गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

दस हजार एकांकी सारांश एवं पत्र परिचय।


'दस हजार' एकांकी का विस्तृत सारांश एवं विशेषताएं।

भूमिका:

यह एकांकी एक मध्यमवर्गीय, लोभी व्यापारी बिसाखाराम के इर्द-गिर्द घूमती है। एकांकी का मुख्य विषय धन की लोलुपता और मानवीय संवेदनाओं के बीच का संघर्ष है।

कथानक:

एकांकी की शुरुआत बिसाखाराम के घर से होती है। वह एक बहुत बड़ा व्यापारी है, लेकिन स्वभाव से अत्यंत कंजूस और लालची है। उसका इकलौता पुत्र, सुंदरलाल, व्यापार के सिलसिले में 'उगाही' (पैसे वसूलने) के लिए बाहर गया हुआ है, जिसे सीमा प्रांत के खतरनाक पठानों (अमीर अली खाँ) ने अपहरण कर लिया है।

घटनाक्रम:

 * पत्र और फिरौती: मुनीम जी एक पत्र लेकर आते हैं, जो सुंदरलाल ने लिखा है। उसमें बताया गया है कि यदि आज रात 8 बजे तक काबुली फाटक पर दस हजार रुपये नहीं पहुँचाए गए, तो पठान उसे जान से मार डालेंगे। साथ ही खान की धमकी भरा पत्र भी होता है।

 * सेठ का द्वंद्व: एक तरफ बेटे की जान खतरे में है और दूसरी तरफ सेठ के प्राण अपनी 'खून-पसीने की कमाई' यानी उन दस हजार रुपयों में बसे हैं। वह बार-बार मुनीम से व्यापारिक बातें (खाँड का सौदा, ब्याज आदि) करता है ताकि उस बड़े खर्च के विचार से बच सके। वह पुलिस की मदद लेने की बात करता है, जबकि मुनीम उसे चेतावनी देता है कि इससे लड़के की जान जा सकती है।

 * पारिवारिक विलाप: सुंदरलाल की माँ और बहन (राजो) बुरी तरह रो रही हैं। माँ अपने गहने तक बेचने को तैयार है ताकि उसका बेटा बच जाए। वह सेठ को धिक्कारती है कि तीन-चार लाख रुपये के मालिक होकर भी वे दस हजार रुपये के लिए बेटे की जान दांव पर लगा रहे हैं।

 * चरमोत्कर्ष : अंत में, सेठ की इच्छा के विरुद्ध मुनीम और सेठ की पत्नी के दबाव में पैसे भेज दिए जाते हैं। सुंदरलाल घायल अवस्था में घर वापस लौटता है। वह बताता है कि उसे बहुत मारा-पीटा गया।

 * दुखद अंत: जैसे ही बिसाखाराम को इस बात की पुष्टि होती है कि मुनीम ने सचमुच तिजोरी से पूरे दस हजार रुपये निकाल कर दे दिए हैं, वह इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाता। उसे अपने बेटे के वापस आने की खुशी नहीं होती, बल्कि पैसों के जाने का ऐसा गहरा दुःख होता है कि वह अचेत होकर गिर पड़ता है।

एकांकी की प्रमुख विशेषताएँ

1. धन बनाम ममता 

यह एकांकी का केंद्रीय स्तंभ है। बिसाखाराम का चरित्र यह दिखाता है कि जब धन का लोभ मनुष्य पर हावी हो जाता है, तो उसके भीतर की पिता वाली ममता मर जाती है। वह अपने बेटे की हड्डियों के टूटने की खबर सुनकर भी रुपयों का हिसाब लगाता रहता है।

2. यथार्थवादी चित्रण 

उदयशंकर भट्ट ने समाज के उस वर्ग का यथार्थ चित्रण किया है जो केवल 'अंकों' और 'मुनाफे' में जीता है। बिसाखाराम जैसे लोग रिश्तों की कीमत रुपयों में आंकते हैं। एकांकी में उस समय की आर्थिक परिस्थितियों और व्यापारियों की मानसिकता को सजीव रूप में दिखाया गया है।

3. पात्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

 * बिसाखाराम: वह एक कुंठित और धन-पिशाच व्यक्ति है। उसके लिए जीवन का अर्थ केवल संचय करना है।

 * सेठानी (माँ): वह भारतीय नारी की ममता और त्याग का प्रतीक है, जो बेटे के लिए अपना सर्वस्व (गहने) न्यौछावर करने को तैयार है।

 * मुनीम: वह व्यावहारिक है और सेठ की क्रूरता और परिवार की पीड़ा के बीच एक सेतु का काम करता है।

4. शीर्षक की सार्थकता

एकांकी का नाम 'दस हजार' पूर्णतः सार्थक है। पूरी कथा इसी राशि के इर्द-गिर्द घूमती है। यह राशि सुंदरलाल की जान की कीमत है और बिसाखाराम के लिए उसके जीवन का सबसे बड़ा नुकसान। अंत में यही 'दस हजार' की संख्या सेठ के पतन का कारण बनती है।

5. व्यंग्य प्रधान शैली

लेखक ने बिसाखाराम के माध्यम से पूँजीवादी मानसिकता पर तीखा व्यंग्य किया है। विशेषकर अंत में जब पत्नी कहती है—"इन्हें नींद आ गई है", यह समाज की संवेदनहीनता पर एक गहरी चोट है।

6. भाषा और संवाद

एकांकी की भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण और पात्रों के अनुकूल है। सीमा प्रांत का वातावरण होने के कारण इसमें काबुली फाटक, पठान, पश्तो भाषा का जिक्र इसे प्रभावशाली बनाता है। संवाद छोटे और मर्मस्पर्शी हैं जो तनाव को बनाए रखते हैं।

निष्कर्ष:

'दस हजार' केवल एक परिवार की कहानी नहीं है, बल्कि यह मानवीय मूल्यों के पतन की कहानी है। यह हमें सिखाती है कि यदि जीवन में केवल धन ही सर्वोपरि हो जाए, तो मनुष्य जीवित रहते हुए भी एक 'लाश' के समान हो जाता है।



पत्रों का चरित्र चित्रण।

एकांकी 'दस हजार' के प्रमुख पात्रों का चरित्र-चित्रण।

1. सेठ बिसाखाराम का चरित्र-चित्रण

बिसाखाराम इस एकांकी का केंद्रीय और सबसे प्रभावशाली पात्र है, जिसके माध्यम से लेखक ने 'कंजूस और लोभी' मानसिकता का पर्दाफाश किया है।

 * धन का लोभी : बिसाखाराम के जीवन का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना और उसे बचाना है। उसके लिए रिश्ते, भावनाएँ और यहाँ तक कि अपने इकलौते बेटे की जान भी रुपयों से छोटी है। वह कहता है— "खून की कमाई है, आज 60 साल से दिन-रात एक करके रुपया कमाया है।"

 * संवेदनहीन और क्रूर: जब उसका बेटा पठानों की कैद में है और यातनाएँ सह रहा है, तब भी वह मुनीम से व्यापारिक घाटे और ब्याज की बातें करता है। वह बेटे के दर्द को महसूस करने के बजाय दस हजार रुपये खोने के डर से ज्यादा दुखी है।

 * शंकालु स्वभाव: वह किसी पर भरोसा नहीं करता। उसे लगता है कि हर कोई उसके पैसे लूटने की ताक में है। वह यहाँ तक सोचता है कि पुलिस को खबर कर दी जाए, भले ही इसमें उसके बेटे की जान को खतरा क्यों न हो।

 * आंतरिक द्वंद्व का शिकार: वह पूरे समय बेचैनी में 'खाट' पर लेटने और उठने का अभिनय करता रहता है। उसके मन में एक तरफ बेटे का मोह है (जो बहुत क्षीण है) और दूसरी तरफ धन का मोह (जो अत्यंत प्रबल है)।

 * चरम लालच का अंत: एकांकी के अंत में जब उसे पता चलता है कि तिजोरी से पैसे चले गए हैं, तो वह सदमे से गिर पड़ता है। यह दर्शाता है कि उसका अस्तित्व केवल उसकी दौलत से जुड़ा था।

2. सेठानी (राजो की माँ) का चरित्र-चित्रण

सेठानी बिसाखाराम की पत्नी है और वह एकांकी में ममता और मानवीयता का प्रतिनिधित्व करती है।

 * ममता की प्रतिमूर्ति: एक माँ होने के नाते वह अपने बेटे सुंदरलाल की सुरक्षा के लिए व्याकुल है। वह कई रातों से सोई नहीं है और उसकी आँखों में केवल अपने बेटे की सलामती की चिंता है।

 * त्यागी और निस्वार्थ: जहाँ बिसाखाराम एक-एक पैसा बचाने की सोचता है, वहीं सेठानी अपने सारे गहने उतारकर मुनीम के सामने रख देती है। वह कहती है— "मेरा गहना ले जाओ... लो मेरे लड़के को ला दो।" उसके लिए गहने और पैसा मिट्टी के समान हैं।

 * स्पष्टवादी: वह अपने पति की लालची प्रवृत्ति को अच्छी तरह पहचानती है और उसे धिक्कारने से भी पीछे नहीं हटती। वह कहती है कि ऐसा रुपया किस काम का जो संतान की रक्षा न कर सके।

 * व्यावहारिक: वह जानती है कि पठानों से लड़कर नहीं, बल्कि फिरौती देकर ही बेटे को बचाया जा सकता है, इसलिए वह मुनीम को तुरंत पैसे ले जाने का आदेश देती है।

3. मुनीम जी का चरित्र-चित्रण

मुनीम जी सेठ बिसाखाराम के वफादार कर्मचारी हैं, जो व्यापार और परिवार के बीच एक संतुलन बनाए रखते हैं।

 * वफादार और समझदार: वह वर्षों से सेठ के साथ हैं और उनके स्वभाव को जानते हैं। वह सेठ को बार-बार वास्तविकता का आइना दिखाते हैं कि स्थिति कितनी गंभीर है।

 * मानवीय दृष्टिकोण: मुनीम जी केवल एक कर्मचारी नहीं हैं, उनके भीतर संवेदना भी है। वे सुंदरलाल को बचाने के लिए जल्दबाजी करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि पठान कितने खतरनाक हो सकते हैं।

 * निर्णय लेने की क्षमता: अंत में, जब सेठ हिचकिचाता है, तब मुनीम जी सेठानी के आदेश का पालन करते हुए पैसे लेकर चले जाते हैं। वे जानते हैं कि इस समय पैसा नहीं, जीवन बचाना प्राथमिकता है।

4. सुंदरलाल का संक्षिप्त परिचय

सुंदरलाल बिसाखाराम का पुत्र है। वह एकांकी में एक 'पीड़ित' पात्र के रूप में उभरता है। वह अपने पिता के कठोर स्वभाव का शिकार है। जब वह वापस आता है, तो उसकी शारीरिक स्थिति (मार-पीट के निशान) पठानों की क्रूरता और बिसाखाराम की देरी, दोनों का परिणाम लगती है।

निष्कर्ष:

उदयशंकर भट्ट ने इन पात्रों के माध्यम से समाज के दो विपरीत ध्रुवों को दिखाया है। एक तरफ बिसाखाराम की 'भौतिकवादी' सोच है, तो दूसरी तरफ सेठानी की 'संवेदनशील' सोच।




Bsc 1st SEP BNU notes दस हजार एकांकी


1. प्रश्न: 'दस हजार' एकांकी के लेखक कौन हैं?

 * उत्तर: उदयशंकर भट्ट।

2. प्रश्न: बिसाखाराम कौन है?

 * उत्तर: सीमा प्रान्त का एक कंजूस और लालची सेठ।

3. प्रश्न: सुंदरलाल का बिसाखाराम से क्या संबंध है?

 * उत्तर: सुंदरलाल, सेठ बिसाखाराम का पुत्र है।

4. प्रश्न: सुंदरलाल को किसने बंदी बनाया था?

 * उत्तर: अमीर अली खाँ (पठानों) ने।

5. प्रश्न: पठानों ने सुंदरलाल को छोड़ने के बदले कितनी फिरौती मांगी थी?

 * उत्तर: दस हजार रुपये।

6. प्रश्न: बिसाखाराम को अपने बेटे की जान से ज्यादा क्या प्यारा था?

 * उत्तर: अपना धन (रुपया-पैसा)।

7. प्रश्न: सुंदरलाल की माँ ने बेटे को छुड़ाने के लिए क्या देने का प्रस्ताव रखा?

 * उत्तर: अपने गहने।

8. प्रश्न: मुनीम जी ने सेठ को क्या सलाह दी थी?

 * उत्तर: रुपये देकर सुंदरलाल को सही-सलामत वापस लाने की।

9. प्रश्न: बिसाखाराम मुनीम से किस चीज़ के सौदे की बार-बार बात कर रहा था?

 * उत्तर: खाँड (चीनी) के सौदे की।

10. प्रश्न: सुंदरलाल के वापस आने पर बिसाखाराम क्यों दुखी होकर गिर पड़ा?

 * उत्तर: यह जानकर कि मुनीम ने सचमुच दस हजार रुपये दे दिए हैं।

ससंदर्भ व्याख्या 

व्याख्या 1

 "पिताजी, अगर मेरी जिन्दगी चाहते हो तो किसी आदमी के हाथ काबुली फाटक के बाहर आज ठीक शाम के आठ बजे दस हज़ार रुपया पहुँचा दो... मुझे विश्वास है आप मेरी रक्षा करेंगे।"

संदर्भ: प्रस्तुत पंक्तियाँ उदयशंकर भट्ट द्वारा रचित एकांकी 'दस हजार' से ली गई हैं। यह सुंदरलाल द्वारा अपने पिता को लिखा गया पत्र है जिसे मुनीम पढ़कर सुनाता है।

 प्रसंग: सुंदरलाल को पठानों ने पकड़ लिया है और जान के बदले पैसों की मांग की है।

व्याख्या: सुंदरलाल पत्र में अपनी पीड़ा और डर व्यक्त करता है। वह बताता है कि उसे बहुत यातनाएँ दी जा रही हैं। वह अपने पिता से विनती करता है कि यदि वे उसे जीवित देखना चाहते हैं, तो तुरंत दस हजार रुपये भेज दें। उसे भरोसा है कि उसके पिता उसे बचा लेंगे, लेकिन विडंबना यह है कि उसके पिता को पैसों का दुख बेटे की जान से बड़ा लग रहा है।

व्याख्या 2

"चिन्ता न करूँ? खून की कमाई है खून की। आज 60 साल से लगातार दिन-रात एक करके रुपया कमाया है।"

 संदर्भ: प्रस्तुत पंक्तियाँ उदयशंकर भट्ट द्वारा रचित एकांकी 'दस हजार' से ली गई हैं। 

 प्रसंग: जब सेठ की पत्नी (राजो की माँ) उसे चिंता न करने और बेटे को बचाने की बात कहती है, तब सेठ बिसाखाराम यह उत्तर देता है।

 * व्याख्या: यहाँ बिसाखाराम की घोर लालची मानसिकता प्रकट होती है। उसे अपने इकलौते बेटे की जान खतरे में होने का उतना मलाल नहीं है, जितना उन रुपयों के जाने का है जो उसने 60 सालों की मेहनत से जमा किए हैं। वह पैसों को अपनी 'खून की कमाई' कहता है, जबकि अपनी संतान के खून की उसे परवाह नहीं दिखती।

व्याख्या 3

"इन्हें नींद आ गई है बेटा, आओ चलें।"


 संदर्भ: प्रस्तुत पंक्तियाँ उदयशंकर भट्ट द्वारा रचित एकांकी 'दस हजार' से ली गई हैं। 

प्रसंग: एकांकी का अंतिम दृश्य, जब सेठ यह सुनकर कि दस हजार रुपये सचमुच दे दिए गए हैं, धड़ाम से गिर पड़ता है।

 व्याख्या: यह एकांकी का सबसे सशक्त व्यंग्य है। जब सुंदरलाल वापस आ जाता है और सेठ को पता चलता है कि उसकी तिजोरी से दस हजार रुपये चले गए हैं, तो वह इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाता और बेहोश (या मृतप्राय) होकर गिर जाता है। उसकी पत्नी व्यंग्य और करुणा के साथ कहती है कि उसे 'नींद' आ गई है। यह दर्शाता है कि एक लालची व्यक्ति के लिए धन का जाना उसकी मृत्यु के समान है।

विशेष बिंदु

 * पात्र चित्रण: बिसाखाराम एक 'कंजूस' और 'द्रव्य-पिपासु' (रुपयों का प्यासा) पात्र है।

 * द्वंद्व: इस एकांकी में 'धन' और 'ममता' के बीच संघर्ष दिखाया गया है।

 * उद्देश्य: लेखक ने समाज में बढ़ती जा रही भौतिकवादी और स्वार्थी प्रवृत्ति पर कड़ा प्रहार किया है।


रविवार, 7 दिसंबर 2025

गाथा कुरुक्षेत्र की संदर्भ प्रसंग व्याख्या

 

जुआ खेल युधिष्ठिर ने लगाया दांव सब कुछ पैसों पर

खोया राज्य, वनवास पाया

यह अपराध मेरा है?

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारे पाठ्य पुस्तक गाथा कुरुक्षेत्र की से ली गयी है। यह एक काव्य नाटक है और इसके रचैता है मनोहर श्याम गोशी।

प्रसंग – प्रस्तुत कथन दुर्योधन अपने पिता धृतराष्ट्र से कहता है। जब कृष्ण के समझाने पर भी दुर्योधन पाण्डवों को पाँच गाँव तक देने के लिए तैयार नहीं होता है तो धृतराष्ट्र उसे समझाने आते हैं। धृतराष्ट्र और गांधारी उसे कहते हैं कि वह कृष्ण की शरण में चला जाए, पाण्डवों की मांग पूरी कर दे। तब दुर्योधन उनका विरोध करते हुए यह कहता है ।

व्याख्या – दुर्योधन अपने पिता धृतराष्ट्र से कहता है कि जब जुए के खेल का निमंत्रण हुआ था तो युधिष्ठिर से उसे स्वीकार कर लिया और उसने अपना सबकुछ उसमें दाव पर लगा दिया। उसने अपना राज्य, अपनी संपत्ति तथा भाइयों और अपनी पत्नी को भी दाव पर लगा दिया और हार गया। क्या इसमें भी मेरा अपराध है? उसे तो जुआ खेलना नहीं चाहिए था। अब सब कुछ खोकर उसने वनवास पाया तो क्या यह मेरा अपराध है? उसने दाव पर सब कुछ क्यों लगाया? उसे तो ऐसा नहीं करना चाहिए था।

वास्तव में युधिष्ठिर मामा शकुनि की चाल को समझ नहीं सका था जिसके कारण वह जुए में हार गया था। वही शकुनि तथा दुर्योधन के बार-बार उकसाए जाने पर युधिष्ठिर आवेश में आकर सब कुछ दाव पर लगा देता है तथा हार जाता है। परन्तु दुर्योधन यह सभी बातें जानते हुए भी वह युधिष्ठिर को इसलिए कुछ नहीं देना चाहता था क्योंकि उसके मन में भय था कि कही पाण्डव दुबारा से शक्ति संचित कर ताकतवर न बन जाए और हस्तिनापुर से भी अधिक शक्तिशाली राज्य न खड़ा कर दें। इसलिए वह अपने पिता की बात मानने से भी अस्वीकार कर देता है।

 

विशेष –यह पंक्तियाँ हमें यह सीख देती है कि हमें कभी भी जुआ जैसा खेल नहीं खेलना चाहिए जो कि मनुष्य को बर्बाद कर सकता है। वही इन पंक्तियों में दुर्योधन का भय स्पष्ट दिखाई दे रहा है।

 

 

मारा गया वो स्वर्ग पायेगा

और यदि जीता तो भोगेगा

अस्तु, हे कौन्तेय! हो तैयार

जमकर युद्धकर।

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारे पाठ्य पुस्तक गाथा कुरुक्षेत्र की से ली गयी है। यह एक काव्य नाटक है और इसके रचैता है मनोहर श्याम गोशी।

प्रसंग – प्रस्तुत कथन श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को कहा गया है। अर्जुन कुरुक्षेत्र में युद्ध प्रारंभ होने से पहले दोनों पक्षों को युद्ध भूमि के मध्य में जाकर ठीके से देख लेना चाहता था। अतः वह कृष्ण को युद्ध आरंभ होने से पहले युद्ध भूमि के मध्य में ले चलने का आग्रह करते हैं। वही जब वे युद्ध भूमि के बीच आकर कौरव पक्ष को देखते हैं तो उन्हें वहाँ केवल अपने सगे-संबंधि ही नज़र आते हैं। वे तब युद्ध में अपने पितामह, गुरु, कुलगुरु आदि पर अस्त्र चलाने पर पाप का भागी हो जाने की चिन्ता करते हैं। तब कृष्ण उन्हें गीता का ज्ञान देना प्रारंभ करते हैं और अर्जुन को समझाते हैं कि वास्तव में यह युद्ध क्यों हो रहा है।

व्याख्या – अर्जुन को समझाते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि हे कौन्तेय(कुन्ती के पुत्र) यह युद्ध धर्म के लिए लड़ा जा रहा है। इस युद्ध में जो भी मारा जाएगा वह स्वर्ग पायेगा और अगर कोई जीवित रह गया और युद्ध जीत गया तो वह हस्तिनापुर की धरती का राजा बनेगा और उसका भोग करेगा। अतः युद्ध तो हर हाल में ही करना होगा। तुम तैयार हो जाओ और जमकर युद्ध करो।

            वास्तव में श्री कृष्ण के इस कथन में रहस्य छिपा है। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि महाभारत का यह युद्ध धर्म और अधर्म की लड़ाई है। यदि में अधिक सोच-विचार किया गया तो युद्ध लड़ने का वास्तविक कारण ही धूमिल पड़ जाएगा और कदाचित अधर्मी कौरवों की जीत हो सकती है। यह युद्ध केवल द्रौपदी के अपमान या हस्तिनापुर के सिंहासन की लड़ाई नहीं है बल्कि अधर्मी कौरवों का नाश करने की लड़ाई है। यदि ये युद्ध नहीं होता है तो पाण्डव डर के हार मान चुके हैं ऐसा भ्रम भी फैल सकता है जिससे साधारण जन-मानस में भी सत्य और धर्म के लिए खड़े होने की इच्छा समाप्त हो जाएगी। वही यदि वे लड़ते हैं तो चाहे हारे या जीते दोनों ही रूप से उन्हें लाभ मिलेगा। या तो स्वर्ग मिलेगा या फिर भूमि। परन्तु युगो-युगो तक लोगों को प्रेरणा मिलेगी की उन्हें  सत्य और धर्म के लिए लड़ना भी पड़े तो वह उचित है।

 

विशेष  -- अक्सर लोग अपने रिश्ते नातों की मोह माया में आकर सत्य और धर्म का त्याग कर देते हैं जो कि समाज के लिए लम्बे समय में हानी पहुँचाने का काम करता है। किसी भी प्रकार की अधार्मिक काम से दूसरों को तकलीफ होने पर भी जब उसके अपने स्वजन ही इस पर पर्दा डाल देते हैं तो आगे चल कर यह उन्हीं का ही अहित करता है। अतः श्री कृष्ण के अनुसार सदैव धर्म और सत्य के लिए अपनों से भी लड़ना पड़ जाए तो उसमें कोई हानि नहीं है।

 

 

उत्तरा के पुत्र में तो प्राण मैं फिर भी डाल दूंगा

किन्तु तुमको दे रहा हूँ श्राप

पीब और लहू की गंध से तुम भर जाओगे सदा

जड़ा के लिए

हजारों वर्ष तक अकेले और भोगते ही रहोगे इस धरा पर

 

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारे पाठ्य पुस्तक गाथा कुरुक्षेत्र की से ली गयी है। यह एक काव्य नाटक है और इसके रचैता है मनोहर श्याम गोशी।

प्रसंग – प्रस्तुत कथन श्री कृष्ण ने अश्वत्थामा से कहा। युद्ध के अंत में कौरव पक्ष में केवल अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा ही बच गए थे। तथा दुर्योधन की हार का बदला लेने और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का बदला लेने अश्वत्थामा पाण्डव शिविर में रात में ही घुस कर पाण्डव पुत्रों तथा अन्य रिश्तेदार आदि की हत्या कर देता है। फिर अर्जुन के साथ युद्ध करते समय वह ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करता जिसे आकर श्री वेदव्यास जी रोकने का प्रयास करते हैं। परन्तु ब्रह्मास्त्र को वापस न लौटा पाने का ज्ञान न होने पर अश्वत्थामा उसे उत्तरा के गर्भ की ओर छोड़ देता है जिससे उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु की मृत्यु हो जाती है। तब कृष्ण उसे अभिशाप देते हुए यह कहते हैं।

व्याख्या—अश्वत्थामा द्वारा उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु पर ब्रह्मास्त्र छोड़े जाने से उसकी मृत्यु हो जाती है। श्री कृष्ण तब क्रोध में आकर अश्वत्थामा को कहते हैं कि तुम्हारे कारण एक निष्पाप अजन्में शिशु की ब्रह्मास्त्र जैसे शक्तिशाली अस्त्र से मृत्यु हुई है। मैं तो फिर भी उसे जीवित कर दूंगा। परन्तु जो तुमने किया है वह पाप है। द्रौपदी के पुत्र जिन्होंने इस युद्ध में भाग भी नहीं लिया था तथा अन्य संबंधियों को जिन्होंने इस युद्ध में भाग नहीं लिया था उन सभी निर्दोषों की हत्या तथा उत्तरा के अजन्में शिशु को मारकर तुमने भयंकर पाप किया है। इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि तुम्हारी इस मृत्यु लोक में मृत्यु नहीं होगी। बल्कि तुम्हारे शरीर में पीब(फोड़े का मवाद) तथा लहू की गंध भर जाएगी जो कि कभी भी नहीं छूटेगी। तुम हज़ारों वर्षों तक अकेले इस गंध और पीड़ा को भोगते रहोगे और धरती पर भटकते रहोगे। मृत्यु के लिए तुम तरसोगे लेकिन तुम्हें मृत्यु भी नहीं आएगी। तुम्हारे शरीर से पीब और लहू बहता रहेगा।

           

विशेष – श्री कृष्ण का क्रोध इन पंक्तियों में दिख रहा है। निर्दोषों की हत्या करना महा पाप है। अज्ञानता के कारण ब्रह्मास्त्र को लौटा न पाना हमें यह सिखाता है कि किसी भी प्रकार की शक्ति को धारण करने के लिए हमें उचित ज्ञान की भी आवश्यकता होती है।

शनिवार, 6 दिसंबर 2025

एक शाम और हरसिंगार के प्रेम

अरुणाचल प्रदेश के ख़ूबसूरत पहाड़ी ज़िले पश्चिमी सियांग का सुंदर शहर अलोंग । यह 90 के दशक का अंतिम समय रहा होगा, और शहर अपनी हरी-भरी ख़ूबसूरती लिए दुनिया के सामने इठला रहा था। अभी-अभी अच्छी बारिश होकर गुज़री थी। हल्की-सी धुंध और भीगी हरियाली तन-मन को जितनी शीतलता दे रही थी, उससे कहीं अधिक एक अजीब-सी कसक पैदा कर रही थी। चंदा अपने क्वार्टर के बरामदे में माँ के साथ छत से टपकते बारिश के पानी को पास रखे एक लोहे के ड्रम में इकट्ठा कर रही थी। इतनी ऊँचाई वाली जगहों पर पानी की आपूर्ति दिन में केवल एक ही बार आती थी, इसलिए घर के अन्य ज़रूरतों के लिए पानी बड़ी मुश्किल से हो पाता था। असम राइफल्स के क्वार्टर में रहने वाले सभी परिवारों का यही एक तरीक़ा था जिससे वे पानी की कमी पूरी करते थे। सभी के घर में बड़े-बड़े, खाली पड़े पेट्रोल के ड्रम थे, जिनमें वे बारिश के दिनों का पानी भरते और उसी से काम चलाते थे।

अगले दिन चंदा की स्कूल से छुट्टी थी। घर के सारे काम हो चुके थे। शाम के समय चंदा माँ के साथ बैठकर एक सफ़ेद