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शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

गाथा कुरुक्षेत्र की

बड़े प्रश्नोत्तर वाले नोट्स 15 अंक वाले।

1. प्रश्नोत्तर 1: श्रीकृष्ण का कर्मयोग उपदेश और उसकी प्रासंगिकता (15 अंक)

प्रश्न:

मनोहर श्याम जोशी की 'गाथा कुरुक्षेत्र की' में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए कर्मयोग और स्थितप्रज्ञता के उपदेश की विस्तृत व्याख्या कीजिए। आज के जीवन में इस उपदेश की प्रासंगिकता कहाँ तक सिद्ध होती है?

उत्तर:

मनोहर श्याम जोशी ने 'गाथा कुरुक्षेत्र की' के तृतीय सर्ग में, मोहग्रस्त अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता के सारगर्भित दर्शन, अर्थात् कर्मयोग का उपदेश दिलवाया है। यह उपदेश न केवल युद्धभूमि के लिए, बल्कि आधुनिक जीवन के लिए भी एक शाश्वत दर्शन प्रस्तुत करता है।

क. कर्मयोग और स्थितप्रज्ञता का उपदेश:

स्वधर्म पालन का महत्व: कृष्ण सर्वप्रथम अर्जुन के मोह को कायरता बताते हैं और उसे स्वधर्म (क्षत्रिय धर्म) का पालन करने को कहते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि परिणाम चाहे जो भी हो (स्वर्ग या मही (पृथ्वी) का भोग), क्षत्रिय का परम कर्तव्य युद्ध करना ही है।

आत्मा की अमरता का ज्ञान: शोक से मुक्त करने के लिए कृष्ण आत्मा की अमरता और देह की नश्वरता का ज्ञान देते हैं। वे कहते हैं, "त्यागकर जीर्ण वस्त्रों को जैसे वस्त्र नवीन करते हैं धारण, वैसे ही आत्मा देह का चोला पुराना छोड़कर नया लेता है पहन।" अतः, किसी के लिए शोक करना अज्ञान है।

निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत: यह उपदेश का केंद्र है। कृष्ण कहते हैं, "कर्म पर अधिकार है तेरा किन्तु है नहीं कर्म के फल पर।" मनुष्य को फल की चिंता किए बिना केवल अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। फल की चाह ही बंधन है।

स्थितप्रज्ञता की अवस्था: कर्मों की कुशलता (आसक्तिरहित कर्म) ही योग है। जो व्यक्ति सिद्धि और असिद्धि को एक समान देखता है और मन की सभी कामनाओं को त्याग देता है, वही स्थितप्रज्ञ कहलाता है।

विनाश की श्रृंखला से चेतावनी: कृष्ण आसक्ति से होने वाले विनाश की मनोवैज्ञानिक श्रृंखला समझाते हैं: आसक्ति \rightarrow कामना \rightarrow क्रोध \rightarrow सम्मोह \rightarrow स्मृतिनाश \rightarrow बुद्धिनाश। बुद्धिनाश होते ही मनुष्य अपने पुरुषार्थ से भटक जाता है।

ख. आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता:

कृष्ण का यह उपदेश आज के प्रतिस्पर्धी और तनावग्रस्त युग में अत्यंत प्रासंगिक है:

कार्य-तनाव (Work Stress) का निवारण: आधुनिक जीवन में लोग परिणाम (प्रमोशन, वेतन) की चिंता में ही सबसे अधिक तनावग्रस्त होते हैं। कर्मयोग सिखाता है कि सफलता या असफलता पर नियंत्रण नहीं है, नियंत्रण केवल प्रयास की गुणवत्ता पर है। यह दृष्टिकोण 'बर्नआउट' (Burnout) से बचाता है।

कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी: स्वधर्म पालन का सिद्धांत बताता है कि हर व्यक्ति को अपने कार्यक्षेत्र (प्रोफेसर, डॉक्टर, व्यापारी) में अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए, भले ही तात्कालिक लाभ न हो।

भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence): 'आसक्ति से विनाश' की श्रृंखला क्रोध और सम्मोह पर नियंत्रण करना सिखाती है। यह आधुनिक भावनात्मक बुद्धिमत्ता के सिद्धांत के अनुरूप है कि आवेश में लिए गए निर्णय हमेशा बुद्धि का नाश करते हैं।

संतुलन और आत्म-नियंत्रण: स्थितप्रज्ञ की अवस्था आज के व्यक्ति को उपभोक्तावादी समाज में कामनाओं के जाल से बाहर निकलकर, सुख-दुःख में समान भाव रखने की प्रेरणा देती है।

2. प्रश्नोत्तर 2: भीष्म का नैतिक और भावनात्मक द्वंद्व तथा उनकी मृत्यु का औचित्य (15 अंक)

प्रश्न:

काव्य नाटक 'गाथा कुरुक्षेत्र की' के चतुर्थ और पंचम सर्गों के आधार पर पितामह भीष्म के नैतिक और भावनात्मक द्वंद्व का विश्लेषण कीजिए। उनकी मृत्यु शिखण्डी द्वारा क्यों सुनिश्चित की गई और बाणों की शैया पर उनका अंतिम व्यवहार उनके 'अजेय' व्यक्तित्व को कैसे स्थापित करता है?

उत्तर:

भीष्म पितामह महाभारत के सबसे पूज्य, ज्ञानी और वीर पात्र हैं, जो 'गाथा कुरुक्षेत्र की' में भी धर्म और प्रतिज्ञा के बीच फँसे हुए एक महान ट्रैजिक हीरो के रूप में चित्रित किए गए हैं।

क. नैतिक और भावनात्मक द्वंद्व:

भीष्म का द्वंद्व उनकी प्रतिज्ञा (सत्य) और धर्म (न्याय) के बीच था:

अर्थ-दासता का दुःख: युधिष्ठिर से अनुमति लेते समय, भीष्म अपने दुःख को प्रकट करते हैं: "अर्थ का है दास हर पुरुष... तो लडूँगा मैं कौरवों की ओर से ही, शुभकामनाएँ किन्तु मेरी तुम पाण्डवों के साथ हैं।" वे जानते थे कि न्याय पाण्डवों के पक्ष में है, पर कौरवों का अन्न खाने की प्रतिज्ञा (अर्थ-दासता) उन्हें अधर्म का साथ देने को विवश करती है।

नैतिक बंधन बनाम कर्तव्य: भीष्म की प्रतिज्ञा थी कि वे स्त्री पर अस्त्र नहीं उठाएँगे। इसी नैतिक बंधन के कारण वे जानते थे कि उनकी मृत्यु का रहस्य केवल शिखण्डी है। उन्होंने अपनी मृत्यु का रहस्य युधिष्ठिर को बताकर धर्म की स्थापना का मार्ग खोल दिया, जबकि स्वयं अधर्मियों की रक्षा का कर्तव्य निभाते रहे।

अभिमन्यु से लगाव: युद्ध के प्रथम दिन जब पंद्रह वर्षीय अभिमन्यु अकेले कौरव सेना का सामना करता है, तो भीष्म उसे 'वीर तू है पुत्र असली पार्थ का' कहकर साधुवाद देते हैं। यह उनका भावनात्मक लगाव दर्शाता है, जो युद्ध की क्रूरता से भी बड़ा था।

ख. शिखण्डी द्वारा मृत्यु का औचित्य:

भीष्म की मृत्यु शिखण्डी द्वारा सुनिश्चित की गई, जो निम्न कारणों से उचित थी:

प्रतिज्ञा का पालन: भीष्म की यह दृढ़ प्रतिज्ञा थी कि वे स्त्री पर शस्त्र नहीं उठाएंगे। शिखण्डी को पूर्वजन्म की अम्बालिका मानकर, भीष्म ने उसके सामने अस्त्र त्याग दिया। इस तरह, उनकी मृत्यु ने उनकी नैतिक प्रतिज्ञा को खंडित होने से बचा लिया।

मुक्ति का मार्ग: भीष्म स्वयं युधिष्ठिर से कहते हैं कि शिखण्डी को लाकर उनका वध कर दिया जाए ताकि उन्हें इस संसार से मुक्ति मिल सके। यह उनकी मृत्यु को त्याग और स्व-इच्छा का रूप देता है, न कि केवल हार का।

ग. बाणों की शैया पर 'अजेय' व्यक्तित्व:

बाणों की शैया पर भीष्म का व्यवहार उनके 'अजेय लौह पुरुष' व्यक्तित्व को सिद्ध करता है:

इच्छा-मृत्यु का आत्म-नियंत्रण: बाणों से बिंधे होने पर भी वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में प्राण रोके रखते हैं। यह उनकी इच्छा-मृत्यु के वरदान और आत्म-नियंत्रण की पराकाष्ठा है, जिसे कोई सामान्य योद्धा नहीं कर सकता।

वीर के अनुरूप सेवा: वे दुर्योधन द्वारा लाए गए कोमल तकिये और शीतल जल को ठुकरा देते हैं। वे अर्जुन से कहते हैं कि जब शैया बाणों की है, तो सिराहाना भी बाणों का ही होना चाहिए।

दिव्य प्यास: वे अपनी प्यास बुझाने के लिए अर्जुन से पार्जन्य अस्त्र से गंगा की धारा निकालने को कहते हैं। यह मांग दर्शाती है कि उनका शरीर भले ही घायल हो, पर उनकी आत्मा और उनकी इच्छाएँ अभी भी दिव्य थीं।

इस प्रकार, भीष्म की मृत्यु केवल एक योद्धा का अंत नहीं, बल्कि प्रतिज्ञा, त्याग और अटूट आत्म-संयम के माध्यम से धर्म की विजय सुनिश्चित करने वाले एक महानायक की गरिमापूर्ण विदाई थी।

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