जो अत्यधिक क्रोधित और क्षुब्ध है। "शिखा खोले" का तात्पर्य यह है कि वह शोकग्रस्त और व्याकुल है, क्योंकि शास्त्रों में किसी ब्राह्मण के खुले शिखा (चोटी) को अपशकुन और अनर्थ का संकेत माना जाता है। वह किसी को (संभवत: समाज या व्यवस्था को) अभिशाप दे रहा है, जिससे उसके आक्रोश और वेदना का पता चलता है।

"भूमि पर उसका तरुण प्रतिरूप, भग्न, निश्चल, यज्ञ का ज्यों यूप" यहाँ बताया गया है कि ब्राह्मण का युवा पुत्र मृत पड़ा है। "तरुण प्रतिरूप" यानी उसका जवान पुत्र, जो अब निष्प्राण है। "भग्न, निश्चल" से उसके शव की दशा का वर्णन है—वह टूटा हुआ और निष्क्रिय पड़ा है, जैसे यज्ञ में उपयोग किया गया "यूप" (बलि के लिए स्थापित लकड़ी का खंभा) बलि के बाद बेकार पड़ा रहता है।

भावार्थ:

जहाँ एक ओर अयोध्या में उल्लास और शांति का माहौल है, वहीं दूसरी  ओर ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु से उत्पन्न दुख के कारण स्थिति बहुत दुखद हो गई है जिससे ब्राह्मण को क्रोध होता है।ब्राह्मण के क्रोध और उसके मृत पुत्र के चित्रण के माध्यम से यह बताया गया है कि समाज को शिक्षा तथा ज्ञान देने वाले को ही यदि सुरक्षा नहीं मिलती है तो फिर इतने उल्लास और हर्ष मनाने की क्या आवश्यकता है।


व्याख्या:

प्रथम खंड: अतीत, वर्तमान और भविष्य की जटिलता

"विगत के आस्तित्व से अनजान, स्वप्न में होता भविष्यत ज्ञान" यहाँ यह बताया गया है कि मनुष्य अक्सर अपने अतीत को भुला देता है, लेकिन भविष्य को लेकर आशंकित और जिज्ञासु रहता है। यह पंक्तियाँ दर्शाती हैं कि समाज अपने इतिहास में हुए अन्यायों से सीख नहीं लेता, बल्कि भविष्य को लेकर स्वप्नों में खोया रहता है।

"रात्रि के पिछले पहर, निस्तब्ध व्यक्ति से ज्यों बोलता प्रारब्ध" रात्रि का अंतिम पहर एक विशेष प्रतीक है, जो परिवर्तन और चेतना का संकेत देता है। जब सब कुछ शांति में डूबा होता है, तब "प्रारब्ध" (भाग्य) व्यक्ति से संवाद करता है। इसका अर्थ यह है कि जब समाज मौन हो जाता है, तब उसके भीतर छिपी नियति या उसके कर्मों का प्रभाव प्रकट होने लगता है।

द्वितीय खंड: ब्राह्मण की करुण पुकार और उसकी गूंज

"उस तरह उसका करुण चीत्कार, पैठ जाता चेतना के पार" यहाँ ब्राह्मण की पुकार को दर्शाया गया है, जो केवल एक सामान्य मृत्यु नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक अन्याय की घोषणा है। उसका करुण क्रंदन केवल सतही तौर पर नहीं सुना जाता, बल्कि वह चेतना के उस स्तर तक पहुँच जाता है जो व्यक्ति और समाज दोनों को झकझोर सकता है।

तृतीय खंड: रामराज्य का मौन और उसकी विडंबना

"शांत फिर भी राम का दरबार, मौन फिर भी भव्य राजद्वार" यह पंक्तियाँ गहरी विडंबना प्रकट करती हैं। ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु के बावजूद, राम का दरबार शांत है, कोई प्रतिरोध नहीं, कोई हलचल नहीं। यह मौन उस सामाजिक तंत्र को दर्शाता है जो अन्याय को देखकर भी प्रतिक्रिया नहीं देता। "भव्य राजद्वार" का "मौन" रहना यह संकेत करता है कि सत्ता और शासक वर्ग इस घटना से प्रभावित नहीं हुआ, वह अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा बनाए रखने में ही व्यस्त रहा।

भावार्थ:

इन पंक्तियों में कवि ने नियति, अन्याय और सामाजिक व्यवस्था की निष्क्रियता को रेखांकित किया है। ब्राह्मण पु की मृत्यु केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरी सामाजिक चेतना पर एक आघात थी। उसका चीत्कार एक प्रश्न की तरह इतिहास में दर्ज हो गया, लेकिन राम का दरबार और अयोध्या की सत्ता उस पर मौन बनी रही। यह मौन केवल शारीरिक नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक और राजनीतिक चुप्पी को दर्शाता है, जो अन्याय को अनदेखा कर देती है।



व्याख्या:

इन पंक्तियों में ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु  के बाद उत्पन्न हुई विक्षोभ, वेदना और सामाजिक संतुलन पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाया गया है। कवि ने अन्याय के परिणामों को अत्यंत प्रभावशाली रूपकों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

प्रथम खंड: यातना और उसका व्यापक प्रभाव

"यातना उसकी दरारें खोल, ला रही थी सृष्टि में भूडोल" ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु  की यातना केवल उसकी व्यक्तिगत पीड़ा तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह संपूर्ण समाज और सृष्टि के लिए एक झटका थी। "दरारें खोल" से तात्पर्य यह है कि यह घटना समाज के भीतर गहरी टूटन और असंतुलन उत्पन्न कर रही थी। "भूडोल" (भूकंप) शब्द इस बात को दर्शाता है कि इस अन्यायपूर्ण हत्या से एक ऐसा हलचल पैदा हो रहा था जो पूरे सामाजिक ताने-बाने को हिला सकता था। यह संकेत करता है कि जब भी समाज में अन्याय होता है, तो वह केवल एक घटना नहीं होती, बल्कि उसकी लहरें दूर तक फैलती हैं और सत्ता की नींव तक को हिला सकती हैं।

द्वितीय खंड: प्रकृति और न्याय की चुनौती

"भूमि पर अघटित घटेगा क्या? सूर्य निज पथ से हटेगा क्या?" यहाँ कवि प्रश्न करता है कि क्या यह घटना इतनी असाधारण और अन्यायपूर्ण थी कि यह प्रकृति के नियमों को भी बदल सकती है? "अघटित घटेगा क्या?"—अर्थात् क्या ऐसा कुछ होगा जो पहले कभी नहीं हुआ? यह प्रश्न सत्ता और समाज के लिए एक चुनौती है कि क्या वे इस अन्याय को स्वीकार करके भी स्वयं को न्यायप्रिय कहेंगे?

"सूर्य निज पथ से हटेगा क्या?"—यह अत्यंत महत्वपूर्ण पंक्ति है। सूर्य के अपने पथ से हटने का अर्थ है कि सृष्टि का संतुलन ही बिगड़ जाए। यहाँ सूर्य को सत्य और न्याय का प्रतीक माना गया है। कवि संकेत करता है कि क्या यह अन्याय इतना बड़ा है कि यह सृष्टि के मूल नियमों को भी हिला देगा?

भावार्थ:

इन पंक्तियों में ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु को एक ऐतिहासिक, सामाजिक और प्राकृतिक संकट के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह अन्याय केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज के न्याय और संतुलन पर प्रहार था। कवि ने भूकंप और सूर्य जैसे व्यापक रूपकों का उपयोग करके यह दिखाया है कि जब सत्ता अन्यायपूर्ण निर्णय लेती है, तो उसके प्रभाव केवल एक व्यक्ति तक सीमित नहीं रहते, बल्कि संपूर्ण समाज और उसकी संरचना को प्रभावित करते हैं।

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