क्र.सं. प्रश्न (Question) उत्तर (Answer)
1. अर्जुन युद्ध में किन्हें देखकर रुकने को कहते हैं?
कौरवों को
2. अर्जुन के अनुसार, अपनों को मारकर क्या लगेगा?
पाप
3. अर्जुन को कौन सा अस्त्र हाथ से छूटता हुआ महसूस हो रहा है?
गाण्डीव
4. श्रीकृष्ण अर्जुन को किस से मुक्त होकर युद्ध करने को कहते हैं?
शोक
5. 'स्वधर्म पालन परम कर्तव्य सबका' यह कथन किसका है?
कृष्ण
6. युद्ध में मारे जाने पर क्षत्रिय कहाँ पाएगा?
स्वर्ग
7. हारकर भी जीतने पर क्षत्रिय क्या भोगेगा?
मही (पृथ्वी)
8. श्रीकृष्ण के अनुसार मनुष्य का किस पर अधिकार है?
कर्म
9. श्रीकृष्ण ने अर्जुन को किसकी चाह न करने को कहा?
फल
10. कर्मों की कुशलता को ही क्या कहा गया है?
योग
11. 'स्थितप्रज्ञ' किसे कहते हैं?
कामनाएँ त्यागने वाले को
12. आसक्ति से क्या जन्मती है?
कामना
13. कामना से क्या उपजता है?
क्रोध
14. स्मृति नष्ट होने से किसका नाश होता है?
बुद्धि
15. श्रीकृष्ण के अनुसार क्या नश्वर है?
देह
16. श्रीकृष्ण के अनुसार क्या अमर है?
आत्मा
17. आत्मा किसे त्यागकर नया चोला लेती है?
पुराना
18. 'गाण्डीव' किसका धनुष है?
अर्जुन
19. 'गाथा कुरुक्षेत्र की' काव्य नाटक के रचयिता कौन हैं?
मनोहर श्याम जोशी
20. भीष्म के अनुसार हर पुरुष किसका दास है?
अर्थ
21. भीष्म ने युधिष्ठिर को किसके पक्ष से लड़ने की बात कही?
कौरवों
22. युधिष्ठिर युद्ध शुरू करने से पहले किसके पास आशीर्वाद लेने गए?
भीष्म
23. द्रोणाचार्य को शोकवश क्या गिरा देने पर मारा जा सकता है?
अस्त्र
24. भीष्म के भीषण संग्राम से कौन 'त्राहि-त्राहि' कर उठेगा?
पाण्डवगण
25. अभिमन्यु किसका पुत्र था?
अर्जुन
2. संदर्भ-प्रसंग-व्याख्या (Reference-Context-Explanation) के लिए नोट्स
नोट 1: अर्जुन का मोह और स्वधर्म का उपदेश
उद्धरण:
"है कृष्ण! योद्धा जहाँ से कौरवों के दिख सकें सब-के-सब मुझको, रथ रोको वहीं... ये तो सभी अपने सगे हैं... अधम पाप कुलनाश का लूँ मोल इस अन्तिम घड़ी?"
कृष्ण: "उचित है और शोक से हो मुक्त तेरा युद्ध करना है स्वधर्म पालन परम कर्तव्य सबका और तुज क्षत्रिय का तो स्वधर्म युद्ध ही है।"
क. संदर्भ (Reference):
रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)
रचयिता: मनोहर श्याम जोशी
सर्ग: तृतीय सर्ग
ख. प्रसंग (Context):
युद्धभूमि में अर्जुन ने अपने सामने पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और अन्य संबंधियों को देखा। मोह और अवसाद (शोक) से ग्रसित होकर वह कृष्ण से युद्ध रोकने और कुलनाश के पाप से बचने की बात कहते हैं।
कृष्ण यहाँ अर्जुन को कर्तव्य (स्वधर्म) का सार समझाते हैं और उसे शोक, मोह और कायरता त्यागकर युद्ध करने का उपदेश देते हैं।
ग. व्याख्या (Explanation):
मोह और पाप: अर्जुन सगे-संबंधियों को देखकर कुलनाश के पाप से डर रहे हैं और क्षत्रिय धर्म त्यागकर भी शांति चाहते हैं।
स्वधर्म की प्रधानता: कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि अर्जुन का स्वधर्म (जन्म और कर्म के अनुसार कर्तव्य) है युद्ध करना। क्षत्रिय के लिए धर्म की रक्षा हेतु युद्ध करना ही परम कर्तव्य है।
परिणाम से मुक्ति: वे समझाते हैं कि युद्ध में वीरगति मिली तो स्वर्ग, और जीत गए तो पृथ्वी का सुख मिलेगा। अतः क्षत्रिय के लिए युद्ध किसी भी हाल में कल्याणकारी है।
नोट 2: आत्मा की अमरता और देह की नश्वरता
उद्धरण:
"तो मृत्यु क्या है? त्यागकर जीर्ण वस्त्रों को जैसे वस्त्र नवीन करते हैं धारण, वैसे ही आत्मा देह का चोला पुराना छोड़कर नया लेता है पहन... देह नश्वर है, अमर है आत्मा न कोई मारता है, और न मरता है कोई।"
क. संदर्भ (Reference):
रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)
रचयिता: मनोहर श्याम जोशी
प्रसंग: मोहग्रस्त अर्जुन को आत्मा-परमात्मा का ज्ञान देना।
ख. प्रसंग (Context):
अर्जुन मृतकों और जीवितों के लिए शोक व्यक्त करते हैं। कृष्ण उन्हें समझाते हैं कि ज्ञानीजन कभी भी मृतकों या जीवितों के लिए शोक नहीं करते, क्योंकि उन्हें सत्य का ज्ञान होता है।
कृष्ण यहाँ गीता के मूल सिद्धांत को सरल और काव्यात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हैं, ताकि अर्जुन को मृत्यु के भय से मुक्ति मिल सके।
ग. व्याख्या (Explanation):
मृत्यु की परिभाषा: कृष्ण मृत्यु को विनाश नहीं, बल्कि परिवर्तन मानते हैं। जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्यागकर नए पहनता है, उसी तरह आत्मा (अमर तत्व) जीर्ण देह (नश्वर चोला) को त्यागकर नया शरीर धारण करती है।
आत्मा के गुण: आत्मा को नित्य (सदा रहने वाला) बताया गया है, जिसे अस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, और वायु सुखा नहीं सकती।
शोक का औचित्य: चूंकि आत्मा न जन्म लेती है न मरती है, इसलिए किसी भी 'देह' के लिए शोक करना अज्ञानता है।
नोट 3: कर्मयोग का सिद्धांत
उद्धरण:
"कर्म पर अधिकार है तेरा किन्तु है नहीं कर्म के फल पर। फल की चाह मत कर, बंध कर्म के फल से।... कर्म कर तू, कर्मों की कुशलता ही योग कहलाती है पार्थ! स्थितप्रज्ञ बन।"
क. संदर्भ (Reference):
रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)
रचयिता: मनोहर श्याम जोशी
प्रसंग: कृष्ण द्वारा अर्जुन को निष्काम कर्म और योग का उपदेश।
ख. प्रसंग (Context):
अर्जुन के मन में यह सवाल आता है कि यदि फल की चिंता नहीं करनी, तो कर्म किसके लिए किया जाए। कृष्ण तब उन्हें फल की आसक्ति से मुक्त होकर कर्म करने का मार्ग बताते हैं।
यह अंश कर्मयोग के मूल सिद्धांत—'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'—को स्थापित करता है।
ग. व्याख्या (Explanation):
कर्म बनाम फल: कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने पर है, न कि कर्म के परिणाम पर। फल की इच्छा ही बंधन का कारण बनती है।
योग और कुशलता: 'कर्मों की कुशलता' (अर्थात् आसक्तिरहित होकर, ध्यानपूर्वक और श्रेष्ठ ढंग से कर्म करना) ही योग कहलाता है।
स्थितप्रज्ञ: स्थितप्रज्ञ वह ज्ञानी पुरुष है जिसने अपने मन की सभी कामनाओं को त्याग दिया है और जो सिद्धि (सफलता) और असिद्धि (असफलता) को समान दृष्टि से देखता है। फल की इच्छा न करने से ही मनुष्य स्थितप्रज्ञ बन सकता है।
नोट 4: आसक्ति से विनाश तक की श्रृंखला
उद्धरण:
"आसक्ति से जन्मती कामना है और काम से अनन्तर उपजता क्रोध है। क्रोध से सम्मोह होता है, होश रहता नहीं किसी बात का। स्मृति गड़बड़ाती है, स्मृतिनाश से बुद्धिनाश होता है और बुद्धिनष्ट मनुष्य पुरुषार्थ तो फिर कर नहीं सकता।"
क. संदर्भ (Reference):
रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)
रचयिता: मनोहर श्याम जोशी
प्रसंग: कृष्ण द्वारा आसक्ति (Attachment) के दुष्परिणामों की चेतावनी।
ख. प्रसंग (Context):
कृष्ण स्थितप्रज्ञ के गुणों का वर्णन करते हुए बताते हैं कि कैसे विषयों पर ध्यान लगाने वाले मूर्ख पुरुष आसक्ति के जाल में फँस जाते हैं, जो अंततः उनके विनाश का कारण बनता है।
यह अंश विनाश की मनोवैज्ञानिक श्रृंखला का वर्णन करता है।
ग. व्याख्या (Explanation):
मूल कारण: इस श्रृंखला का मूल कारण विषयों (सांसारिक सुख) के प्रति आसक्ति (मोह/Attachment) है।
श्रृंखला: आसक्ति \rightarrow कामना (इच्छा) \rightarrow क्रोध \rightarrow सम्मोह (भ्रम/Bewilderment) \rightarrow स्मृतिनाश (याददाश्त का कमजोर होना) \rightarrow बुद्धिनाश (विवेक का नाश) \rightarrow पुरुषार्थ (उचित कर्म) न कर पाना \rightarrow पतन/विनाश।
सार: मनुष्य का विवेक (बुद्धि) तब नष्ट हो जाता है जब वह मोह के कारण होश खो बैठता है। बुद्धिनष्ट व्यक्ति अपने कर्तव्य (पुरुषार्थ) का पालन नहीं कर सकता, जिससे उसका पतन निश्चित है।
नोट 5: भीष्म की प्रतिज्ञा और अर्थ-दासता
उद्धरण:
"अजेय है पितामह! प्रणाम हो स्वीकार मेरा, युद्ध अब मुझे करना पड़ेगा आपसे अनुमति दे और आशीर्वाद भी... अर्थ ने दिया है मुझको कौरवों के पक्ष से हाय, अर्थ का है दास हर पुरुष जबकि स्वयं अर्थ किसी का दास होता नहीं है। तो लड़ूँगा मैं कौरवों की ओर से ही शुभकामनाएँ किन्तु मेरी तुम पाण्डवों के साथ हैं।"
क. संदर्भ (Reference):
रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)
रचयिता: मनोहर श्याम जोशी
सर्ग: चतुर्थ सर्ग
ख. प्रसंग (Context):
युद्ध शुरू होने से पहले, युधिष्ठिर कौरव शिविर में जाकर अपने पूजनीय गुरुजनों (भीष्म और द्रोणाचार्य) से युद्ध की अनुमति और आशीर्वाद लेते हैं।
भीष्म युधिष्ठिर को आशीर्वाद देते हैं, लेकिन अपनी मजबूरी का वर्णन करते हुए बताते हैं कि वे किस कारण कौरवों के पक्ष से लड़ेंगे।
ग. व्याख्या (Explanation):
धर्म और अर्थ का द्वंद्व: भीष्म जानते हैं कि धर्म पाण्डवों के पक्ष में है, इसीलिए उनकी शुभकामनाएँ उनके साथ हैं।
अर्थ-दासता: भीष्म अपनी भीषण प्रतिज्ञा के कारण कौरवों के दिए हुए अन्न (अर्थ) के ऋणी हैं। वह स्वीकार करते हैं कि संसार में हर पुरुष कहीं न कहीं 'अर्थ का दास' होता है, और यही दासता उन्हें पाण्डवों के विरुद्ध लड़ने को विवश करती है।
युद्ध की अनुमति: युधिष्ठिर उनसे पूछते हैं कि उन्हें कैसे हराया जाए। भीष्म धर्म की रक्षा के लिए उन्हें अपनी मृत्यु का रहस्य बता देते हैं, लेकिन स्वयं लड़ना नहीं छोड़ते।
नोट 6: द्रोणाचार्य की मृत्यु का रहस्य
उद्धरण:
"राजन! जब तक हाथ में हो अस्त्र मेरे, मार ही सकता हूँ, मर नहीं सकता कभी। हाँ, यदि कभी किसी शोकवश मैं होश खो बैठूँ, गिरा दूँ अस्त्र, तब मार तुम मुझको सकोगे।"
क. संदर्भ (Reference):
रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)
रचयिता: मनोहर श्याम जोशी
सर्ग: चतुर्थ सर्ग
ख. प्रसंग (Context):
युधिष्ठिर, भीष्म से अनुमति लेने के बाद, गुरु द्रोणाचार्य के पास जाते हैं और उनसे भी युद्ध की अनुमति और आशीर्वाद माँगते हैं।
युधिष्ठिर उनसे भी यह पूछते हैं कि वे उन्हें युद्ध में कैसे पराजित कर सकते हैं (क्योंकि उन्हें मारना असंभव लग रहा था)। द्रोणाचार्य तब अपनी मृत्यु का एकमात्र रहस्य बताते हैं।
ग. व्याख्या (Explanation):
अजेय योद्धा: द्रोणाचार्य स्वयं की अजेयता को इस शर्त से जोड़ते हैं कि जब तक उनके हाथ में अस्त्र है, तब तक उन्हें कोई मार नहीं सकता। यह उनकी तपस्या और युद्ध कौशल का परिणाम था।
शोक और अस्त्र: उनकी मृत्यु का एकमात्र मार्ग मनोवैज्ञानिक था—यदि वे किसी गहरे शोक में अपने होश (सतर्कता/एकाग्रता) को खो दें और स्वयं ही अस्त्र त्याग दें।
नैतिकता और युद्ध-धर्म: द्रोणाचार्य अपनी मृत्यु का रहस्य बताकर भी गुरु-धर्म निभाते हैं, जिससे पाण्डवों को धर्म की जीत सुनिश्चित करने का मार्ग मिल जाता है।
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