जुआ खेल
युधिष्ठिर ने लगाया दांव सब कुछ पैसों पर
खोया राज्य,
वनवास पाया
यह अपराध मेरा
है?
प्रसंग – प्रस्तुत कथन दुर्योधन अपने पिता धृतराष्ट्र से कहता है। जब कृष्ण के समझाने
पर भी दुर्योधन पाण्डवों को पाँच गाँव तक देने के लिए तैयार नहीं होता है तो धृतराष्ट्र
उसे समझाने आते हैं। धृतराष्ट्र और गांधारी उसे कहते हैं कि वह कृष्ण की शरण में
चला जाए, पाण्डवों की मांग पूरी कर दे। तब दुर्योधन उनका विरोध करते हुए यह कहता
है ।
व्याख्या –
दुर्योधन अपने पिता धृतराष्ट्र से कहता है कि जब जुए के खेल का निमंत्रण हुआ था तो
युधिष्ठिर से उसे स्वीकार कर लिया और उसने अपना सबकुछ उसमें दाव पर लगा दिया। उसने
अपना राज्य, अपनी संपत्ति तथा भाइयों और अपनी पत्नी को भी दाव पर लगा दिया और हार
गया। क्या इसमें भी मेरा अपराध है? उसे तो जुआ खेलना नहीं चाहिए था। अब सब कुछ खोकर उसने वनवास
पाया तो क्या यह मेरा अपराध है? उसने दाव पर सब कुछ क्यों
लगाया? उसे तो ऐसा नहीं करना चाहिए था।
वास्तव में युधिष्ठिर मामा शकुनि की चाल को समझ नहीं सका था जिसके कारण वह जुए
में हार गया था। वही शकुनि तथा दुर्योधन के बार-बार उकसाए जाने पर युधिष्ठिर आवेश
में आकर सब कुछ दाव पर लगा देता है तथा हार जाता है। परन्तु दुर्योधन यह सभी बातें
जानते हुए भी वह युधिष्ठिर को इसलिए कुछ नहीं देना चाहता था क्योंकि उसके मन में
भय था कि कही पाण्डव दुबारा से शक्ति संचित कर ताकतवर न बन जाए और हस्तिनापुर से
भी अधिक शक्तिशाली राज्य न खड़ा कर दें। इसलिए वह अपने पिता की बात मानने से भी अस्वीकार
कर देता है।
विशेष –यह पंक्तियाँ हमें यह सीख देती है कि हमें कभी भी जुआ जैसा
खेल नहीं खेलना चाहिए जो कि मनुष्य को बर्बाद कर सकता है। वही इन पंक्तियों में
दुर्योधन का भय स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
मारा गया वो
स्वर्ग पायेगा
और यदि जीता तो
भोगेगा
अस्तु, हे
कौन्तेय! हो तैयार
जमकर युद्धकर।
प्रसंग – प्रस्तुत कथन श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को कहा गया है। अर्जुन कुरुक्षेत्र में
युद्ध प्रारंभ होने से पहले दोनों पक्षों को युद्ध भूमि के मध्य में जाकर ठीके से
देख लेना चाहता था। अतः वह कृष्ण को युद्ध आरंभ होने से पहले युद्ध भूमि के मध्य
में ले चलने का आग्रह करते हैं। वही जब वे युद्ध भूमि के बीच आकर कौरव पक्ष को
देखते हैं तो उन्हें वहाँ केवल अपने सगे-संबंधि ही नज़र आते हैं। वे तब युद्ध में अपने
पितामह, गुरु, कुलगुरु आदि पर अस्त्र चलाने पर पाप का भागी हो जाने की चिन्ता करते
हैं। तब कृष्ण उन्हें गीता का ज्ञान देना प्रारंभ करते हैं और अर्जुन को समझाते
हैं कि वास्तव में यह युद्ध क्यों हो रहा है।
व्याख्या –
अर्जुन को समझाते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि हे कौन्तेय(कुन्ती के पुत्र) यह युद्ध
धर्म के लिए लड़ा जा रहा है। इस युद्ध में जो भी मारा जाएगा वह स्वर्ग पायेगा और
अगर कोई जीवित रह गया और युद्ध जीत गया तो वह हस्तिनापुर की धरती का राजा बनेगा और
उसका भोग करेगा। अतः युद्ध तो हर हाल में ही करना होगा। तुम तैयार हो जाओ और जमकर
युद्ध करो।
वास्तव में श्री कृष्ण के इस कथन में
रहस्य छिपा है। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि महाभारत का यह युद्ध धर्म और अधर्म
की लड़ाई है। यदि में अधिक सोच-विचार किया गया तो युद्ध लड़ने का वास्तविक कारण ही
धूमिल पड़ जाएगा और कदाचित अधर्मी कौरवों की जीत हो सकती है। यह युद्ध केवल द्रौपदी
के अपमान या हस्तिनापुर के सिंहासन की लड़ाई नहीं है बल्कि अधर्मी कौरवों का नाश
करने की लड़ाई है। यदि ये युद्ध नहीं होता है तो पाण्डव डर के हार मान चुके हैं ऐसा
भ्रम भी फैल सकता है जिससे साधारण जन-मानस में भी सत्य और धर्म के लिए खड़े होने
की इच्छा समाप्त हो जाएगी। वही यदि वे लड़ते हैं तो चाहे हारे या जीते दोनों ही
रूप से उन्हें लाभ मिलेगा। या तो स्वर्ग मिलेगा या फिर भूमि। परन्तु युगो-युगो तक
लोगों को प्रेरणा मिलेगी की उन्हें सत्य
और धर्म के लिए लड़ना भी पड़े तो वह उचित है।
विशेष -- अक्सर लोग अपने
रिश्ते नातों की मोह माया में आकर सत्य और धर्म का त्याग कर देते हैं जो कि समाज
के लिए लम्बे समय में हानी पहुँचाने का काम करता है। किसी भी प्रकार की अधार्मिक
काम से दूसरों को तकलीफ होने पर भी जब उसके अपने स्वजन ही इस पर पर्दा डाल देते
हैं तो आगे चल कर यह उन्हीं का ही अहित करता है। अतः श्री कृष्ण के अनुसार सदैव
धर्म और सत्य के लिए अपनों से भी लड़ना पड़ जाए तो उसमें कोई हानि नहीं है।
उत्तरा के पुत्र
में तो प्राण मैं फिर भी डाल दूंगा
किन्तु तुमको दे
रहा हूँ श्राप
पीब और लहू की
गंध से तुम भर जाओगे सदा
जड़ा के लिए
हजारों वर्ष तक
अकेले और भोगते ही रहोगे इस धरा पर
संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारे पाठ्य पुस्तक गाथा कुरुक्षेत्र की
से ली गयी है। यह एक काव्य नाटक है और इसके रचैता है मनोहर श्याम गोशी।
प्रसंग – प्रस्तुत कथन श्री कृष्ण ने अश्वत्थामा से कहा। युद्ध के
अंत में कौरव पक्ष में केवल अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा ही बच गए थे। तथा दुर्योधन
की हार का बदला लेने और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का बदला लेने अश्वत्थामा
पाण्डव शिविर में रात में ही घुस कर पाण्डव पुत्रों तथा अन्य रिश्तेदार आदि की
हत्या कर देता है। फिर अर्जुन के साथ युद्ध करते समय वह ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
करता जिसे आकर श्री वेदव्यास जी रोकने का प्रयास करते हैं। परन्तु ब्रह्मास्त्र को
वापस न लौटा पाने का ज्ञान न होने पर अश्वत्थामा उसे उत्तरा के गर्भ की ओर छोड़
देता है जिससे उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु की मृत्यु हो जाती है। तब कृष्ण उसे
अभिशाप देते हुए यह कहते हैं।
व्याख्या—अश्वत्थामा
द्वारा उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु पर ब्रह्मास्त्र छोड़े जाने से उसकी मृत्यु
हो जाती है। श्री कृष्ण तब क्रोध में आकर अश्वत्थामा को कहते हैं कि तुम्हारे कारण
एक निष्पाप अजन्में शिशु की ब्रह्मास्त्र जैसे शक्तिशाली अस्त्र से मृत्यु हुई है।
मैं तो फिर भी उसे जीवित कर दूंगा। परन्तु जो तुमने किया है वह पाप है। द्रौपदी के
पुत्र जिन्होंने इस युद्ध में भाग भी नहीं लिया था तथा अन्य संबंधियों को
जिन्होंने इस युद्ध में भाग नहीं लिया था उन सभी निर्दोषों की हत्या तथा उत्तरा के
अजन्में शिशु को मारकर तुमने भयंकर पाप किया है। इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूँ
कि तुम्हारी इस मृत्यु लोक में मृत्यु नहीं होगी। बल्कि तुम्हारे शरीर में पीब(फोड़े
का मवाद) तथा लहू की गंध भर जाएगी जो कि कभी भी नहीं छूटेगी। तुम हज़ारों वर्षों
तक अकेले इस गंध और पीड़ा को भोगते रहोगे और धरती पर भटकते रहोगे। मृत्यु के लिए
तुम तरसोगे लेकिन तुम्हें मृत्यु भी नहीं आएगी। तुम्हारे शरीर से पीब और लहू बहता
रहेगा।
विशेष – श्री कृष्ण
का क्रोध इन पंक्तियों में दिख रहा है। निर्दोषों की हत्या करना महा पाप है। अज्ञानता
के कारण ब्रह्मास्त्र को लौटा न पाना हमें यह सिखाता है कि किसी भी प्रकार की शक्ति
को धारण करने के लिए हमें उचित ज्ञान की भी आवश्यकता होती है।
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