साहित्य
क्या है?
साहित्य मनुष्य के मन को समस्त प्रकार के
अज्ञान, अंधकार तथा अहंकार से बाहर निकालने में सहायता करता है। साहित्य मनुष्य के
चित्त आनन्द प्रदान करने के साथ-साथ उसे विशाल बनाता है। साहित्य मानव समाज का
कल्याण करता है। साहित्य का अर्थ ही है कि सबका हित। साहित्य में समस्त विश्व समाज
का हित समाहित है।
मनोविज्ञान क्या है? मनोविज्ञान
वास्तव में एक विज्ञान है जिसके बारे
में अलग-अलग विद्वानों के मत कुछ इस प्रकार से रहे हैं। मनोविज्ञान का अर्थ है मन
का अध्ययन, विश्लेषण करना। जैसे ब्रज कुमार मिश्रा जी अपनी पुस्तक “मनोविज्ञान – मानव व्यवहार का
अध्ययन” नामक अपनी पुस्तक में लिखते
हैं कि स्वयं और दूसरों के बारे में जानने और समझने की जिज्ञासा प्रत्येक मनुष्य
की सर्वोच्च विशेषता होती है। अतः प्रत्येक मनुष्य अपने आस-पास के वातावरण में
उपस्थित वस्तुओं, व्यक्तियों, परिस्थितियों के बारे में जानने और समझने का प्रयास
करता है---मनोविज्ञान इन्हीं मानवीय जिज्ञासाओं का प्रयास करता है।1 अर्थात्
मनुष्य जन्म से ही जिज्ञासु होता है तथा अपनी जिज्ञासा के अनुसार ही वह अपने जीवन
क्रम में आगे बढ़ता है। उसी के अनुसार उसके कार्य भी होते हैं। कभी-कभी वह
परिस्थिति वश कार्य भी कर बैठता है। वह जिस मनःस्थिति में होता है उसी के अनुसार
वह अपने आस-पास की परिस्थितियों तथा वस्तुओं एवं व्यक्ति से जुड़ने की कोशिश करता
है, जानने-समझने का प्रयास करता है। मनोविज्ञान इन्हीं मानव स्वभाव तथा जिज्ञासाओं
का अध्ययन करता है। यह तो रही मनोवैज्ञानिक की दृष्टि में मनोविज्ञान का अर्थ।
साहित्य के साथ मनोविज्ञान का क्या
सम्बन्ध है इस पर भी ध्यान देना बहुत आवश्यक है। जिस प्रकार मनोविज्ञान मानव जीवन
से जुड़ा हुआ है उसी प्रकार साहित्य भी जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंक है। सबसे बड़ी
महत्वपूर्ण बात यह है कि साहित्य में मनोविज्ञान का होना आवश्यक तत्व है। साहित्य
में भावना होती है, आत्माभिव्यक्ति होती, आत्मानुभूति होती है, साहित्यकार की
संवेदना होती है। साहित्यकार की चेतना जब जाग्रत होती है तो वह पूरे संसार से जुड़
जाता है। उसके लिए तब संपूर्ण संसार ही उसका कुटुम्ब बन जाता है। तब वह विश्व समाज
में घट रही समस्त घटनाओं से प्रभावित होता है, तब वहाँ उसकी संवेदना विश्व समाज के
प्रति जग जाती है। तब साहित्यकार का मन, उसकी आत्मा, उसकी मानसिकता से समस्त
प्रकार की संकीर्णता दूर हो जाती है। जब साहित्यकार का मन पूरी तरह से विश्व समाज
से जुड़ जाता है तभी वह एक सुंदर साहित्य की रचना कर पाता है। तब वह रचना संपूर्ण
पाठक समाज के मन को छू लेती है। यही कारण है कि कई बार कोई व्यक्ति जो कि मानसिक
रूप से दुखी है या अवसाद ग्रस्त होता है तब वह यदि कोई अच्छी और प्रेरणात्मक रचना
पढ़ता है तो उस अवस्था से बाहर आ सकता है। विश्व के कई प्रसिद्ध विद्वान भी यही
कहते हैं कि व्यक्ति को अपने मानसिक स्वास्थ के लिए अच्छी पुस्तकें पढ़ना अनिवार्य
है। मानसिक स्वास्थ यदि अच्छा रहेगा तो व्यक्ति न केवल अपने जीवन को बल्की समाज को
भी सकारात्मक दिशा की ओर ले जा सकेगा।
एकलव्य
खण्ड काव्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन : एकलव्य खण्ड काव्य डॉ शोभनाथ पाठक द्वारा लिखित
महाभारत के एक महत्वपूर्ण पात्र एकलव्य पर आधारित रचना है। इसका प्रकाशन 2003 में
हुआ था। इस खण्ड काव्य में गुरु-शिष्य सम्बन्ध, एकलव्य, कौरव-पाण्डव राजकुमारों
तथा गुरू द्रोणाचार्य के चारित्रिक विशेषताएँ, एकलव्य का संकल्प, उसकी गुरु-भक्ति,
द्रोणाचार्य की विवशता इत्यादि सभी विषयों का लेखक ने बहुत ही सरल एवं स्पष्ट
चित्रण किया है। इसमें उन्होंने सभी पात्रों का स्वभाव, उनके विचारों तथा उनकी
कार्यों को नाटकीय रूप में प्रस्तुत किया है। इस खण्ड काव्य की विशेषता यह है कि
आज के आधुनिक युग में भी यह काव्यात्मक रचना होते हुए भी पाठकों के मन के साथ
आसानी से अपना सम्बन्ध स्थापित कर पाने में सक्षम है।
एकलव्य
खण्ड काव्य और वर्तमान गुरु शिष्य परम्परा और समस्याएँ : एकलव्य
की कथा के बारे में सभी को ज्ञात है। एकलव्य की कथा में सदैव ही यही दिखाया गया है
कि एकलव्य एक आदिवासी था, भील था इसी कारण गुरु द्रोण उसे अपना शिष्य स्वीकार नहीं
करते हैं। परन्तु इस कथा का एक पक्ष देखना साहित्यिक अध्ययन की दृष्टि में सही
नहीं है। बल्कि कथा के सभी पात्रों के जीवन के सभी पक्षों को देखना बहुत आवश्यक है।
वास्तविकता यह है कि गुरु द्रोण भी कौरव-पाण्डव राजकुमारों के गुरु होने से पहले
एक दरिद्र ब्राह्मण ही थे। उन्हें भी समाज में अपनी दरिद्रता के लिए काफी अपमान
तथा कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। यहाँ तक कि उनके मित्र पाँचाल राज्य के राजा
द्रुपद ने भी उन्हें भरी सभा में अपमानित करके भेज दिया था। राजा द्रुपद ने अपना
वचन भी नहीं निभाया था। वही हम कौरव-पाण्डव राजकुमारों की बात करें तो उन्हें भी
बहुत अंतर था। जहाँ कौरव राजकुमार महलों में ही पलकर बड़े हुए हैं तो पाण्डवों का
जन्म जंगल की कुटिया में ही हुआ क्योंकि उनके पिता पाण्डु हस्तिनापुर का राज्य
अपने भाई धृतराष्ट्र को सौंप कर अपनी पत्नियों कुंती और माद्री समेत वन में चले आए
थे। वही उन्होंने अपने जीवन में कई प्रकार के संघर्षों को झेला। वर्तमान परिदृश्य
की बात करें तो आज भी न जाने कितने द्रोण, कितने एकलव्य इसी प्रकार की समस्या से
जूझ रहे हैं। उनके बीच राजनीति की एक गहरी खाई है जिसका प्रयोग करके स्वार्थी राज
नेता दोनों पक्षों के वर्गों को धर्म तथा जाति के आधार पर लड़ाने में लगे है। वही
ऐसा भी देखा जा रहा है कि आज के छात्र शिक्षक की मानसिक परिस्थिति से अनभिज्ञ है
तो वही शिक्षक भी छात्र की मानसिक स्थिति से अनभिज्ञ है। आज का समय इतनी तेजी से
आगे बढ़ रहा है और अपने साथ सभी को आगे बढ़ने की होड़ में लगा चुका है। यही कारण
है कि शिक्षक हो या छात्र सभी चाहते हैं कि वह सबसे बेहतर बन जाए। छात्रों पर ये
दबाव सा बन गया है कि उसका परीक्षाफल सबसे अधिक अंक प्रतिषत हो, माता-पिता भी अपने
बच्चों को इसके लिए जोर देते रहते हैं। वही शिक्षकों पर भी कई प्रकार के अनदेखे
दबाव है क्योंकि उन्हें अपने शिक्षण कार्य के अलावा भी कई कार्यों में संलग्न रहना
पड़ता है। अतः ऐसे में वर्तमान में शिक्षक और छात्रों के बीच न चाहते हुए भी एक
प्रकार की दूरी सी आ गयी है। इन्हीं समस्याओं को ध्यान में रखते हुए यदि इस खण्ड
काव्य का अध्ययन किया जाए तो यह समझने में सुविधा होगी की गुरु-शिष्य परम्परा हमारे
देश में कैसी थी कालान्तर में कैसी होती रही और आज किस स्थिति में पहुँच चुकी है।
एकलव्य खण्ड काव्य की शुरुआत
लेखक ने प्रकृति की गोद में स्थित भील राज्य से की है। जहाँ का राजा हिरण्यधनु जो
कि भीलों का सरदार था। वह अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखता था। उसके राज्य की सभी
प्रजा बहुत ही मेहनती थी। राजा और प्रजा मिलकर अपना काम करती थी। उसी हिरण्यधनु का
पराक्रमी पुत्र था एकलव्य। एकलव्य के जन्म के बाद से ही उसके पिता उसकी शिक्षा-दीक्षा
को लेकर चिन्तित थे। वे जानते थे कि एकलव्य बचपन से ही प्रतिभाशाली है। वे इस बात
से चिन्तित थे कि इतने प्रतिभाशाली, इतने होनहार बालक को कौन शिक्षा दे सकेगा? एकलव्य एक होनहार प्रतिभावान
धनुर्धारी था। परन्तु वे लोग जाति से भील है। उस समय की सामाजिक व्यवस्था ऐसी कठोर
थी तथा जाति प्रथा का ऐसा कठोर पालन होता था कि शूद्र तथा आदिवासियों को किसी
प्रकार की शिक्षा पाने का अधिकार नहीं था। एकलव्य के पिता को इस बात की चिन्ता थी
कि कही उसकी प्रतिभा बिना शिक्षा के यू ही न व्यर्थ हो जाए। दूसरी ओर सामाजिक
व्यवस्था केवल जाति को देखती थी प्रतिभा को नहीं। अपने पिता को इस प्रकार से
चिन्तित देखकर एकलव्य उनसे पूछता है कि क्या कारण है इस चिन्ता का। उसे समझ में
नहीं आ रहा था कि किस कारण से उसके पिता चिन्तित है ----
इस
उधेड़बुन में व्याकुल लख,
पुत्र
बहुत अकुलाया।
तात्
! आज चिंतित क्यों इतने,
भांप
नहीं कुछ पाया।2
इस प्रसंग में पिता-पुत्र के बीच का
प्रेम और स्नेह की भावना को कवि ने अभिव्यक्त किया है। एकलव्य के पूछने पर
हिरण्यधनु बताते हैं कि हे बेटा तुम्हे धनुर्विद्या में पारंगत करना है। पर हम
अछूत है और इस अभिशाप के कारण हमें हर जगह से तिरस्कार सहन करना पड़ेगा। मैं इसी
बात से चिन्तित हूँ कि कौन तुम्हें अपना शिष्य बनाएगा? कैसी विडम्बना है कि जिस
ईश्वर ने बिना किसी भेद-भाव के इस संसार को बनाया, मनुष्य-मनुष्य में कोई अन्तर
नहीं किया उसी मनुष्य द्वारा निर्मित इस बेडोल सामाजिक व्यवस्था में केवल जाति को
ही महत्व दिया जाता है। ज्ञान, पराक्रम, सद्चरित्र, अच्छे आदर्श इन सब गुणों की
कोई परवाह नहीं करता। कोई व्यक्ति यदि ऊँची जाति में जन्मा है परन्तु अवगुणों से
भरा है फिर भी उसे मान्यता प्राप्त है परन्तु यदि कोई सभी प्रकार के अच्छे गुणों
से परिपूर्ण है परन्तु नीची जाति में जन्मा है तो उसे गुणों का कोई मूल्य नहीं, उस
व्यक्ति को भी मान्यता प्राप्त नहीं। जबकि समाज में गुणों का मूल्य होना चाहिए था
न कि जाति का। इस छूत-अछूत की व्यवस्था में एक प्रकार की स्वार्थ की सीढ़ी है जो
केवल पाप और पतन की ओर बढ़ती है। एकलव्य अपने पिता की बातों को सुनकर उन्हें
आश्वस्थ करने के लिए कहता है कि हे पिताजी आप इस प्रकार क्यों चिन्तित हो रहे हैं? हमारे गुरु द्रोण है न। वे
कौरव पाण्डव के शिक्षक है, वे महान धनुर्धर है। वे संसार में सबसे अच्छे गुरु है।
उनके जैसा तेजस्वी और पारखी व्यक्तित्व और कोई नहीं है। वे कभी भी ऊँच-नीच का
भेद-भाव नहीं करते हैं। मैं उनके पास अपनी पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ जाऊँगा और
उनसे निवेदन करूंगा कि वे मुझे अपना शिष्य बनाए। उनके शिक्षा प्राप्त करके मैं
अपने भील राज्य का उद्धार करूँगा। एकलव्य अपने पिता को समझा-बुझाकर गुरु द्रोण से
शिक्षा मांगने चल पड़ता है। एकलव्य के पिता उसे प्यार से गले लगाकर तथा सफल होने
का आशीर्वाद देकर विदा करते हैं। जब एकलव्य गुरू द्रोण के आश्रम पहुँचता है तो
वहाँ गुरू द्रोण कौरव-पाण्डवों को शिक्षा दे रहे होते हैं। एकलव्य वहाँ पहुँच कर
गुरु द्रोणाचार्य के पास विनम्र निवेदन करता है। सभी देखकर चकित हो जाते हैं कि ये
कैसा अद्भुत बालक है जिसमें इतनी लालसा है ज्ञान प्राप्त करने की। सभी उसकी गुरु
भक्ति एवं श्रद्धा देखकर स्तब्ध रह जाते हैं। गुरु द्रोण के पूछने पर एकलव्य अपना
परिचय देता है। गुरु द्रोण उसको भील कुमार जानकर उसे शिक्षा देने से मना कर देते
हैं। अपने-आप के बारे में शूद्र शब्द सुनकर वह दुखी होता है जैसे कि कोई तीर चुभा
हो लेकर चला जाता है ---
कसक
कलेजा लगी सालने,
‘शूद्र’ शब्द के शर से।
हलचल-सी
मच गई हृदय में,
निकल
पड़ा हूँ घर से।।3
जब वह वापस जंगल की तरफ लौट रहा होता है तो उसे
याद आता है कि उसने अपने पिता तथा बाकी भील राज्य के लोगों से कहा था कि वह गुरु
द्रोण से शिक्षा लेने जा रहा है। अब यदि वह वहाँ बिना शिक्षा के गया तो फिर सबको
कितना दुख और अपमान होगा। दुखी मन से वह जा रहा होता है तभी उसे नारद मुनि की
आवाज़ सुनाई देती है। वे कह रहे होते हैं कि यदि वह लगन और मेहनत के साथ शिक्षा
प्राप्त करने की चेष्टा करेगा तो फिर उसे कुछ भी प्राप्त हो सकता है। नारद मुनि
उसे अष्ट सिद्धि नव निधियों के बारे में बताते हुए उसे ये युक्ति देते हैं कि यदि
वह गुरु द्रोण की मूर्ति बनाकर उसके सामने प्रतिदिन धनुर्विद्या का अभ्यास करे तो
वह सबकुछ सीख सकता है। यहाँ यह भी देखने की बात है कि स्वयं नारद मुनि भी एक
ब्राह्मण ही है बल्कि वे ब्रह्मा के पुत्र है यह बात सभी को ज्ञात है फिर भी
उन्होंने एकलव्य की गुरु भक्ति और ज्ञान प्राप्त करने की लालसा को जानकर उसका
अप्रत्यक्ष रूप से साथ दिया है। फिर समाज में यह जाति-भेद की भावना कैसे आयी यही
सबसे बड़ा प्रश्न आज हमारे सामने है। इसका सबसे बड़ा कारण यही रहा है कि कुछ
स्वार्थी व्यक्तियों के कारण ही समाज में यह भेद-भाव फैला। यह भेद-भाव न केवल जाति
का है बल्कि धनी-निर्धन, राज-प्रजा, शक्तिमान और दुर्बल आदि जैसे प्रत्येक स्तर पर
फैला हुआ है।
एकलव्य नारद मुनि की प्रेरणा से अपनी सम्पूर्ण
भक्ति और श्रद्धा से गुरु द्रोण की मूर्ति तैयार करता है। प्रतिदिन गुरु की पूजा
के बाद वह धनुर्विद्या का अभ्यास करना शुरू कर देता है। एक दिन जब वह अभ्यास कर
रहा होता है तो उस वक्त एक कुत्ता वहाँ आ पहुँचता है। वह उसके अभ्यास में बाधा न
डाल सके इसलिए एकलव्य उस कुत्ते के भौंकने से पहले ही इस प्रकार बाण चलाकर उसका
मुँह बन्द कर देता है जिससे कि कुत्ते को किसी प्रकार का नुकसान न पहुँचे। कुत्ता
इसी अवस्था में जब अपने मालिक कौरव एवं पाण्डव राजकुमारों के पास पहुँचता है तो वे
सभी चकित रह जाते हैं। जब वे इसका पता लगाते हुए वन में पहुँचते हैं तो फिर उन्हें
एकलव्य दिखायी देता है। एकलव्य से प्रश्न पूछने पर वह सारी बात बता देता है।
परन्तु कौरव-पाण्डव राजकुमार उसे धमकाने लगते हैं। तब एकलव्य कहता है कि ज्ञान
किसी के पिता की सम्पत्ति नहीं होती बल्कि वह मेहनत से ही प्राप्त होती है। उसमें
किसी भी प्रकार का अहंकार करना उचित नहीं है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए ऊँच-नीच
का भेदभाव बिलकुल भी उचित नहीं है। एकलव्य का यह संकल्प तथा उसके विचार सुनकर सभी
स्तब्ध रह जाते हैं ---
कुरु-पांडव
स्तब्ध रह गए,
भील-युवक
का यह संकल्प!
ईर्ष्या
अग्नि भस्म कर डाली,
बदले
का है समय न अल्प।।4
सभी
क्रोध और ईर्ष्या के मारे गुरु द्रोण के पास पहुँचते हैं। जब ज्ञान स्वअध्याय से
प्राप्त करने की क्षमता न हो तो वहाँ ईर्ष्या-द्वेष की भावना जगती है। आज के युग
में ऐसा ही देखने को सर्वाधिक मिलता है जहाँ व्यक्ति दूसरे की सफलता देखकर ईर्ष्या
ही करता है जो कि स्वयं उसके मस्तिष्क की ही उपज है। वही राजकुमारों द्वारा उन्हें
जब सबकुछ ज्ञात होता है तो गुरु द्रोण भी पहले यही समझाते हैं कि मेहनत और लगन और
तपस्या से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। परिश्रम से तो पूरे संसार में बदलाव
लाया जा सकता है। परिश्रम और संकल्प से ब्रह्म भाग्य अर्थात् हाथों की रेखा तक
बदली जा सकती है। अर्जुन की तरफ देखकर फिर गुरु द्रोण उससे कहते हैं कि हे पार्थ
मेरी प्रतिज्ञा थी कि मैं तुम्हें विश्व का सबसे श्रेष्ठ धनुर्धर बनाऊँगा वह पूरी
नहीं हो सकी। अर्जुन इस बात से दुखी हो जाता है। फिर सभी अन्य राजकुमार तथा गुरु
आपस में मिलकर एकलव्य के संकल्प को तोड़ने तथा उसे असफल बनाने की गूढ़ योजना बनाते
हैं। सभी आपस में मंत्रणा कर एकलव्य के पास पुनः जाते हैं। वहाँ एकलव्य की
धनुर्विद्या का चमत्कार देखकर गुरु द्रोण एक समय के लिए मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।
फिर सभी राजकुमार गुरू द्रोण को यह समझाते हैं कि यदि एकलव्य उन्हें अपना गुरु
मानते हैं तो फिर गुरु द्रोण उससे गुरु दक्षिणा में उसका अंगूठा माँग ले। यही सबसे
अच्छी गुरु दक्षिणा होगी। वास्तव में यह एकलव्य को असफल बनाने की सबकी चाल थी।
एकलव्य जब अपनी धनुर्विद्या में मग्न था तो उसे पता नहीं चलता है कि उसके गुरु देव
वहाँ आए हुए हैं। वह अति प्रसन्न होकर गुरु द्रोण को प्रणाम करता है। गुरु द्रोण
उसकी प्रशंसा करते हुए उससे गुरु दक्षिणा की माँग कर बैठते हैं। एकलव्य उन्हें
देखकर बहुत आनन्दित होता है कि जिनकी अब तक वह मूर्ति रखकर धनुर्विद्या का अभ्यास
कर रहा था आज वह साक्षात उनके पास आए हैं। एकलव्य इसी बात से प्रसन्न हो जाता है
कि गुरु द्रोण ने आखिर उसे अपना शिष्य स्वीकार कर लिया है अतः वे उससे गुरु
दक्षिणा की माँग कर रहे है। गुरु दक्षिणा में अपने दाहिने हाथ का अँगूठा माँगने पर
वह बिना किसी द्विरुक्ति के अपना अँगूठा काटकर दे देता है। एकलव्य गुरु द्रोण को
दक्षिणा देने के बाद अपने मन में प्रसन्नता और तृप्ति का भाव लेकर वहाँ से चला
जाता है। उसकी मनःस्थिति के बारे में कवि लिखते हैं कि वह एक समय रो भी रहा कि अब
उसका गुरु से नाता समाप्त हो जाएगा तो वही वह प्रसन्न भी हो रहा है कि उसे गुरु देव
ने अपना शिष्य मानते हुए उससे गुरु दक्षिणा माँगी है। एकलव्य जो कि एक भील जाति का
गरीब शिष्य है जिसके पास किसी को भी देने के लिए कुछ भी नहीं है उसने आज अपना अँगूठा
काटकर गुरु दक्षिणा दी है – गुरु
को अर्पित कर अंगूठा
धन्य-धन्य
चिल्लाया।
अहो
भाग्य, दक्षिणा दान से,
तन-मन-हृदय
जुड़ाया।5
तो वही कवि ने गुरु द्रोण की दशा का भी वर्णन
किया है – द्रोण हृदय फट रहा व्यथा से, थर-थर कांप रहे थे।6
वही खण्ड काव्य के तीसरे अध्याय के
अंतिम हिस्से में कवि ने गुरु द्रोण की मनःस्थिति का भी चित्रण किया है कि जब
एकलव्य अपना अँगूठा काटकर दे देता है तो फिर वहाँ उपस्थित किसी को भी यह विश्वास
नहीं होता है कि एक शूद्र में भी ऐसी गुरु भक्ति हो सकती है। स्वयं गुरु द्रोण को
इस बात का विश्वास नहीं हो पात है। वे बहुत ही दुखी और लज्जा का भाव लेकर आश्रम
लौटते हैं। उनकी इस दशा को देखकर कृपी उनसे पूछती है परन्तु वे कुछ नहीं बता पाते
हैं। उन्हें तब ऐसा लग रहा था कि जैसे उनके माथे पर कोई कलंक लग गया हो। ऐसे में
वे उसी अवस्था में सोने चले जाते हैं परन्तु उन्हें नींद भी नहीं आती है। उन्हें
रह-रहकर अपने उन दिनों की याद आती है जब वे भी स्वयं एकलव्य के समान ही निर्धन थे।
उनके पास एक गाय तक नहीं थी। उनके बेटे ने जब एक बार दूध पीने की मांग की तो कैसे
उन्होंने आटे के घोल को दूध कहकर पिलाया था। कैसे उनकी दरिद्रता के लिए उनके
परिवार को अपमान सहना पड़ा था। कैसे किसी ने भी उन्हें गाय तक देने से इन्कार कर
दिया था। फिर गुरु द्रोण को यह भी याद आता है कि द्रुपद ने उन्हें एक बार वचन दिया
था कि वह जब राजा बनेगा तो अपने राज्य का आधा हिस्सा गुरु द्रोण को देगा। अपने
मित्र की बात याद आते ही जब गुरु द्रोण पांचाल राज्य जाते हैं और राजा द्रुपद को
गुरु आश्रम में दिए अपने वचनो की बात याद दिलाते हैं तो द्रुपद उनका भरी सभा में
अपमानित करके भेज देता है। तब वे अपमानित और निराश होकर हस्तिनापुर की ओर चलते हैं।
वहाँ जाकर वे सहायता माँगते हैं जिस पर भीष्म उन्हें कौरव-पाण्डव राजकुमारों का
गुरु नियुक्त करते हैं। गुरु द्रोण भी यही शर्त स्वीकार करते हैं कि आज से वे केवल
क्षत्रिय राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे। उन्हें अर्जुन की तनमयता से शिक्षा ग्रहण
करने की बात भी याद आती है। वे उस समय ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं जहाँ वह
एकलव्य और अपनी दशा से परेशान होकर रो पड़ते हैं। अपने आप पर ही हँस पड़ते है कि
वे हार गए। एक अच्छे शिष्य का अँगूठा माँगकर जो उन्होंने क्रूरता दिखायी है इसी
कारण वे रात भर तड़पते रहते हैं। वे बार-बार उस प्रसंग को याद कर तथा अपनी
परिस्थितियों को याद कर उसी में डूबते उतरते रहते हैं तथा उनकी स्थिति पागलों की
जैसी हो जाती है। यथा –
विह्वल होकर बिलख पड़े थे,
हंसे हार पर अपने।
बंधुआ मजदूरी पर व्याकुल
ध्वस्त हो गए सपने।7
यहाँ गुरु
द्रोण की ऐसी दशा क्यों हो गयी है क्योंकि गुरु द्रोण ने राजकुमारों का ही गुरु
बनने की शर्त स्वीकार कर वह जैसे गुरु होते हुए भी बंधुआ मजदूर हो गए थे। एक तरफ
गुरु-शिष्य परम्परा की ऐसे उदाहरण है जहाँ गुरु से राजा आदेश पाते थे, गुरु
स्वतंत्र थे। परन्तु वही उनकी अपनी स्थिति ऐसी हो गयी है जिसमें वे गुरु होते हुए
भी अपना स्वतंत्र मत नहीं रख सकते। एकलव्य जैसा गुणी छात्र जिसके साथ इतना बड़ा
अन्याय हो गया। उनके जो आदर्श थे, जो सपने थे सब मिट्टी में मिल गए। वर्तमान की
बात की जाए तो आज भी ऐसी ही स्थिति शिक्षकों की हो गयी है। उनके सपने आज केवल सपने
रह गए हैं। परिस्थितियों तथा संघर्षों, उपेक्षाओं तथा दिशा हीन होती समाज की गुरु
के प्रति संकुचित सोच ने, दरिद्रता ने आज गुरुओं के सपनों को वास्तविक रूप से
मिट्टी में मिलाकर रख दिया है। इसके कई दुष्परिणाम हमें आए दिन अखबारों तथा न्यूज
चैनेलों में देखने को मिलते हैं।
अंत में कवि ने अपनी इस रचना में यही
कहाँ है कि समाज से ऊँच-नीच की भावना को मिटाना बहुत ही आवश्यक है। क्योंकि इसी
कारण व्यक्ति कभी भी सही दिशा की ओर बढ़ नहीं पाता है। सबसे अधिक बुरा प्रभाव
गुरु-शिष्य की जो एक सुन्दर परम्परा है उस पर पड़ता है। इसलिए समाज से ऊँच-नीच तथा
जाति-पाति की प्रथा को हटाना बहुत जरूरी है। साथ ही स्वार्थी मानसिकता वाले लोगों
से भी गुरु और छात्र दोनों की रक्षा होनी बहुत आवश्यक है।
संदर्भ
ग्रन्थ
1.
मनोविज्ञान—मानव
व्यवहार का अध्ययन- ब्रज कुमार मिश्रा, PHI Learning Pvt. Ltd, पृ,सं -5
2.
एकलव्य – डॉ
शोभनाथ पाठक, राजपाल प्रकाशन, दिल्ली, 2014, पृ,सं –14
3.
वही पृ,सं –22
4.
वही पृ,सं –33
5.
वही पृ,सं –43
6.
वही पृ,सं –43
7.
वही पृ,सं –59