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शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

गाथा कुरुक्षेत्र की

बड़े प्रश्नोत्तर वाले नोट्स 15 अंक वाले।

1. प्रश्नोत्तर 1: श्रीकृष्ण का कर्मयोग उपदेश और उसकी प्रासंगिकता (15 अंक)

प्रश्न:

मनोहर श्याम जोशी की 'गाथा कुरुक्षेत्र की' में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए कर्मयोग और स्थितप्रज्ञता के उपदेश की विस्तृत व्याख्या कीजिए। आज के जीवन में इस उपदेश की प्रासंगिकता कहाँ तक सिद्ध होती है?

उत्तर:

मनोहर श्याम जोशी ने 'गाथा कुरुक्षेत्र की' के तृतीय सर्ग में, मोहग्रस्त अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता के सारगर्भित दर्शन, अर्थात् कर्मयोग का उपदेश दिलवाया है। यह उपदेश न केवल युद्धभूमि के लिए, बल्कि आधुनिक जीवन के लिए भी एक शाश्वत दर्शन प्रस्तुत करता है।

क. कर्मयोग और स्थितप्रज्ञता का उपदेश:

स्वधर्म पालन का महत्व: कृष्ण सर्वप्रथम अर्जुन के मोह को कायरता बताते हैं और उसे स्वधर्म (क्षत्रिय धर्म) का पालन करने को कहते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि परिणाम चाहे जो भी हो (स्वर्ग या मही (पृथ्वी) का भोग), क्षत्रिय का परम कर्तव्य युद्ध करना ही है।

आत्मा की अमरता का ज्ञान: शोक से मुक्त करने के लिए कृष्ण आत्मा की अमरता और देह की नश्वरता का ज्ञान देते हैं। वे कहते हैं, "त्यागकर जीर्ण वस्त्रों को जैसे वस्त्र नवीन करते हैं धारण, वैसे ही आत्मा देह का चोला पुराना छोड़कर नया लेता है पहन।" अतः, किसी के लिए शोक करना अज्ञान है।

निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत: यह उपदेश का केंद्र है। कृष्ण कहते हैं, "कर्म पर अधिकार है तेरा किन्तु है नहीं कर्म के फल पर।" मनुष्य को फल की चिंता किए बिना केवल अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। फल की चाह ही बंधन है।

स्थितप्रज्ञता की अवस्था: कर्मों की कुशलता (आसक्तिरहित कर्म) ही योग है। जो व्यक्ति सिद्धि और असिद्धि को एक समान देखता है और मन की सभी कामनाओं को त्याग देता है, वही स्थितप्रज्ञ कहलाता है।

विनाश की श्रृंखला से चेतावनी: कृष्ण आसक्ति से होने वाले विनाश की मनोवैज्ञानिक श्रृंखला समझाते हैं: आसक्ति \rightarrow कामना \rightarrow क्रोध \rightarrow सम्मोह \rightarrow स्मृतिनाश \rightarrow बुद्धिनाश। बुद्धिनाश होते ही मनुष्य अपने पुरुषार्थ से भटक जाता है।

ख. आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता:

कृष्ण का यह उपदेश आज के प्रतिस्पर्धी और तनावग्रस्त युग में अत्यंत प्रासंगिक है:

कार्य-तनाव (Work Stress) का निवारण: आधुनिक जीवन में लोग परिणाम (प्रमोशन, वेतन) की चिंता में ही सबसे अधिक तनावग्रस्त होते हैं। कर्मयोग सिखाता है कि सफलता या असफलता पर नियंत्रण नहीं है, नियंत्रण केवल प्रयास की गुणवत्ता पर है। यह दृष्टिकोण 'बर्नआउट' (Burnout) से बचाता है।

कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी: स्वधर्म पालन का सिद्धांत बताता है कि हर व्यक्ति को अपने कार्यक्षेत्र (प्रोफेसर, डॉक्टर, व्यापारी) में अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए, भले ही तात्कालिक लाभ न हो।

भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence): 'आसक्ति से विनाश' की श्रृंखला क्रोध और सम्मोह पर नियंत्रण करना सिखाती है। यह आधुनिक भावनात्मक बुद्धिमत्ता के सिद्धांत के अनुरूप है कि आवेश में लिए गए निर्णय हमेशा बुद्धि का नाश करते हैं।

संतुलन और आत्म-नियंत्रण: स्थितप्रज्ञ की अवस्था आज के व्यक्ति को उपभोक्तावादी समाज में कामनाओं के जाल से बाहर निकलकर, सुख-दुःख में समान भाव रखने की प्रेरणा देती है।

2. प्रश्नोत्तर 2: भीष्म का नैतिक और भावनात्मक द्वंद्व तथा उनकी मृत्यु का औचित्य (15 अंक)

प्रश्न:

काव्य नाटक 'गाथा कुरुक्षेत्र की' के चतुर्थ और पंचम सर्गों के आधार पर पितामह भीष्म के नैतिक और भावनात्मक द्वंद्व का विश्लेषण कीजिए। उनकी मृत्यु शिखण्डी द्वारा क्यों सुनिश्चित की गई और बाणों की शैया पर उनका अंतिम व्यवहार उनके 'अजेय' व्यक्तित्व को कैसे स्थापित करता है?

उत्तर:

भीष्म पितामह महाभारत के सबसे पूज्य, ज्ञानी और वीर पात्र हैं, जो 'गाथा कुरुक्षेत्र की' में भी धर्म और प्रतिज्ञा के बीच फँसे हुए एक महान ट्रैजिक हीरो के रूप में चित्रित किए गए हैं।

क. नैतिक और भावनात्मक द्वंद्व:

भीष्म का द्वंद्व उनकी प्रतिज्ञा (सत्य) और धर्म (न्याय) के बीच था:

अर्थ-दासता का दुःख: युधिष्ठिर से अनुमति लेते समय, भीष्म अपने दुःख को प्रकट करते हैं: "अर्थ का है दास हर पुरुष... तो लडूँगा मैं कौरवों की ओर से ही, शुभकामनाएँ किन्तु मेरी तुम पाण्डवों के साथ हैं।" वे जानते थे कि न्याय पाण्डवों के पक्ष में है, पर कौरवों का अन्न खाने की प्रतिज्ञा (अर्थ-दासता) उन्हें अधर्म का साथ देने को विवश करती है।

नैतिक बंधन बनाम कर्तव्य: भीष्म की प्रतिज्ञा थी कि वे स्त्री पर अस्त्र नहीं उठाएँगे। इसी नैतिक बंधन के कारण वे जानते थे कि उनकी मृत्यु का रहस्य केवल शिखण्डी है। उन्होंने अपनी मृत्यु का रहस्य युधिष्ठिर को बताकर धर्म की स्थापना का मार्ग खोल दिया, जबकि स्वयं अधर्मियों की रक्षा का कर्तव्य निभाते रहे।

अभिमन्यु से लगाव: युद्ध के प्रथम दिन जब पंद्रह वर्षीय अभिमन्यु अकेले कौरव सेना का सामना करता है, तो भीष्म उसे 'वीर तू है पुत्र असली पार्थ का' कहकर साधुवाद देते हैं। यह उनका भावनात्मक लगाव दर्शाता है, जो युद्ध की क्रूरता से भी बड़ा था।

ख. शिखण्डी द्वारा मृत्यु का औचित्य:

भीष्म की मृत्यु शिखण्डी द्वारा सुनिश्चित की गई, जो निम्न कारणों से उचित थी:

प्रतिज्ञा का पालन: भीष्म की यह दृढ़ प्रतिज्ञा थी कि वे स्त्री पर शस्त्र नहीं उठाएंगे। शिखण्डी को पूर्वजन्म की अम्बालिका मानकर, भीष्म ने उसके सामने अस्त्र त्याग दिया। इस तरह, उनकी मृत्यु ने उनकी नैतिक प्रतिज्ञा को खंडित होने से बचा लिया।

मुक्ति का मार्ग: भीष्म स्वयं युधिष्ठिर से कहते हैं कि शिखण्डी को लाकर उनका वध कर दिया जाए ताकि उन्हें इस संसार से मुक्ति मिल सके। यह उनकी मृत्यु को त्याग और स्व-इच्छा का रूप देता है, न कि केवल हार का।

ग. बाणों की शैया पर 'अजेय' व्यक्तित्व:

बाणों की शैया पर भीष्म का व्यवहार उनके 'अजेय लौह पुरुष' व्यक्तित्व को सिद्ध करता है:

इच्छा-मृत्यु का आत्म-नियंत्रण: बाणों से बिंधे होने पर भी वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में प्राण रोके रखते हैं। यह उनकी इच्छा-मृत्यु के वरदान और आत्म-नियंत्रण की पराकाष्ठा है, जिसे कोई सामान्य योद्धा नहीं कर सकता।

वीर के अनुरूप सेवा: वे दुर्योधन द्वारा लाए गए कोमल तकिये और शीतल जल को ठुकरा देते हैं। वे अर्जुन से कहते हैं कि जब शैया बाणों की है, तो सिराहाना भी बाणों का ही होना चाहिए।

दिव्य प्यास: वे अपनी प्यास बुझाने के लिए अर्जुन से पार्जन्य अस्त्र से गंगा की धारा निकालने को कहते हैं। यह मांग दर्शाती है कि उनका शरीर भले ही घायल हो, पर उनकी आत्मा और उनकी इच्छाएँ अभी भी दिव्य थीं।

इस प्रकार, भीष्म की मृत्यु केवल एक योद्धा का अंत नहीं, बल्कि प्रतिज्ञा, त्याग और अटूट आत्म-संयम के माध्यम से धर्म की विजय सुनिश्चित करने वाले एक महानायक की गरिमापूर्ण विदाई थी।

गाथा कुरुक्षेत्र की part 4 लघु प्रश्नोत्तर और संदर्भ प्रसंग व्याख्या

लघु प्रश्नोत्तरी 

1. भीष्म के धनुष को किसने काटा?

 अर्जुन

2. भीष्म को कौन-सा अस्त्र मारने के लिए कृष्ण स्वयं जाने को तैयार हो जाते हैं?

 चक्र

3. कृष्ण ने अर्जुन को किसके सिर का धनुष काटने को कहा? 

भीष्म

4. भीष्म ने कृष्ण को 'युद्धश्रेष्ठ' कहकर क्या स्वीकार किया? 

नमन

5. अर्जुन ने कृष्ण को क्या न करने के लिए वचनबद्ध बताया? 

युद्ध

6. भीष्म के अनुसार अब किसका अंतिम समय समीप है? 

अवसान दिवस

7. भीष्म को किसका वरदान प्राप्त था?

 इच्छा-मृत्यु

8. भीष्म किस ऋतु की प्रतीक्षा में प्राण रोके हुए थे?

 उत्तरायण

9. भीष्म ने अर्जुन से सिर के लिए क्या बनवाने को कहा? 

सिराहाना (तकिया)

10. भीष्म की देह किस पर लेटी थी?

 बाणों की शैया

11. भीष्म की प्यास किसने बुझाई?

 अर्जुन

12. भीष्म की प्यास बुझाने के लिए अर्जुन ने कौन-सा अस्त्र चलाया? 

पार्जन्य

13. पार्जन्य अस्त्र से निकली धारा कौन-सी थी?

 गंगा मैया

14. दुर्योधन ने भीष्म से किस पर तकिया लगाने को कहा था? 

मोटे तकिये

15. भीष्म का लोहा कवच किसने बाँध रखा था? 

बाणों

16. भीष्म का वध करने कौन आगे आया? 

शिखण्डी

17. शिखण्डी को किसकी आड़ बताया गया?

 अर्जुन

18. शिखण्डी पूर्वजन्म में कौन थी?

 अम्बालिका

19. शिखण्डी को भीष्म क्या नहीं मानते थे? 

अस्त्र

20. भीष्म के अनुसार दुर्योधन को किसमें भी बुद्धि विपरीत थी?

 विनाशकाल



2. संदर्भ-प्रसंग-व्याख्या (Reference-Context-Explanation)

नोट 1: कृष्ण द्वारा प्रतिज्ञा भंग का प्रयास और अर्जुन की दृढ़ता

उद्धरण:

कृष्ण: "तुमसे कुछ भी नहीं होगा, मैं ही अब जाकर लड़ता हूँ।"

भीष्म: "युद्धश्रेष्ठ कृष्ण! करें स्वीकार नमन मुझ गांगेय भीष्म का, मुझे मार दें, तार दें अब, उपकार सबका है उसी में।"

अर्जुन: "नहीं कृष्ण नहीं, आप तो वचनबद्ध हैं नहीं लड़ने को इस युद्ध में, पितामह को मारने का भार मेरा है, संहार में ही करूँगा उनका।" (पृष्ठ 40)

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: भीष्म के युद्ध कौशल से हताश अर्जुन को देखकर कृष्ण का युद्ध करने के लिए तत्पर होना।

ख. प्रसंग (Context):

भीष्म के सामने पाण्डवों की सेना कमज़ोर पड़ रही थी। अर्जुन स्वयं उनके बाणों को झेल नहीं पा रहे थे। इससे निराश होकर, कृष्ण अपनी प्रतिज्ञा (कि वे युद्ध में अस्त्र नहीं उठाएँगे) भंग करके भी भीष्म को मारने के लिए तत्पर हो जाते हैं।

भीष्म कृष्ण के इस भाव की सराहना करते हैं और इसे 'उपकार' बताते हैं, जबकि अर्जुन कृष्ण को उनकी प्रतिज्ञा की याद दिलाकर उन्हें रोकते हैं और स्वयं ही यह कार्य पूरा करने की दृढ़ता दिखाते हैं।

ग. व्याख्या (Explanation):

कर्तव्य का द्वंद्व: कृष्ण के लिए अर्जुन का धर्म (युद्ध करना) और धर्म की स्थापना उनकी व्यक्तिगत प्रतिज्ञा से बड़ी थी। वे भीष्म को मारकर धर्म की स्थापना करना चाहते थे।

भीष्म का त्याग: भीष्म, कृष्ण को 'युद्धश्रेष्ठ' कहकर स्वीकार करते हैं कि उनके हाथों मरना ही उनका और सबका कल्याण है। यह उनका अंतिम त्याग था।

अर्जुन की दृढ़ता: अर्जुन जानते थे कि पितामह का वध उनकी नियति है। वह कृष्ण को उनकी प्रतिज्ञा का सम्मान करने को कहते हैं और स्वयं ही पितामह को मारने का भार उठाते हैं, जो उनके क्षत्राणी धर्म की पुनर्स्थापना को दर्शाता है।

नोट 2: भीष्म का शिखंडी के सामने अस्त्र त्याग

उद्धरण:

भीष्म: "तो सुनो युधिष्ठिर! उठाता मैं नहीं हूँ अस्त्र स्त्रियों पर... जन्मी वही शिखण्डी रूप में है। तो लेकर लौट उसको कल अर्जुन लड़े मुझसे और वध कर मेरा, दिला दे मुक्ति मुझको इस संसार से।"

दुर्योधन: "शिखण्डी की आड़ में कायर अर्जुन भीष्म से लड़ रहा है। रोको उसे दुःशासन!" (पृष्ठ 42)

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: भीष्म द्वारा अपनी मृत्यु का रहस्य युधिष्ठिर को बताने के बाद युद्ध में शिखंडी का प्रवेश और भीष्म का अस्त्र त्यागना।

ख. प्रसंग (Context):

युधिष्ठिर की सलाह पर पाण्डव, शिखण्डी को आगे करते हैं। शिखण्डी पूर्वजन्म में अम्बालिका थीं, जिसका हरण भीष्म ने किया था और जो बाद में स्त्री रूप में जन्म लेकर भीष्म की मृत्यु का कारण बनीं।

भीष्म की नैतिकता (स्त्रियों पर अस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा) के कारण वे शिखण्डी के सामने हथियार डाल देते हैं, जिससे अर्जुन उनकी आड़ लेकर उन पर बाण चला पाते हैं।

ग. व्याख्या (Explanation):

प्रतिज्ञा का पालन: भीष्म के लिए अपनी प्रतिज्ञा (स्त्रियों पर अस्त्र न उठाना) जीवन से बड़ी थी। शिखण्डी के सामने अस्त्र न उठाकर उन्होंने अपनी नैतिकता और क्षत्रिय धर्म के एक विशिष्ट नियम का पालन किया।

दुर्योधन का दृष्टिकोण: दुर्योधन इस कृत्य को 'कायरता' मानता है और शिखण्डी को केवल 'आड़' कहता है, क्योंकि वह भीष्म के गहन नैतिक सिद्धांतों को समझने में असमर्थ है।

मुक्ति की इच्छा: भीष्म युधिष्ठिर को स्वयं ही कहते हैं कि शिखण्डी को लाकर उनका वध किया जाए ताकि उन्हें संसार के इस बंधन और अर्थ की दासता से मुक्ति मिल सके।

नोट 3: बाणों की शैया पर भीष्म की अंतिम इच्छा

उद्धरण:

भीष्म: "इच्छा-मृत्यु का वरदान मुझको प्राप्त है इसलिए शुभ उत्तरायण की प्रतीक्षा में रोके हुए हूँ प्राण अपने... सिराहाना भी दिया वैसा जैसा बिछौना था।... नादान हो तुम, नहीं समझा, अर्जुन तू ही बुझा अब प्यास मेरी।" (पृष्ठ 44, 45)

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: बाणों से बिंधकर पृथ्वी पर गिरने के बाद भीष्म की अंतिम इच्छाएँ और उनका असाधारण आत्म-संयम।

ख. प्रसंग (Context):

भीष्म बाणों की शैया पर गिर चुके हैं। दुर्योधन उन्हें मोटे-मोटे तकिये और शीतल जल देकर उनकी प्यास बुझाने का प्रयास करता है, पर भीष्म यह सब अस्वीकार कर देते हैं।

भीष्म, अर्जुन से वीर के अनुरूप अंतिम संस्कार की माँग करते हैं।

ग. व्याख्या (Explanation):

इच्छा-मृत्यु और उत्तरायण: भीष्म धर्मशास्त्र के अनुसार, उत्तरायण (शुभ समय) में ही प्राण त्यागना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपनी इच्छा-मृत्यु के वरदान से अपने प्राणों को रोक रखा था।

वीर का सम्मान: भीष्म दुर्योधन द्वारा दिए गए कोमल तकिये और सामान्य जल को अस्वीकार करते हैं। उनका कथन था कि जब शैया बाणों की है, तो सिराहाना (तकिया) भी बाणों का ही होना चाहिए।

प्यास बुझाना: भीष्म अपनी प्यास बुझाने के लिए अर्जुन से पार्जन्य अस्त्र से गंगा मैया की धारा निकालने को कहते हैं। यह न केवल उनकी प्यास बुझाता है, बल्कि यह सिद्ध करता है कि एक वीर की अंतिम सेवा भी एक वीर ही कर सकता है, और केवल दिव्य शक्तियों द्वारा ही उनकी इच्छा पूरी हो सकती है।

गाथा कुरुक्षेत्र की लघु प्रश्नोत्तरी और संदर्भ प्रसंग व्याख्या

 क्र.सं. प्रश्न (Question) उत्तर (Answer)

1. अर्जुन युद्ध में किन्हें देखकर रुकने को कहते हैं? 

कौरवों को

2. अर्जुन के अनुसार, अपनों को मारकर क्या लगेगा?

 पाप

3. अर्जुन को कौन सा अस्त्र हाथ से छूटता हुआ महसूस हो रहा है? 

गाण्डीव

4. श्रीकृष्ण अर्जुन को किस से मुक्त होकर युद्ध करने को कहते हैं?

 शोक

5. 'स्वधर्म पालन परम कर्तव्य सबका' यह कथन किसका है? 

कृष्ण

6. युद्ध में मारे जाने पर क्षत्रिय कहाँ पाएगा?

 स्वर्ग

7. हारकर भी जीतने पर क्षत्रिय क्या भोगेगा? 

मही (पृथ्वी)

8. श्रीकृष्ण के अनुसार मनुष्य का किस पर अधिकार है? 

कर्म

9. श्रीकृष्ण ने अर्जुन को किसकी चाह न करने को कहा? 

फल

10. कर्मों की कुशलता को ही क्या कहा गया है? 

योग

11. 'स्थितप्रज्ञ' किसे कहते हैं? 

कामनाएँ त्यागने वाले को

12. आसक्ति से क्या जन्मती है? 

कामना

13. कामना से क्या उपजता है? 

क्रोध

14. स्मृति नष्ट होने से किसका नाश होता है? 

बुद्धि

15. श्रीकृष्ण के अनुसार क्या नश्वर है? 

देह

16. श्रीकृष्ण के अनुसार क्या अमर है? 

आत्मा

17. आत्मा किसे त्यागकर नया चोला लेती है? 

पुराना

18. 'गाण्डीव' किसका धनुष है? 

अर्जुन

19. 'गाथा कुरुक्षेत्र की' काव्य नाटक के रचयिता कौन हैं? 

मनोहर श्याम जोशी

20. भीष्म के अनुसार हर पुरुष किसका दास है?

 अर्थ

21. भीष्म ने युधिष्ठिर को किसके पक्ष से लड़ने की बात कही? 

कौरवों

22. युधिष्ठिर युद्ध शुरू करने से पहले किसके पास आशीर्वाद लेने गए?

 भीष्म

23. द्रोणाचार्य को शोकवश क्या गिरा देने पर मारा जा सकता है? 

अस्त्र

24. भीष्म के भीषण संग्राम से कौन 'त्राहि-त्राहि' कर उठेगा? 

पाण्डवगण

25. अभिमन्यु किसका पुत्र था? 

अर्जुन

2. संदर्भ-प्रसंग-व्याख्या (Reference-Context-Explanation) के लिए नोट्स

नोट 1: अर्जुन का मोह और स्वधर्म का उपदेश

उद्धरण:

"है कृष्ण! योद्धा जहाँ से कौरवों के दिख सकें सब-के-सब मुझको, रथ रोको वहीं... ये तो सभी अपने सगे हैं... अधम पाप कुलनाश का लूँ मोल इस अन्तिम घड़ी?"

कृष्ण: "उचित है और शोक से हो मुक्त तेरा युद्ध करना है स्वधर्म पालन परम कर्तव्य सबका और तुज क्षत्रिय का तो स्वधर्म युद्ध ही है।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

सर्ग: तृतीय सर्ग

ख. प्रसंग (Context):

युद्धभूमि में अर्जुन ने अपने सामने पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और अन्य संबंधियों को देखा। मोह और अवसाद (शोक) से ग्रसित होकर वह कृष्ण से युद्ध रोकने और कुलनाश के पाप से बचने की बात कहते हैं।

कृष्ण यहाँ अर्जुन को कर्तव्य (स्वधर्म) का सार समझाते हैं और उसे शोक, मोह और कायरता त्यागकर युद्ध करने का उपदेश देते हैं।

ग. व्याख्या (Explanation):

मोह और पाप: अर्जुन सगे-संबंधियों को देखकर कुलनाश के पाप से डर रहे हैं और क्षत्रिय धर्म त्यागकर भी शांति चाहते हैं।

स्वधर्म की प्रधानता: कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि अर्जुन का स्वधर्म (जन्म और कर्म के अनुसार कर्तव्य) है युद्ध करना। क्षत्रिय के लिए धर्म की रक्षा हेतु युद्ध करना ही परम कर्तव्य है।

परिणाम से मुक्ति: वे समझाते हैं कि युद्ध में वीरगति मिली तो स्वर्ग, और जीत गए तो पृथ्वी का सुख मिलेगा। अतः क्षत्रिय के लिए युद्ध किसी भी हाल में कल्याणकारी है।

नोट 2: आत्मा की अमरता और देह की नश्वरता

उद्धरण:

"तो मृत्यु क्या है? त्यागकर जीर्ण वस्त्रों को जैसे वस्त्र नवीन करते हैं धारण, वैसे ही आत्मा देह का चोला पुराना छोड़कर नया लेता है पहन... देह नश्वर है, अमर है आत्मा न कोई मारता है, और न मरता है कोई।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: मोहग्रस्त अर्जुन को आत्मा-परमात्मा का ज्ञान देना।

ख. प्रसंग (Context):

अर्जुन मृतकों और जीवितों के लिए शोक व्यक्त करते हैं। कृष्ण उन्हें समझाते हैं कि ज्ञानीजन कभी भी मृतकों या जीवितों के लिए शोक नहीं करते, क्योंकि उन्हें सत्य का ज्ञान होता है।

कृष्ण यहाँ गीता के मूल सिद्धांत को सरल और काव्यात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हैं, ताकि अर्जुन को मृत्यु के भय से मुक्ति मिल सके।

ग. व्याख्या (Explanation):

मृत्यु की परिभाषा: कृष्ण मृत्यु को विनाश नहीं, बल्कि परिवर्तन मानते हैं। जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्यागकर नए पहनता है, उसी तरह आत्मा (अमर तत्व) जीर्ण देह (नश्वर चोला) को त्यागकर नया शरीर धारण करती है।

आत्मा के गुण: आत्मा को नित्य (सदा रहने वाला) बताया गया है, जिसे अस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, और वायु सुखा नहीं सकती।

शोक का औचित्य: चूंकि आत्मा न जन्म लेती है न मरती है, इसलिए किसी भी 'देह' के लिए शोक करना अज्ञानता है।

नोट 3: कर्मयोग का सिद्धांत

उद्धरण:

"कर्म पर अधिकार है तेरा किन्तु है नहीं कर्म के फल पर। फल की चाह मत कर, बंध कर्म के फल से।... कर्म कर तू, कर्मों की कुशलता ही योग कहलाती है पार्थ! स्थितप्रज्ञ बन।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: कृष्ण द्वारा अर्जुन को निष्काम कर्म और योग का उपदेश।

ख. प्रसंग (Context):

अर्जुन के मन में यह सवाल आता है कि यदि फल की चिंता नहीं करनी, तो कर्म किसके लिए किया जाए। कृष्ण तब उन्हें फल की आसक्ति से मुक्त होकर कर्म करने का मार्ग बताते हैं।

यह अंश कर्मयोग के मूल सिद्धांत—'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'—को स्थापित करता है।

ग. व्याख्या (Explanation):

कर्म बनाम फल: कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने पर है, न कि कर्म के परिणाम पर। फल की इच्छा ही बंधन का कारण बनती है।

योग और कुशलता: 'कर्मों की कुशलता' (अर्थात् आसक्तिरहित होकर, ध्यानपूर्वक और श्रेष्ठ ढंग से कर्म करना) ही योग कहलाता है।

स्थितप्रज्ञ: स्थितप्रज्ञ वह ज्ञानी पुरुष है जिसने अपने मन की सभी कामनाओं को त्याग दिया है और जो सिद्धि (सफलता) और असिद्धि (असफलता) को समान दृष्टि से देखता है। फल की इच्छा न करने से ही मनुष्य स्थितप्रज्ञ बन सकता है।

नोट 4: आसक्ति से विनाश तक की श्रृंखला

उद्धरण:

"आसक्ति से जन्मती कामना है और काम से अनन्तर उपजता क्रोध है। क्रोध से सम्मोह होता है, होश रहता नहीं किसी बात का। स्मृति गड़बड़ाती है, स्मृतिनाश से बुद्धिनाश होता है और बुद्धिनष्ट मनुष्य पुरुषार्थ तो फिर कर नहीं सकता।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: कृष्ण द्वारा आसक्ति (Attachment) के दुष्परिणामों की चेतावनी।

ख. प्रसंग (Context):

कृष्ण स्थितप्रज्ञ के गुणों का वर्णन करते हुए बताते हैं कि कैसे विषयों पर ध्यान लगाने वाले मूर्ख पुरुष आसक्ति के जाल में फँस जाते हैं, जो अंततः उनके विनाश का कारण बनता है।

यह अंश विनाश की मनोवैज्ञानिक श्रृंखला का वर्णन करता है।

ग. व्याख्या (Explanation):

मूल कारण: इस श्रृंखला का मूल कारण विषयों (सांसारिक सुख) के प्रति आसक्ति (मोह/Attachment) है।

श्रृंखला: आसक्ति \rightarrow कामना (इच्छा) \rightarrow क्रोध \rightarrow सम्मोह (भ्रम/Bewilderment) \rightarrow स्मृतिनाश (याददाश्त का कमजोर होना) \rightarrow बुद्धिनाश (विवेक का नाश) \rightarrow पुरुषार्थ (उचित कर्म) न कर पाना \rightarrow पतन/विनाश।

सार: मनुष्य का विवेक (बुद्धि) तब नष्ट हो जाता है जब वह मोह के कारण होश खो बैठता है। बुद्धिनष्ट व्यक्ति अपने कर्तव्य (पुरुषार्थ) का पालन नहीं कर सकता, जिससे उसका पतन निश्चित है।

नोट 5: भीष्म की प्रतिज्ञा और अर्थ-दासता

उद्धरण:

"अजेय है पितामह! प्रणाम हो स्वीकार मेरा, युद्ध अब मुझे करना पड़ेगा आपसे अनुमति दे और आशीर्वाद भी... अर्थ ने दिया है मुझको कौरवों के पक्ष से हाय, अर्थ का है दास हर पुरुष जबकि स्वयं अर्थ किसी का दास होता नहीं है। तो लड़ूँगा मैं कौरवों की ओर से ही शुभकामनाएँ किन्तु मेरी तुम पाण्डवों के साथ हैं।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

सर्ग: चतुर्थ सर्ग

ख. प्रसंग (Context):

युद्ध शुरू होने से पहले, युधिष्ठिर कौरव शिविर में जाकर अपने पूजनीय गुरुजनों (भीष्म और द्रोणाचार्य) से युद्ध की अनुमति और आशीर्वाद लेते हैं।

भीष्म युधिष्ठिर को आशीर्वाद देते हैं, लेकिन अपनी मजबूरी का वर्णन करते हुए बताते हैं कि वे किस कारण कौरवों के पक्ष से लड़ेंगे।

ग. व्याख्या (Explanation):

धर्म और अर्थ का द्वंद्व: भीष्म जानते हैं कि धर्म पाण्डवों के पक्ष में है, इसीलिए उनकी शुभकामनाएँ उनके साथ हैं।

अर्थ-दासता: भीष्म अपनी भीषण प्रतिज्ञा के कारण कौरवों के दिए हुए अन्न (अर्थ) के ऋणी हैं। वह स्वीकार करते हैं कि संसार में हर पुरुष कहीं न कहीं 'अर्थ का दास' होता है, और यही दासता उन्हें पाण्डवों के विरुद्ध लड़ने को विवश करती है।

युद्ध की अनुमति: युधिष्ठिर उनसे पूछते हैं कि उन्हें कैसे हराया जाए। भीष्म धर्म की रक्षा के लिए उन्हें अपनी मृत्यु का रहस्य बता देते हैं, लेकिन स्वयं लड़ना नहीं छोड़ते।

नोट 6: द्रोणाचार्य की मृत्यु का रहस्य

उद्धरण:

"राजन! जब तक हाथ में हो अस्त्र मेरे, मार ही सकता हूँ, मर नहीं सकता कभी। हाँ, यदि कभी किसी शोकवश मैं होश खो बैठूँ, गिरा दूँ अस्त्र, तब मार तुम मुझको सकोगे।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

सर्ग: चतुर्थ सर्ग

ख. प्रसंग (Context):

युधिष्ठिर, भीष्म से अनुमति लेने के बाद, गुरु द्रोणाचार्य के पास जाते हैं और उनसे भी युद्ध की अनुमति और आशीर्वाद माँगते हैं।

युधिष्ठिर उनसे भी यह पूछते हैं कि वे उन्हें युद्ध में कैसे पराजित कर सकते हैं (क्योंकि उन्हें मारना असंभव लग रहा था)। द्रोणाचार्य तब अपनी मृत्यु का एकमात्र रहस्य बताते हैं।

ग. व्याख्या (Explanation):

अजेय योद्धा: द्रोणाचार्य स्वयं की अजेयता को इस शर्त से जोड़ते हैं कि जब तक उनके हाथ में अस्त्र है, तब तक उन्हें कोई मार नहीं सकता। यह उनकी तपस्या और युद्ध कौशल का परिणाम था।

शोक और अस्त्र: उनकी मृत्यु का एकमात्र मार्ग मनोवैज्ञानिक था—यदि वे किसी गहरे शोक में अपने होश (सतर्कता/एकाग्रता) को खो दें और स्वयं ही अस्त्र त्याग दें।

नैतिकता और युद्ध-धर्म: द्रोणाचार्य अपनी मृत्यु का रहस्य बताकर भी गुरु-धर्म निभाते हैं, जिससे पाण्डवों को धर्म की जीत सुनिश्चित करने का मार्ग मिल जाता है।


अजेय लोह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल संदर्भ प्रसंग व्याख्या

 2. संदर्भ-प्रसंग-व्याख्या (Reference-Context-Explanation) के लिए नोट्स

उद्धरण 1: वल्लभ भाई की दृढ़ता

पाठ से उद्धरण:

"सरदार पटेल लौहपुरुष कहे जाते थे। उनका यह विशेषण पूरी तरह सार्थक था। उनके संकल्प में वज्र की सी दृढ़ता थी। जिस काम को कर लेने का वह निश्चय कर लेते थे, वह होकर ही रहता था। वह कम बोलते थे पर जो कुछ वह बोलते थे, उसके प्रत्येक शब्द में अर्थ होता था। इसलिए उनका एक-एक शब्द ध्यान से सुना जाता था।"

 संदर्भ (Reference):

लेखक: सत्यम विद्यालंकार

पाठ/शीर्षक: अजेय लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जीवनी

पृष्ठभूमि: यह उद्धरण सरदार पटेल के व्यक्तित्व, विशेष रूप से उनकी दृढ़ता और उनके 'लौह पुरुष' कहलाने के औचित्य का वर्णन करता है।

प्रसंग (Context):

विषय-वस्तु: इस अंश में बताया गया है कि पटेल न केवल भारत को स्वतंत्रता दिलाने के प्रयासों में अग्रणी थे, बल्कि स्वतंत्रता के बाद लगभग 600 देशी रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करने जैसे असंभव कार्य को उन्होंने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति के बल पर संभव कर दिखाया।

मुख्य विचार: लेखक बताता है कि पटेल का 'लौह पुरुष' उपनाम उनकी इच्छाशक्ति की दृढ़ता और कम बोलने पर भी प्रभावी होने की विशेषता के कारण पूरी तरह उचित था।

व्याख्या (Explanation):

दृढ़ संकल्प: पटेल की तुलना वज्र से की गई है, जो उनके संकल्प की अटूट प्रकृति को दर्शाता है। वे जिस कार्य को करने का निश्चय करते थे, उसे हर हाल में पूरा करते थे।

शब्दों का मूल्य: वे अनावश्यक रूप से नहीं बोलते थे। उनके हर शब्द में गंभीर अर्थ छिपा होता था, जिससे उनके अनुयायी और विरोधी दोनों उनके कथनों को महत्व देते थे और उन पर ध्यान देते थे।

सार्थकता: लेखक निष्कर्ष निकालता है कि उनकी यह दृढ़ता और प्रभावी व्यक्तित्व ही उन्हें 'लौह पुरुष' बनाता है, न कि कोई उपाधि।

उद्धरण 2: बारडोली सत्याग्रह की सफलता

पाठ से उद्धरण:

"बारडोली का सत्याग्रह वल्लभभाई की ऐसी सफलता थी, जिसने उन्हें अखिल भारतीय नेताओं की ला खड़ा किया। इस सत्याग्रह में सफलता मिलने के कारण ही वह 'सरदार' कहलाने लगे थे। इस आन्दोलन का कारण यह था कि बारडोली के किसानों के लगान में बीस प्रतिशत वृद्धि कर दी गई थी।... इस सत्याग्रह को पटेल ने इतनी कुशलता से किया कि सरकार को कुछ ही समय में घुटने टेक देने पड़े।"


संदर्भ (Reference):

लेखक: सत्यम विद्यालंकार

पाठ/शीर्षक: अजेय लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जीवनी

पृष्ठभूमि: यह अंश बारडोली सत्याग्रह (1928) के महत्व और इस आंदोलन में वल्लभ भाई की नेतृत्व क्षमता को उजागर करता है, जिसके कारण उन्हें 'सरदार' की उपाधि मिली।

प्रसंग (Context):

विषय-वस्तु: अंग्रेज़ी सरकार ने बारडोली के किसानों के लगान में 20 प्रतिशत की अनुचित वृद्धि कर दी थी। किसानों के प्रतिरोध के बाद, वल्लभ भाई ने इस अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया।

मुख्य विचार: लेखक यह बताता है कि यह आंदोलन केवल किसानों की माँगों की लड़ाई नहीं थी, बल्कि यह वल्लभ भाई की राजनीतिक कुशलता का प्रमाण था, जिसने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।

व्याख्या (Explanation):

नेतृत्व और उपाधि: बारडोली सत्याग्रह की अभूतपूर्व सफलता ने वल्लभ भाई को 'सरदार' (नेता/प्रमुख) का उपनाम दिया। यह उपाधि उन्हें किसी ने दी नहीं थी, बल्कि उनकी नेतृत्व क्षमता ने उन्हें यह स्थान दिलाया।

रणनीतिक कुशलता: पटेल ने किसानों को एकजुट किया और उनसे लगान देने से मना करने को कहा। उनकी इस कुशल रणनीति और किसानों की दृढ़ता के सामने ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और लगान वृद्धि वापस लेनी पड़ी।

अखिल भारतीय पहचान: इस जीत ने उन्हें क्षेत्रीय नेता से उठाकर राष्ट्रीय राजनीति में अग्रिम पंक्ति के नेताओं के बराबर ला खड़ा किया।

​उद्धरण 3: निजी दुःख पर कर्तव्य-बोध

पाठ से उद्धरण:

​"पत्नी की बीमारी की चिंता होते हुए भी वल्लभभाई पहले से स्वीकार किए हुए मुकदमों की पैरवी करने जाते रहे। मुवक्किलों को उन्होंने भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ा। एक दिन जब वह अदालत में एक मुकदमे की पैरवी कर रहे थे, उसी समय उन्हें एक तार मिला, जिसमें उनकी पत्नी की मृत्यु का दुःखद संवाद था। उस तार को पढ़कर उन्होंने जेब में रख लिया और पहले की भाँति ही मुकदमे की बहस करते रहे।"

संदर्भ (Reference):

  • लेखक: सत्यम विद्यालंकार
  • पाठ/शीर्षक: अजेय लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जीवनी
  • पृष्ठभूमि: यह अंश वल्लभ भाई पटेल के युवाकाल का है, जब वे एक वकील के रूप में काम कर रहे थे। यह उनकी असाधारण आत्म-संयम और कर्तव्यपरायणता को दर्शाता है।

प्रसंग (Context):

  • विषय-वस्तु: पटेल की पत्नी का स्वर्गवास प्लेग के कारण हो गया था, जब वे केवल 33 वर्ष के थे। अपनी पत्नी की मृत्यु की खबर उन्हें अदालत में एक महत्वपूर्ण मुकदमे की पैरवी के दौरान मिली।
  • मुख्य विचार: लेखक इस घटना के माध्यम से यह स्थापित करता है कि पटेल के लिए निजी दुःख से कहीं अधिक महत्वपूर्ण कर्तव्य था, जिसे उन्होंने अपने मुवक्किलों के प्रति निभाना ज़रूरी समझा। विपत्तियों को भी चुपचाप सहने की क्षमता ही उन्हें 'लौह पुरुष' बनाती है।

​व्याख्या (Explanation):

  • अद्वितीय आत्म-संयम: मृत्यु का समाचार मिलने पर भी विचलित न होना, उस तार को चुपचाप जेब में रख लेना और बहस जारी रखना उनकी मानसिक दृढ़ता का चरम उदाहरण है।
  • कर्तव्यनिष्ठा: एक वकील के रूप में, वे अपने मुवक्किलों (क्लाइंट्स) के भविष्य को अपने दुःख की वजह से खतरे में नहीं डालना चाहते थे। यह उनके पेशेवर नैतिकता को दर्शाता है।
  • 'लौह पुरुष' का आधार: यह घटना बताती है कि उन्हें 'लौह पुरुष' का विशेषण केवल राजनीतिक सफलता के कारण नहीं मिला, बल्कि उनकी आंतरिक शक्ति और दुःख को सहने की क्षमता के कारण भी मिला।

​उद्धरण 4: देशी रियासतों का विलय

पाठ से उद्धरण:

​"अंग्रेज़ों ने जब भारत को स्वतंत्र किया तो उन्होंने देशी राज्यों के साथ हुए सब समझौते और सन्धियाँ समाप्त कर दी। ये राज्य अब अपने भविष्य का निर्णय करने में स्वतंत्र थे।... इनकी संख्या 600 के लगभग थी। यदि समुच्चय ही ये राज्य उपद्रव पर उतर आते तो भारत सरकार के लिए अच्छी मुसीबत बन जाते।... परंतु सरदार पटेल ने उस समय बड़ी कुशलता, दूरदर्शिता और दृढ़ता से काम लिया।..."


संदर्भ (Reference):

  • लेखक: सत्यम विद्यालंकार
  • पाठ/शीर्षक: अजेय लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जीवनी
  • पृष्ठभूमि: यह अंश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की सबसे बड़ी और सबसे जटिल चुनौती—लगभग 600 देशी रियासतों को भारतीय संघ में एकीकृत करने—की चर्चा करता है।

प्रसंग (Context):

  • विषय-वस्तु: ब्रिटिश शासन ने जाते समय इन रियासतों को यह छूट दे दी थी कि वे या तो भारत में मिल जाएँ, पाकिस्तान में या स्वतंत्र रहें। यह स्थिति देश की अखंडता के लिए एक बड़ा खतरा थी।
  • मुख्य विचार: यह अंश बताता है कि सरदार पटेल ने उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के रूप में अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता और असाधारण दृढ़ता का उपयोग करते हुए इस चुनौती को सफलतापूर्वक हल किया और भारत को एक अखंड राष्ट्र का रूप दिया।

व्याख्या (Explanation):

  • राष्ट्रीय संकट: 600 रियासतों का स्वतंत्र रहने का विकल्प भारतीय संघ के लिए एक विशाल चुनौती थी, जो देश में अराजकता और उपद्रव फैला सकती थी (विशेष रूप से हैदराबाद और जूनागढ़ जैसी रियासतों में)।
  • पटेल की त्रिमूर्ति: पटेल ने इस समस्या को हल करने के लिए कुशलता (राजनैतिक बातचीत), दूरदर्शिता (भविष्य के खतरों को पहचानना) और दृढ़ता (आवश्यकता पड़ने पर सेना का प्रयोग, जैसे हैदराबाद में) का प्रयोग किया।
  • ऐतिहासिक कार्य: लेखक इस कार्य को "पटेल के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य" बताता है, क्योंकि इसके बिना भारत का वर्तमान स्वरूप असंभव था। कुछ इतिहासकार इसलिए उन्हें 'भारत का बिस्मार्क' भी कहते हैं।

अजेय लोह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल लघु प्रश्नोत्तरी

 क्र.सं. प्रश्न (Question) उत्तर (Answer)

1. वल्लभ भाई पटेल का जन्म किस राज्य में हुआ था?

 गुजरात

2. वल्लभ भाई पटेल का जन्म किस गाँव में हुआ था? करमसद

3. वल्लभ भाई पटेल का जन्म किस तारीख को हुआ था? 

31 अक्टूबर, 1875 ई.

4. वल्लभ भाई के पिता किस विद्रोह में शामिल थे?

 1857 ई.

5. वल्लभ भाई ने सर्वप्रथम कौन सी परीक्षा पास की? 

मैट्रिक

6. वल्लभ भाई का विवाह कितने वर्ष की आयु में हुआ?

 18 वर्ष

7. वल्लभ भाई की पत्नी का स्वर्गवास कितनी वर्ष की आयु में हुआ? 

33 वर्ष

8. वल्लभ भाई की पत्नी का स्वर्गवास किस बीमारी से हुआ? 

प्लेग

9. वल्लभ भाई ने बैरिस्टर बनने के लिए किस देश की यात्रा की? 

इंग्लैंड

10. गांधीजी के किस आन्दोलन को वल्लभ भाई ने गुजरात में लागू किया? 

असहयोग

11. खेड़ा जिले में फ़सलें खराब होने पर पटेल ने किस चीज़ की माँग की?

 लगान माफ़

12. बारडोली सत्याग्रह की सफलता के बाद वल्लभ भाई को कौन सी उपाधि मिली? 

सरदार

13. सन 1931 ई. में कांग्रेस के अधिवेशन के अध्यक्ष कौन चुने गए थे?

 सरदार पटेल

14. कांग्रेस के सात प्रांतों में मंत्रिमंडल कब समाप्त हुआ? 

1939 ई.

15. 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव कब पास किया गया? 9 अगस्त, 

1942 ई.

16. सरदार पटेल को 'भारत छोड़ो' आन्दोलन के तहत कहाँ जेल में रखा गया? 

बम्बई (मुंबई)

17. अंतरिम सरकार में सरदार पटेल को कौन सा विभाग मिला? 

सूचना एवं प्रसारण

18. देश की 600 स्वतंत्र देशी राज्यों को भारतीय संघ में किसने शामिल किया? 

सरदार पटेल

19. सरदार पटेल को किस नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ दृढ़ संकल्प वाला है? 

लौह पुरुष

20. सरदार पटेल का स्वर्गवास किस तारीख को हुआ?

 15 दिसम्बर, 1950 ई.