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रविवार, 22 सितंबर 2024

अकाल दर्शन कविता सारांश Part 2

 कवि आगे कहते हैं कि जब भी वे देश के अत्याचारी भ्रष्टाचारी शासन व्यवस्था तथा राशन में मिलने वाले सस्ते और घटिया किस्म के आटे-चावल आदी की बात करते हैं तो लोग उन्हें रोक देते हैं। वे लोगों को जागरुक करना चाहते हैं तो उन्हें रोका जाता है। अक्सर लोग उन्हें अपराध के असली कारण भूख और बेरोजगारी पर चर्चा करने या आवाज़ उठाने से मना कर देते हैं। कवि के अनुसार देश में अब जंगल राज फैल चुका है।देश की जनता का आधा शरीर इस जंगल राज में घूम रहे भ्रष्ट शासन व्यवस्था के भेड़ियों ने खा लिया है। यहाँ भेड़िया भ्रष्ट नेता तथा जनप्रतिनिधि है जिसे जनता ने कभी विश्वास के साथ चुना था। लेकिन जनता भी खूब है वह इस जंगल राज में सुखी नहीं है फिर भी वे इस जंगल की तथा जंगल राज की सराहना कर रहे हैं। वे कहते हैं कि भारतवर्ष नदियों का देश हैं। नदियों पर भी तो राजनीति हो रही हैं। तत्कालीन भ्रष्ट नेताओं ने नदियों के पानी पर भी राजनीति करने से नहीं चूके और देश की जनता विशेषकर किसानों को जो कि नदियों के पानी पर ही निर्भर रहते थे उन्हें भी इसके लिए तरसा दिया। कवि कहते हैं कि बेशक यही खयाल देश की जनता के लिए हत्यारी साबित हुई की भारत नदियों का देश है। क्योंकि उन्हें तो पानी ने ही मारा है। अर्थात् या तो अतिरिक्त वर्षा के कारण नदियों का पानी खतरनाक तरीके से गाँव में घुस आता था या फिर नदियों पर बने बाँध को शहर को बचाने के लिए गाँवों की तरफ खोल दिया जाता था या फिर बाँध बनाकर नदियों का पानी जो कि गाँवों की तरफ बहता था उसे रोक दिया जाता था। जो भी होता था इससे ग्रामीण निवासियों को ही कष्ट होता था।

कवि का कहना है कि लोग असलियत नहीं समझते हैं। मुफ्त में जो अनाज गरीबों को दिया जा रहा है उसके पीछे राजनेताओं की चालाकी और अलसी नीयत को नहीं समझते हैं। यह अनाज यू ही मुफ्त में नहीं दिया जा रहा है। बल्कि इसी अनाज ने वे राजनेता अपनी खुराक वसूल रहे हैं। वे इसी के दम पर लोगों को धर्म तथा जाति के आधार पर बाँट कर हिन्दु-मुस्लिम की राजनीति करने में लगे हुए है। देश की जनता को दोनों तरीके से बेवकूफ बनाकर राजनेता गण अपना काम निकाल रहे हैं। कवि जानते हैं कि यह सब कुछ कैसे होता है। वे लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं कि वह कौन सा प्रजातांत्रिक नुस्खा है जिसे अपनाकर ये नेता लोग अपना काम निकाल रहे हैं। वे नारी सौन्दर्य को यहाँ उदाहरण के रूप में बता रहे हैं कि जिस उम्र में उनकी माँ के चेहरे पर झुर्रियाँ है उसी उम्र की पड़ोसी महिला के चेहरे पर उनके प्रेमिका के चेहरे का सा लोच है। अर्थात् यहाँ समाज में रह रहे लोगों के बीच एक बहुत बड़ी असमानता की बात कर रहे हैं। लोगों की गरीबी, कुपोषण, बिमारी, बेरोजगारी, भूख इत्यादि के कारण उनके शरीर अब दुर्बल से हो चुके हैं। वही राजनेता लोग भ्रष्ट लोगों के पास सबकुछ है जिससे कि उनके शरीर सबल है। साथ-ही-साथ कवि यहाँ इस ओर भी इशारा करते  हैं कि भ्रष्ट राजनेताओं के कारण हमारा देश जवानी में ही बूढ़ा हो चुका है। देश के भ्रष्ट नेताओं ने अपने देश को छोड़ कर पड़ोसी दुश्मन मुल्कों की फ़िक्र अधिक की तथा उन्हें ही लाभ-पर-लाभ पहुँचाने में लगे रहे और वे दुश्मन पड़ोसी मुल्क ताकवर होते गए। यहाँ अपने भारत देश की जनता भूख और बेरोजगारी के साथ-साथ अपराध का दंश वहन कर रही है जिसके कारण देश आगे नहीं बढ़ पा रहा था। कवि देखते हैं कि जनता चुपचाप सुन रही है सबकुछ। उनकी आँखों में विरक्ति है, पछतावा है तथा संकोच भी है। मगर ये जनता कुछ कर नहीं सकती क्योंकि उन्हें लगता है कि शासन ने उन्हें अपने से अलग कर दिया है। साथ ही साथ उन्हें जाति, धर्म तथा भाषा आदि के नाम पर भी अलग-अलग करके बाँट दिया है इसी कारण उनमें अलगाव बोध जन्मा है। अपने इसी बोध के कारण वे तटस्थ चुपचाप सबकुछ देखे जा रही है और पछता रही है यही सोचकर कि उन्हें आजाद देश का सपना क्यों देखा। देश तो आजाद हुआ लेकिन उसके तीन हिस्से हो गए। कितने असंख्य लोग मरे तथा कितनों ने अपने सम्पूर्ण परिवार को ही खो दिया है। अपनी बदतर हालत को जानते हुए भी वे अपने अधिकारों की बात करने से डरते हैं संकोच करते हैं।

            कवि अंत में यह कहते हैं कि मैं सोचता हूँ कि हमारे देश में एकता की भावना केवल भावना मात्र है उसे तो अलियत में केवल तब ही प्रयोग किया जाता है जब देश पर युद्ध तथा अकाल जैसी विपत्ती पड़ जाती है। अन्यथा देश की जनता सदैव एकजुट रहेगी तो भ्रष्ट राजनेताओं का काम कैसे चलेगा। वे कहते हैं कि क्रान्ति नामक शब्द भी एक छोटी बच्चे के हाथ का खिलौना है। जब चाहे देश के असहाय, गरीब, निराश लोगों को के हाथ में देकर उसका खेल करा दो ताकि देखने वाले को लगे कि देश की जनता क्रान्ति कर रही है। जबकि भ्रष्ट नेता गण लोगों के साथ एकता और क्रान्ति के नाम पर खेल खेल रहे हैं।

रविवार, 15 सितंबर 2024

अकाल दर्शन -- सुदामा पाण्डेय धूमिल कविता सारांश Part-1

 विस्तृत सारांश

 

सुदामा पाण्डेय धूमिल जी क्रान्तिकारी स्वभाव के व्यक्ति रहे हैं। उन्होंने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किया है।  उत्तर प्रदेश के बनारस के एक गाँव खेवली में एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे धूमिल ने काफी कम उम्र में ही जीवन के कई प्रकार के संघर्षों का सामना किया है। उन्होंने किसानी तथा मजदूरी दोनों की है अतः उन्हें समाज में फैली भूख तथा गरीबी का वास्तविक अनुभव रहा है। अपने कड़े परिश्रम से वे लोहा ढोने के मजदूरी के काम से लेकर वे आई.आई.टी—वाराणसी में सरकारी नौकरी तक प्राप्त करते हैं। कई पारिवारिक कठिनाइयों तथा कई मुकदमों के कारण वे परेशान भी रहे। दरअसल धूमिल जी स्वतंत्र भारत के क्रुद्ध पीढ़ी के मोहभंग कवियों में से हैं। देश में फैली गरीबी और अराजकता के बीच राजनेताओं की चालाकियों पर वे अपनी कविताओं के माध्यम से कड़ा व्यंग्यात्मक प्रहार करते हैं।

प्रस्तुत कविता अकाल दर्शन में भी वे देश के निम्न मध्यमवर्ग परिवारों में गरीबी तथा भूखमरी, बेरोजगारी तथा लोगों का सबकुछ जानते समझते हुए भी भ्रष्ट नेताओं का साथ देने पर वे व्यंग्य कसते है। इस कविता की शुरुआत प्रश्नात्मक शैली में होती है। जिसमें वे पूछते हैं कि भूख कौन उपजाता है? अर्थात् किसके कारण भूख की उपज होती है समाज में। वह क्या कोई इरादा है किसी का जो तरह-तरह के बहाने बनाता है जैसे अनाज का कम पैदावार होना या फिर गोदाम में रखे अनाज में कीड़े लग जाने पर सड़ जाना या खराब हो जाना। या फिर जमाखोरी करने वाले उन व्यापारियों का जो कि अधिक लाभ कमाने के लिए ऐसा करते होंगे? वस्तुतः ये सब कुछ जो हो रहा होता है समाज में इसकी खबर शासकों के पास होती है। लेकिन वे जानते हुए भी अनजान बने रहने का ढोंग करते हैं। धूमिल उसी शासन व्यवस्था से प्रश्न करते हैं कि शासन गरीबी, भूखमरी तथा बेरोजगारी से परेशान लोगों के प्रति घृणा की भावना मन में भर कर अपनी आँखों में पट्टी क्यों बाँधे हुए है तथा इन लोगों के तुच्छ समझ कर घास-फूस के बाजार में छोड़ दिया है ताकि वे अनाज के बदले घास खाकर जिंदा रहे जैसे पशु रहते हैं।

वे शासन व्यवस्था की एक चालाक आदमी के रूप में सम्बोधित करते हुए प्रश्न कर रहे हैं जिस पर वह चालाक आदमी कोई उत्तर नहीं देता है। बल्कि वह गलियों तथा सड़कों पर, घरों में बाढ़ की तरह फैले बच्चों की तरफ इशारा करता है। अर्थात् देश की बढ़ती जनसंख्या की ओर इशारा करता है और व्यंग्यात्मक रूप से हंसने लगता है। क्योंकि जिस समय हमारे देश में भूखमरी की स्थिति पैदा हो गयी थी उन दिनों लोगों के घरों में अधिक बच्चे भी पैदा हो रहे थे। अधिक बच्चे पैदा होने से लोगों पर आर्थिक दबाव भी पड़ता था जिस कारण वे अपने परिवार का सही रूप से पालन पोषण नहीं कर पाते थे। वही बच्चों को अधिक भूख भी लगती है। यही कारण है कि शासन व्यवस्था का प्रतीक वह चालाक आदमी कवि को इस ओर इशारा करता है। तब कवि उसका प्रतिउत्तर देते हुए उसका हाथ पकड़ कर कहते हैं कि बच्चे तो हमारी बेरोजगारी के कारण पैदा हुए हैं। इस कारण यहाँ भूखमरी और बेरोजगारी ज्यादा हो गयी है। इस बात पर वह चालाक आदमी भी सहमत है। कवि कहते हैं कि वह चालाक आदमी सहमत है इसलिए हमारे भूख को शान्त करने के लिए हमे राशन भी देता है। लेकिन हमें भुलावा देने के लिए वह चालाक आदमी कहता है कि बच्चे हमें खुशियाँ देते हैं, हमारे जीवन में बसंत की बहार लाते हैं।

कवि आगे कहते हैं कि वह चालाक आदमी लेकिन यह भूल जाता है कि बंसत में प्रकृति की तरह हमारे यहाँ फूल-पत्ते नहीं बल्कि पेड़ों पर अपराध फूलते हैं। अर्थात् अधिक बाल बच्चे होने पर जनसंख्या का बढ़ना तथा बेरोजागारी और भूखमरी से लोगों का त्रस्त होकर अपराध की ओर अग्रसर होते हैं। जिसमें चोरी, डकैती, लूटमार तथा कई प्रकार के अपराध होते हैं जिससे की समाज फिर से त्राही-त्राही कर उठता है। कवि उस चालाक आदमी से इस समस्या का क्या निवारण है पूछना चाहते हैं मगर वह चालाक आदमी कवि के किसी भी बात का जवाब न देकर हँसता रहता है और अपना हाथ छुड़ाकर जनता का भला करने का दिखावा करते हुए वहाँ से चला जाता है।

कवि तब अपने आप को समझाने की चेष्ठा करते है कि तुम्हें जनता के बीच खाली हाथ जाने से क्यों झिझक हो रही है? तुम्हें तो किसी का सामना करना है? नहीं क्योंकि जनता की भलाई करने के लिए जो गया है यहाँ से उससे तुम्हें वास्तव में कुछ नहीं मिलने वाला। वही जनता भी स्वयं अपने प्रति जाग्रत नहीं है न ही वह इतनी सशक्त हुई है कि इन समस्याओं का सामना कर सके। बल्कि तुम वहाँ जाकर देखोगे कि सभी अँधेरे कुए में झाँक रहे होंगे और तुम्हें उनकी पीठ नज़र आ रही होगी। यहाँ अँधेरा कुआ कई अर्थों का प्रतीक है। गरीब. अशिक्षित, मेरुदंड हीन जनता को भी अँधेरा कुआ कहा जा सकता है तथा भ्रष्ट, चालाक, रिश्वतखोर, जमाखोर व्यापारी एवं राजनेता को भी। क्योंकि एक तरफ जनता अपनी परिस्थितियों से लड़ने और उससे उभर कर आने में असक्षम तथा वही भ्रष्ट समाज के ठेकेदारों द्वारा उनका शोषण यह सभी मिलकर समाज तथा राष्ट्र को अँधेरा कुआँ बना देते है जिसका कोई साफ-सुथरा निश्चित भविष्य नहीं दिखायी देता है।

कवि कहते हैं कि अब तो ऐसी हालत हो गयी है कि वे स्वयं को अपने ही सवालों से घिरा हुआ पाते हैं।  उन्हें आजादी और गाँधी के नाम से चल रहे उस मुहावरे का अर्थ भी समझ में आने लगा है जिसके नाम पर इतने दिनों से जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है। यहाँ वे अप्रत्यक्ष रूप से नेहरु परिवार की तरफ इशारा करते हैं जो कि गाँधी के नाम पर वर्षों से जनता का मत प्राप्त करके अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेक रहा है। नेहरु परिवार का न तो गाँधी परिवार के साथ कोई सम्बन्ध था न है फिर भी वह गाँधी के नाम पर वोट मांग कर जनता को मूर्ख बना रही है। लेकिन जनता को यह समझ में नहीं आ रहा है तथा अपना वोट देने के बावजूद भी न तो उसकी भूख मिट रही है न ही उनके जीवन में कोई परिवर्तन आ रहा है। यहाँ वे इसे मौसम के रूप में सम्बोधित कर हैं।

कवि कहते हैं कि कहते हैं कि देश की जनता की कितनी दयनीय एवं विभत्स परिस्थिति हो गयी है कि वे पेड़ों से पत्ते और छाल खा कर जीने के लिए मजबूर हैं। अर्थात् जो कुछ भी मिले खाद्य-अखाद्य वे खा रहे हैं फिर भी वे इस व्यवस्था में परिवर्तन लाने की बात जनता को महसूस नहीं हो रही है। वे भूख से मर रहे हैं लेकिन अंधविश्वासी होकर दान-पून्य कर रहे हैं लेकिन उनमें जागृति नहीं आ रही है। वे नेहरू परिवार के तथाकथित राष्ट्रवादी नेताओं के बुलावे पर जुलूसों तथा जलसों में ईमानदारी से शामिल तो हो रहे हैं, हिस्सा ले रहे हैं लेकिन जनता में इतना भी साहस नहीं है कि वे अपने इन नेताओं से पूछ सके की इतने सालों की राजनीति के बावजूद भी क्यों देश की जनता भूखी है। बल्कि वे तो इस भूखमरी को सोहर की तरह गा रही है। वे धूप में खड़े होकर नेताओं के भाषण सुन रहे है वही धूप से उनके चहरे झुलस चुके हैं लेकिन उन चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं दिखायी दे रही है कि अगर हमारा वोट पाने के बावजूद भी हमारी भूखमरी नहीं मिटाते हो तो हम सरकार के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं। जनता अपनी परिस्थिति को स्वीकार किये हुए बैठी है तथा इतना कुछ होने पर भी न तो वह सच जानना चाहती है न ही कोई सबक लेने को तैयार है।

           

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

समर शेष है अंतिम पार्ट

 

समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुंकार रहे हैं।

गाँधी का पी लहू जवाहर पर फुंकार रहे हैं।

समर शेष है अहंकार इनका हरना बाकी है।

वृक को दन्तहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।

समर शेष है, शपथ धर्म की, लाना है वह काल,

विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहरलाल।

 

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि दिनकर गाँधी और जवाहर के विरोधियों के बारे में बात कह रहे हैं। वे अंग्रेजों के चले जाने के बावजूद भी देश में जो देश विरोधी ताकते हैं उनसे सावधान तथा उनसे लड़ने की बात कह रहे हैं।

 व्याख्या :- कवि कहते हैं कि हमारा संघर्ष अभी भी बाकी है। अंग्रेज तो चले गए हैं लेकिन अभी भी देश विरोधी ताकते देश को कमजोर करने में लगी हुई है। देश आजाद होते समय दो हिस्सों में बट गया था। तथा पड़ोसी देश हमारे देश में आतंक के जरिए अपना काम निकालना चाहता था। इसलिए कवि उन आतंकवादियों को मनुष्य का भक्षण करने वाले भेड़िये कहकर सम्बोधित करते हैं। वह कहते हैं कि गाँधी के हत्यारों तथा जवाहर के विरोधी वे लोग साँप की तरह फुंकार रहे हैं। इसलिए इन भेड़ियों के दांत तोड़ने होंगे तथा साँप के विष को भी निकालना जरूरी है। वह कहते हैं कि उन्हें धर्म की शपथ है कि वे वह समय लाकर ही छोडेंगे जब देश में निर्भय होकर लोग रह सके।

 

 तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचे ना।

सावधान हो खड़ी देश भर में गाँधी की सेना।

बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे।

मन्दिर और मस्जिद, दोनों पर एक तार बाँधों रे!

समर शेष है, नहीं पाप का भागी गेवल व्याध।

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

 

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि देश के लोगों के सावधान तथा एक होने के लिए कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि जो अब इस समय देश की उन्नति के लिए साथ नहीं दे रहा है और युद्ध के समय भी चुपचाप सबकुछ देखे जा रहा है वे भी अपराधी है और उनसे भी सावधान होकर रहना है।

 

व्याख्या :- कवि कहते हैं ये अंधकार के पुत्र के समान है, डाकु है देखो कोई किसी प्रकार का षड्यंत्र न रच डाले देश को बर्बाद करने की। गाँधी के मार्ग पर चलने वाले सभी देश वासियों को कवि सावधान होने की बात कह रहे हैं। वह कह रहे हैं कि भले ही तुम्हें खुद की बलि ही क्यों न देनी पड़े फिर भी तुम उनसे बलवान हो ये दिखा दो। चारों तरफ स्नेह का वातावरण लाने के लिए एक व्रत धारण कर लो ताकि वह सफल हो सके। (लोग जब अच्छे कर्म के लिए शुद्ध मन से व्रत करते हैं तो वह हमेशा सफल होता है।) वह कहते हैं कि लोगों में धार्मिक एकता होनी चाहिए क्योंकि धर्म के आधार पर देश जब स्वतंत्रता के समय बटा था तो दोनों की तरफ बहुत हिंसा हुई थी और बहुत सारे लोग मारे गए थे। इसलिए मन्दिर और मस्जिद के बीच एक तार बांधना होगा और एकता को बढ़ावा देना होगा ताकि देश के दुशमन फिर से देश का बंटवारा न कर सके। वह कहते हैं कि हमारा युद्ध अभी भी बाकि है। पाप का भागी केवल व्याध अर्थात् बाघ (कवि यहाँ उन लोगों को बाघ कहकर सम्बोधन कर रहे हैं जो कि देश की तरक्की में रुकावट डाल रहे हैं) ही नहीं है बल्कि जो इस समय तटस्थ अर्थात् चुप होकर ये सब देख रहा है और युद्ध में साथ नहीं दे रहा है समय उसका भी अपराध लिखेगा। कवि उन लोगों को भी अपराधी मानते हैं जो देश की तरक्की के लिए लड़ने वाले लोगों का भी साथ नहीं देते हैं।

बुधवार, 11 सितंबर 2024

समर शेष है कविता संदर्भ प्रसंग व्याख्या

 

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?

तू रानी बन गयी, वेदना जनता क्यों सहती है?

सब के भाग दबा रक्खे हैं, किसने अपने कर में?

उतरी थी जो विभा हुई बन्दिनी बता, किस घर में?

समर शेष है, यह प्रकाश बन्दीगृह से छूटेगा।

और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा।

 

संदर्भ:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारे पाठ्य पुस्तक कवितांजलि में संकलित कविता समर शेष है से ली गयी है। इस कविता के रचैता रामधारी सिंह दिनकर जी है।

 

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि दिनकर जी देश की राजधानी दिल्ली में बैठी तत्कालीन सत्ताधारी लोगों एवं शासन पर निशाना साधते हुए प्रश्न पूछ रहे हैं कि खुद तो देश की राजधानी बन गयी दिल्ली लेकिन बाकि देश के लोगों के लिए तो अभी भी स्वराज आया ही नहीं है। सारे सत्ताधारी नेता अपने घरों तक तो स्वराज ले आये हैं लेकिन बाकि देश तो अभी भी अराजकता और व्यवस्थाहीन परिस्थिति के अधीन बना हुआ है।

 

व्याख्या:- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि दिनकर जी स्वराज कहा अटक कर रह गया इस प्रश्न का सीधा उत्तर वह दिल्ली से ही चाह रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि देश के आजादी के बाद जो पहली सरकार बनी वह दिल्ली में ही बनी थी। आजादी के आन्दोलन के समय जो नेतागण थे उन्होंने देश की जनता को अपना स्वराज दिलाने का वादा करके आन्दोलन में शामिल तो कर लिया लेकिन आजादी के सात साल बाद भी देश की जनता का हाल ज्यु का त्यों बना हुआ था। उस समय जो भी जनता के चुने नायक बने उन्होंने देश की जनता के लिए कोई भी विशेष उन्नति वाला काम नहीं किया। वही दिल्ली ही उस समय सब प्रकार से केन्द्र बनी हुई थी। अतः कवि व्यंग्यात्मक शैली में दिल्ली को रानी कहकर संबोधित किया और पूछने लगे की तू रानी बन चुकी है, तू भारतीय है फिर भी देश की जनता क्यों वेदना सहन कर रही है। अर्थात् ब्रिटिश शासन काल में तो विदेशी शासक थे तब लोगों पर अत्याचार की बात तो समझ में आती है। इसीलिए जनता ने आन्दोलन किया लेकिन अब तो देश के शासक भारतीय ही है फिर भी देश की जनता दुखी क्यों है? वे आगे पूछते हैं कि देश के लिए जो कुछ भी साधन तथा विकास के लिए धन, अर्थ, बल इत्यादि थे उसका अधिकांश भाग भ्रष्ट नेताओं ने अपने नाम कर लिया है। देश की जनता का भाग्य किसी एक ने अपने हाथों में कर लिया है। वह कौन है कवि पूछ रहे हैं। वे यह भी पूछते हैं की स्वराज की किरण जो इस देश की भूमि पर उतरी थी वह अब किसके घर में जाकर छुप गयी है? वे हिन्दुस्तान के लोगों का आहवान करते हुए एवं सत्ताधारी भ्रष्ट नेताओं को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि हमारा समर अर्थात् युद्ध अभी बाकि है। एक दिन यह स्वराज रूपी प्रकाश बन्दीगृह से छूटेगा और अगर यह नहीं छूटा तो है पापिनि तुझ पर महावज्र टूटेगा। अर्थात् देश की जनता विद्रोह कर सकती है। किसी भी देश के लिए तब यह एक भयानक स्थिति होती है जब जनता विद्रोह कर देती है तो।

 

समर शेष है, इस स्वराज्य को सत्य बनाना होगा।

जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।

धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,

गंगा का पथ रोक, इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,

कह दो उनसे, झुके अगर तो जग में यश पायेंगे,

अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों – से बह जायेंगे।

 

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि दिनकर जी भ्रष्ट सत्ताधारी नेताओं को चेतावनी दे रहे हैं कि यदि उन्होंने देश के विकास की गंगा को रोका तो देश की जनता युद्ध करेगी और वे सारे नेता चाहे इन्द्र के हाथी ऐरावत जितने ही ताकतवर क्यों न हो वे पत्तों की भांति बह जाएंगे।

 

व्याख्या :- कवि कहते हैं कि यह देश जिसका है उसका अपना राज्य जब तक नहीं हो जाता तब तक स्वराज्य को सत्य नहीं माना जाएगा। स्वराज्य को सत्य बनाने के लिए देश की आम जनता को ताकत देनी होगी। उसे न्याय दिलाना होगा। उसकी तकलीफे दूर करनी होगी। इसके लिए लड़ाई लड़ते रहने की आवश्यकता है। यह स्वराज्य यह न्याय जिसका है उस तक पहुँचाना ही होगा। वही वे आगे प्राकृत्तिक बिम्बों का प्रयोग करते हुए वे भ्रष्ट नेता गण, शोषक प्रवृत्ति वाले नेता गणों को कहते हैं कि देश के विकास की गंगा रूपी नदी के आगे ये पहाड़ की तरह ये भ्रष्ट नेता गण जो खड़े हैं, विकास का रास्ता रोक कर हाथी के समान अड़ हुए है उनसे वे कहना चाहते हैं कि यदि वे जनता के विकास तथा उन्नति के लिए काम करते हैं तो उनकी प्रशंसा होगी। लोग उन्हें वास्तव में मान देंगे। वरना जिस प्रकार नदि कुपित होती है और उसमें बाढ़ आती है तो सब कुछ बह जाता है यहाँ तक कि हाथी जैसा शक्तिशाली वन्य पशु भी उसकी धारा में बह जाता है जैसे कोई हलका पत्ता हो उसी प्रकार यदि जनता ने अपनी लड़ाई लड़नी शुरु कर दी तो वे भी बह जाएंगे। यहाँ कवि एक तरफ देश की जनता को युद्ध के लिए बार-बार आहवान कर रहे हैं वही भ्रष्ट नेताओं को भी चेतावनी दे रहे हैं।

 

 

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो,

शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।

पथरीली, ऊँची जमीन है, तो उसको तोड़ेंगे,

समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर।

खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंजीर।

 

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में दिनकर जी की समतामूलक शोच प्रकट हो रही है। वे देश की जनता को सामाजिक विषमता को समाप्त करने तक युद्ध करते रहने के लिए कह रहे हैं।

 

व्याख्या :- कवि कह रहे हैं कि हमारा युद्ध अभी भी बाकि है। जनता की इस गंगा का खुल कर लहराने दो अर्थात् देश की जनता को आगे आने तथा उन्हें देश के विकास के लिए काम करने देने का मौका देना चाहिए। उन्हें अधिकार मिलना चाहिए ताकि वे सुखी रहे साथ ही देश के लिए वे काम कर सके अच्छे से। वे कह रहे हैं कि समाज में जो ऊँच-नीच का भेदभाव है उसे मिटाना जरूरी है। उसके लिए अगर समाज में बदलाव लाना है तो शिखरों और मुकुट रूपी समाज के ठेकेदारों को हटाना होगा। अर्थात् हमारे देश की आजादी के बाद भी कई समय तक जमींदारी तथा राजशाही व्यवस्था कायम थी। इसके चलते लोगों को कई प्रकार की कठिनाइयों तथा अन्याय का सामना करना पड़ता था। इसी कारण कवि कहते हैं कि ये जमींदार, छोटी-बड़ी रियासतो को राजा-महाराजाओं को अब अपने मुकुट तथा सत्ता त्यागनी होगी तथा देश के विकास के लिए आम जनता के रूप में काम करना होगा। तभी समाज में समतामूलक व्यवस्था कायम हो सकेगी। वे कह रहे है कि जिस प्रकरा खेती के लिए हम पथरीली, ऊँची-नीची जमीन को खोद कर काट कर उसे समतल बनाते हैं उसी प्रकार समाज में जो ऊँच-नीच, अमीर-गरीब तथा जातिवाद के कारण जो विषमता छायी हुई है उसे दूर करना ही होगा। उसके लिए लगातार लड़ाई लड़नी ही होगी। जब तक समानतावाद स्थापित नहीं हो जाता हम युद्ध भूमि नहीं छोड़ेगे। हम लगातार समतामूलक सोच रूप ज्योति के तीर समाज में बरसाते रहेंगे तथा इस विषमता रूपी काली जंजीर को तोड़कर ही रहेंगे। समाज से सारा भेद-भाव मिटा कर ही रहेंगे।

सोमवार, 9 सितंबर 2024

B.com 3rd Sem समर शेश है संदर्भ, प्रसंग, व्याख्या...

 ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो।

किसने कहा, युद्ध की वेला गई, शान्ति से बोलो।

किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से,

भरो भुवन का अंग कुसुम से, कुंकुम से, केशर से?

कुंकुम लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?

तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।

 

संदर्भ :- प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक कवितांजलि से ली गयी है। इस कविता के रचैता कवि रामधारी सिंह दिनकर जी है।

प्रसंग:- उन्होंने यह कविता देश की जनता में सोई हुई आत्मसम्मान और वीरता की भावना को जाग्रत करने के उद्देश्य से लिखी है। उक्त पंक्तियों में दिनकर जी लोगों से कह रहे हैं कि जब हिन्दुस्थान की जनता भूख से तड़प रही है तो हमें किसी प्रकार के उत्सव नहीं मनाना चाहिए न ही शान्ति से बैठे रहना चाहिए।

व्याख्या :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि प्रश्न के माध्यम से लोगों से पूछ रहे हैं कि किसने कहा कि धनुष की डोरी ढीली कर दो और तरकस का कस खोल देने के लिए? किसने कहा कि युद्ध की बेला चली गयी और अब शान्ति की बेला है तो शान्ति से ही बातचीत करनी चाहिए? हे हिन्दुस्थान के लोगों किसने तुमसे कह दिया कि शत्रुओं के हृदय को अग्नि वाण से मत चीरों। वस्तुतः इन प्रश्नों के माध्यम से कवि यह जताना चाहते हैं कि भले ही भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हो चुका है, भले ही संसार भर में द्वितीय विश्व युद्ध भी शान्त हो चुका है लेकिन भारत के लिए तो युद्ध अभी शान्त नहीं हुआ है क्योंकि अभी भी भारत गरीबी, भूखमरी तथा आर्थिक तंगी से गुजर रहा है। वर्षों से भारत को लूटे जाने के कारण उसकी आज यह दुर्दशा हुई है।  वे आगे भी प्रश्न ही करते हुए पूछ रहे हैं कि किसने कहा कि तुम अपने राज भवन को फूलें से, कुंकुम तथा केशर से सजाओं? किसके माथे पर कुंकुम लेपू और किसको कोमल संगीत सुनाऊ जबकि आँखों के आगे तो भूखा हिन्दुस्थान तड़प रहा है। हम इस बात को बंगाल के अकाल से भी जोड़ सकते हैं तथा भारत में हरित क्रान्ति से पहले की दशा से भी जोड़ सकते हैं। क्योंकि जब तक भारत की सारी जनता भर पेट भोजन पाने के लायक न हो जाय कवि को नहीं लगता कि उसे किसी प्रकार का उत्सव से या शान्ति पर्व मनाने की आवश्यकता है।

विशेष :- वास्तव में कवि दिनकर भारत के लोगों को याद दिलाना चाहते हैं कि भारत प्राचीन काल में सोने की चिड़िया कहलाता था। लेकिन मुगलों, तुर्कों तथा अंग्रेजों के शासन काल में हुई लूट के कारण उसकी क्या दुर्दशा हो चुकी है। वही देश के नेता गण भी भारत की आजादी के बाद से अपनी राजनैतिक रोटी ही सेकने में व्यस्त है जबकि देश की जनता त्रस्त हो रही है।

 

 

 फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतारने वाले।

ओर रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!

सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है।

दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अँधियाला है।

मखमल के परदों के बाहर, फूलों के उस पार,

ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार ।

 

संदर्भ:- प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक कवितांजलि से ली गयी है। इस कविता के रचैता कवि रामधारी सिंह दिनकर जी है।

 प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में वे दिल्ली में बैठे स्ताधारी नेताओं को धिक्कार रहे हैं कि उन्हें केवल अपनी छवि की पड़ी है जबकि पूरे देश की जनता गरीबी तथा भूखमरी का विष पी रही है।

व्याख्या :-  कवि दिनकर जी कहते हैं कि हे दिल्लीवालों फूलों से भरे रंगीन रास्तों पर चलने वालों, रेशमी नगर के वासियों, छवि के मतवालों क्या तुम्हें पता नहीं कि पूरे देश की जनता दुख और संताप, भूखमरी, आर्थित तंगी आदि का विष पी कर जीवन गुजार रही है? क्या तुम्हें स्पष्ट रूप से दिख नहीं रहा कि दिल्ली में मौज मस्ती है, चकाचौंध भरी रोशनी है, लेकिन पूरे देश में अंधेरा ही अंधेरा छाया हुआ है? तुम्हारे मखमल के परदों के बाहर, खुशबुदार फूलों के बागीचे के उस पार पूरे देश में आज भी मरघट अर्थात् श्मशान जैसी बदबू तथा उदासी छायी हुई है। अर्थात् जब देश आजाद हुआ उस वक्त देश के सारे राजनेता तथा दिल्ली वासी तो दिल्ली की चकाचौंध को ही देश की उन्नति समझे बैठे थे। वही पूरे भारत में बिजली, पानी, अन्न तथा रहने के लिए साधारण घर इत्यादि किसी भी चीज की व्यवस्था नहीं थी। लोग तरह-तरह के दुख से दुखी एवं त्रस्त थे परन्तु इस बात का थोड़ा सा भी अंदाजा दिल्ली वालों के नहीं था या फिर वे जानबूझ कर अनजान बने हुए थे।

 विशेष :- वस्तुतः देश की आजादी के बाद दिल्ली के नेता गण, समाज-सुधारक, पत्रकार आदि, आम जनता तक उस समय अपने आस-पास की परिस्थितियों से मुह मोड़ कर केवल अपने मनोरंजन तथा चकाचौंध में खो चुकी थी। उस समय वह केवल सोचती थी कि देश आजाद हो चुका है तो सबकुछ अपने आप ही ठीक हो जाएगा लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि देश की जनता को तब भी अनेक प्रकार की सहायता की आवश्यकता थी।

वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,

जहाँ क्षितिज है शून्य अभी तक अंबर तिमिर वरण है

देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तःस्थल हिलता है

माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है

पूछ रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज

सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

 

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियों कवि कह रहे हैं कि देश को आजाद हुए सात साल हो चुके हैं लेकिन अभी भी देश की हालत वैसी की वैसी ही है। जिस स्वराज की आशा की थी वह अभी तक आया ही नहीं है।

 

व्याख्या :- कवि कहते है कि वह संसार जहाँ पर अभी तक स्वराज की किरण नहीं पहुँची है अर्थात् दिल्ली के अलावा पूरे देश में, ग्रामीण क्षेत्रों, छोटे शहरों कही पर भी स्वराज की किरण नहीं पहुँची है। वहाँ अभी भी क्षितिज शून्य पर है तथा वहाँ का आसमान अभी तक अंधेरे से भरा हुआ है। वहाँ का दृश्य आज भी देख कर कवि का अन्तःस्थल अर्थात् मन का भीतरी हिस्सा भी हिल जाता है। क्योंकि आज भी उन अंधेरे स्थानों पर रह रहे लोगों की दुर्दशा कुछ ऐसी है कि उसे बताया ही नहीं जा सकता । माँ को अपना तन ढकने के लिए कपड़े तथा शिशु के पीने के लिए माँ का दूध तक नहीं मिल पाता है। भूखे शिशु के देखकर कवि का हृदय द्रवित हो जाता है। कवि उन तमाम जनता के माध्यम से पूछ रहे हैं कि अकाज अर्थात् सरकारी काम-काज न होते हुए देखकर सभी जनता चकित हो कर पूछ रही है कि सात वर्ष हो गए भारत को आजाद हुए, जिस स्वराज का सपना दिखाकर उन्हें आजादी की लड़ाई में शामिल किया गया आज वह स्वराज कहा अटक गया है। आज तक वह स्वराज क्यों नहीं आया है?

विशेष :- कवि ने दिल्ली में बैठे नेताओं के आलस, ढीली राजनीति तथा सरकारी काम-काम में हो रही लापरवाही तथा देरी पर प्रश्न उठाया है।

रविवार, 8 सितंबर 2024

शम्बूक BA 4th Sem व्याख्या

 भूमिका Disclaimer

कवि जगदीश गुप्त जी ने शम्बूक की कथा राम कथा ली है। इस कथा में कवि द्वारा यह दर्शाया गया है कि कैसे एक शूद्र की तपस्या के कारण तत्कालीन राम राज्य में एक ब्राह्मण के बेटे की मृत्यु हो जाती है। फिर ब्राह्मणों के कहने पर राम शम्बूक की खोज में जाते हैं और उसका वध करते हैं। हालांकि कवि के अनुसार मूल वाल्मीकि संस्कृत रामायण में इस कथा के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता है बल्कि उत्तर रामायण में मिलाया हुआ बताते हैं। कवि के अनुसार 'प्रयाग को अपना 'मैका' माननेवाले डॉ फादर कामिल बुल्के ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'रामकथा' में कई अनुच्छेदों (618 था 628-632) में देदी है। साथ ही उन्होंने भलीभाँति विचार करके वाल्मीकि रामायण के समस्त उत्तरकाण्ड को प्रक्षिप्त घोषित किया है। शम्बूक-वध भी उसी के प्रक्षिप्त सर्गों (72-82) में सम्भवतः सर्वप्रथम वर्णित किया गया है।' अर्थात् यह मिलाया गया है। वही शम्बूक वध की कथा दूसरे कई ग्रंथों में भी अलग-अलग प्रकार से लिखे गये हैं। 


व्याख्या प्रथम अध्याय राजद्वार

आगे ज्योति मण्डित …. उल्लास की उठती लहर।

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्य पुस्तक शम्बूक से ली गयी है। इसके रचैता कवि जगदीश गुप्त जी है। प्रस्तुत पंक्तियों में राम के दरबार की शोभा का वर्णन किया गया है। 

व्याख्या:- कवि कहते हैं कि आगे ज्योति से मण्डित अर्थात् ज्योति से भरा हुआ और सजाया हुआ बड़ा सा उन्नत राजद्वार है। पीछे शक्तिशाली लोक के रक्षक राम का दरबार है। यह राज दरबार सुन्दर तोरणों, सुन्दर परदों, कलशों तथा ध्वजा की पंक्ति से सजा हुआ है। अलग-अलग प्रकार से रूप, रंग तथा बनावट वाले साजो-सामान से सजा हुआ है। प्रहरी सहजता से खड़े हुए राजद्वार का पहरा दे रहे हैं। वही दण्डधारी भी हर पहर में आकर खड़े हो रहे हैं। हर दिशा अर्थात् चारों दिशाओं में उल्लास की लहर सी उठ रही है। 

    कवि ने यहाँ राम के दरबार की सुन्दरता एवं भव्यता का वर्णन किया है।

यह अयोध्य का हृदय…..अमृत में विष घोलता है कौन।

प्रसंग :- प्रस्तुत प्रसंग में रामदरबार में जहाँ उल्लास और हर्ष छाया हुआ था वहाँ अचानक किसी के कर्कश स्वर सुनाई देने से लोगों में आशंका के बारे में बताया गया है। क्योंकि राम राज्य में तो चारों तरफ सुख-शान्ति थी फिर कोई क्यों दुखी होता।

व्याख्या :- कवि कह रहे हैं कि राजद्वार के पीछे जो राम का दरबार है वह अयोध्या का हृदय है और वह प्रत्यक्ष ही लग रहा है। क्योंकि वहाँ सभी प्रकार के लोग है और हंसी-उल्लास से पूरा राज दरबार भरा हुआ है। भला राम के दरबार के समान सुन्दर, भव्य और दिव्य और कौन इसके समान हो सकता है। चारों तरफ शहनाइयाँ बज रही है जो लोगों को आनन्दित कर रही है। 

    तभी अचानक शहनाइयों के स्वर को चीर कर किसी का दुख भरा स्वर सुनाई देता है। ऐसा लग रहा है कि जैसे लगता है कि यह दुख बहुत गहरा और असीम (जिसकी कोई सीमा न हो) है। कर्कश शब्द सुनकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कौन अमृत के समान इस मुहूर्त में विष घोल रहा है। अर्थात् राम दरबार में जो प्रसन्नता और उल्लास छाया हुआ है वह अमृत के समान है , वहाँ कौन अपनी कर्कश वाणी से विष घोल रहा है?

शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

B.com 3rd Sem रामायतन Part 3

 जननी सम जानहिं। धन पराव विष तें विष भारी।।

जो हरषहि पर सम्पत्ति देखो। दुखित होहिं पर विपति विसेषी।।

जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।। 

स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।।

मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।।

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में मुनि वालमीकि जी श्री राम को उन व्यक्तियों के गुणों के बारे में बता रहे हैं जिनके मन में श्री राम का वास होता है।

व्याख्या :- मुनि कह रहे हैं कि हे राम! आप उनके मन में बस जाइए जो पराई स्त्री को जन्म देने वाली माता के समान मानकर उनका आदर करता हो और पराया धन जिन्हें विष से भी ज्यादा विषैला लगता है। हे रामजी आप उनके मन में बस जाइए जो दूसरे की सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुखी होते हैं। हे रामजी जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं, उनका मन आपके रहने योग्य और शुभ भवन के समान है। हे तात(श्रीराम) जिनके लिए आप ही सुबकुछ है अर्थात् जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मन रूपी मंदिर में सीता सहित आप दोनों भाई निवास कीजिए।

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। विप्र धेनु हित संकट सहहीं।।

नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका।।

गन तुम्हार समुझाइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा।।

राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में मुनि वाल्मीकि जी श्री राम को मनुष्य के उत्तम गुणों के बारे में बता रहे हैं तथा एक सच्चे राम भक्त की पहचान भी बता रहे हैं।

व्याख्या :- मुनि वाल्मीकि जी कह रहे हैं कि हे राम! जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गौ के लिए संकट सहते हैं, नीति-निपुणता में जिनकी जगत् में मर्यादा है, उनका सुन्दर मन आपका घर है। जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है, जिसे सब प्रकार से आपका ही भरोसा है और राम भक्त जिसे प्यारे लगते हैं , उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिए। वास्तव में यहाँ गोस्वामी तुलसीदास जी मुनि वाल्मीकि जी के द्वारा मानव समाज को यह संदेश देना चाहते हैं कि संसार में यदि सभी मनुष्य में ऐसे उत्तम गुण हो तो भगवान सदैव उनके मन में विराजेंगे। मनुष्य को सदैव दूसरों में अवगुण देखने के बजाय उनके गुणों को देखना चाहिए और उन्हें अपनाना चाहिए। दूसरों की सहायता करने वाला, दूसरों की रक्षा हेतु स्वयं संकट से लड़ने वाला व्यक्ति समाज के लिए कितना आवश्यक है। जो व्यक्ति मर्यादा पुरुषोत्तम राम का भक्त हो ऐसे व्यक्ति को वह प्रिय लगे ऐसा व्यक्ति कभी भी किसी से शत्रुता नहीं कर सकता। अतः हमें ऐसे उत्तम गुण अपनाने चाहिए। तभी हमारे मन में भगवान का वास रहेगा।

जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।

सब तजि तुम्हरि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई।।

सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देखे धरें धनु बाना।।

करम वचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा।।

जाहि न चाहिउ कबहुँ कछु तुम्ह मन सहज सनेहु।

निरंतर तास मन सो राउर निज गेहु।।

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में मुनि वाल्मीकि जी मनुष्य के ऐसे उत्तम गुण के बारे में बता रहे हैं जो कि पूरे समाज को भी अपनाने की जरूरत है। वह बता रहे हैं कि जो व्यक्ति जाति-पाति, धर्म, परिवार आदि के बंधन से मुक्त होकर सबको छोड़कर केवल श्री राम को ही हृदय में धारण करता है उसके हृदय में ही श्री राम को बसना चाहिए।

व्याख्या :- मुनि वाल्मीकि जी श्री राम जी से कह रहे हैं कि हे राम! आप उनके हृदय मे ंरहिए जो जाति, पाति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर सबको छोड़कर केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है। क्योंकि ऐसे व्यक्ति के लिए तो पूरा विश्व ही उसका परिवार है। जैसे भगवान के लिए समस्त संसार तथा उसमें रहने वाले सभी प्राणी एक समान है वैसे ही जिस व्यक्ति के मन में ऐसी विचार धारा हो वही ईश्वर के समान सबको अपने हृदय में स्थान दे सकता है। अन्यथा लोग तो केवल जाति, पाति, धर्म, परिवार आदि के चक्करों में पड़कर स्वार्थी हो जाते हैं। वे तब समाज का भला नहीं कर सकते हैं। उनके हृदय में संकीर्णता वास करती है। 

    मुनि आगे कहते हैं कि हे राम! जिस व्यक्ति के लिए स्वर्ग, नरक तथा मोक्ष(जन्म मृत्यु के चक्कर से मुक्त हो जाना) एक समान है, क्योंकि वह जहाँ-तहाँ आपको ही केवल धनुष-बाण धारण किए देखता है, जो कर्म से, वचन से और मन से आपका दास है, हे राम! आप उसके हृदय में डेरा कीजिए। मुनि वाल्मीकि जी यह कहना चाहते हैं कि जिस मनुष्य के लिए स्वर्ग-नरक एक समान है अर्थात् प्रभु श्री राम बिना स्वर्ग भी नरक के समान है तथा जहांँ राम है वही वैकुण्ठ है वही व्यक्ति शुद्ध हृदय वाला व्यक्ति है। क्योंकि जो व्यक्ति केवल इस कारण लोगों की सेवा करता हो कि इससे उसे स्वर्ग प्राप्त होगा तो वह तो केवल उसका स्वार्थ होगा। जिस व्यक्ति के लिए ये सारी बाते मायने नहीं रखती केवल यह मायने रखती है कि भगवान श्री राम तो कण-कण में बसे हैं तथा उनके बिना कोई भी स्थान अधुरा है वह व्यक्ति वास्तव में सच्चा भक्त है तथा सच्चा मनुष्य है। क्योंकि वही व्यक्ति किसी भी परिस्थिति या लोभ में भगवान को अपने हृदय से नहीं निकाल सकता है। 

    मुनि आगे कहते हैं कि जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसको आपसे स्वाभाविक प्रेम है। आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिए। वही आपका घर है।


विशेष :- उपरोक्त सभी पंक्तियों में दरअसल कवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने मुनि वाल्मीकि द्वारा समाज को एक बड़ा संदेश देना चाहा है। प्रथम तो ये की श्री राम ही सच्चे परमेश्वर है जिन्होंने धरती पर मानव अवतार लेकर राक्षसों के अत्याचार से धरती को मुक्त कराने का प्रण लिया है। श्री राम ही सच्चे भगवान है जिन्होंने मनुष्य अवतार लेकर मर्यादा का पालन करके लोगों को यह बताना चाहते हैं कि हमें भी सदैव मर्यादा पालन करना चाहिए। मर्यादा का पालन करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। वही दूसरी बात यह बताना चाहते हैं कि मनुष्य को भी सदैव उत्तम गुण धारण करना चाहिए। वरना वर्तमान समय में जिस प्रकार से समाज में अनाचार, पाप, अत्याचार का चलन है उससे एक दिन पूरा समाज ही ध्वस्त हो जाएगा।

गुरुवार, 5 सितंबर 2024

BCA 3rd sem बुद्ध और नाचघर विस्तार सारांश

 

बुद्ध और नाचघर कविता हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखित है। हरिवंश राय बच्चन उत्तर छायावाद काल के कवि थे। वे अपने समय के बहुत ही प्रसिद्ध रचनाकार थे। उनकी रचना में सामाजिकता एवं जन कल्याण की भावना निहित थी। उनके द्वारा लिखित कविता बुद्ध और नाचघर में उन्होंने बुद्ध के जीवन, दर्शन तथा सिद्धान्त के बारे में बात की है। बुद्ध जिन्हें आधुनिक युग में एक अवतार तथा भगवान के रूप में माना जाता है। जिनकी विचारधारा में सत्यता, त्याग तथा नश्वर संसार के प्रति मोह माया छोड़कर ईश्वर की शरण में जाना, प्रेम आदि मुख्य है। प्रस्तुत कविता में राजकुमार सिद्धार्थ से भगवान गौतम बुद्ध बनने की यात्रा के बारे में बताया गया है।

कविता की शुरुआत में वे बुद्ध की शरण में जाने की बात कहते हुए प्रारम्भ करते हैं। धर्म की शरण में, संघ की शरण में जाने की बात करते हैं।

वे आगे कहते हैं कि  हे बुद्ध भगवान जहाँ धन, वैभव, ऐश्वर्य का भंडार था। जहाँ तुम्हें पल-पल सुख सुविधाएँ मिली हुई थी, जहाँ तुम्हारे मनोरंजन हेतु दासियाँ  श्रृंगार किये रहती थी। जहाँ रूप, रस और यौवन की सदैव सदा बहार थी। तुमने वहाँ जन्म लिया और वही पलकर बढ़े हुए, वही तुम्हारा विकास हुआ। फिर कैसे तुममें अपने चारों ओर के संसार पर संदेह और अविश्वास जाग उठा। अर्थात् राजकुमार सिद्धार्थ जिनका जन्म लुंबिनी नेपाल में हुआ था। वे राजा शुद्धोधन के पुत्र थे। राजा शुद्धोधन ने राजकुमार सिद्धार्थ के लिए सभी प्रकार की  सुख सुविधा का बंदोबस्त कर रखा था। वे बचपन से ही प्रतिभाशाली थे। उन्हें अस्त्र-शस्त्र तथा सभी प्रकार की शिक्षा-दीक्षा मिली थी। उनका विवाह राजकुमारी यशोधरा से हुआ था। फिर अचानक एक घटना ने उनके जीवन में परिवर्तन ला दिया जिससे वे मात्र 27 साल की आयु में अपनी पत्नी तथा नवजात शिशु पुत्र राहुल को रातोरात त्यागकर एवं अपने राजपाट को त्यागकर वे संन्यास लेकर चले गए।

कवि बच्चन सिद्धार्थ के जीवन में घटि उस घटना के बारे में बताते हैं जिसने उन्हें संसार से विमुख कर दिया थे। वे कहते हैं कि अचानक एक दिन हे बुद्ध भगवान तुमने उठा ही लिया उस सोने के घड़े का ढक्कन और पाया कि उसमें विष-रस भरा है। अर्थात् भगवान बुद्ध जब राजकुमार थे तब उन्होंने एक दिन  मनुष्य जीवन की उस यथार्थ को देखा जिससे उन्हें समझ में आया कि यह जीवन दिखने में जितना सुन्दर है वास्तव में तो उसमें कितना विष भरा पड़ा है। जो व्यक्ति जन्म के समय सुन्दर एवं कोमल दिखता है वही बुढ़ापे में दुर्बल और क्षीण दिखता है। मनुष्य के शरीर के साथ-साथ उसका मन भी दुख-दर्द, विषाद, मोह-माया, ईर्ष्या-द्वेष, काम, क्रोध से भरा रहता है। इसी कारण संसार भर में लोग एक-दूसरे के लिए एक-दूसरे के साथ लड़ते-झगड़ते रहते हैं। जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु भी होती रहती है। इसलिए कवि ने मृत्युलोक के इस जीवन रूपी सोने के घड़े को विष रस से भरा बताया है। वही वे आगे कहते हैं कि सिद्धार्थ अर्थात् बुद्ध को यह भी पता चला की मनुष्य की जीवन जिसे दुल्हन की तरह सजाया संवारा गया है वह अंदर से एक सड़ी गली लाश ही है। अर्थात् जैसे मनुष्य के तन का चमड़ा जिसे हम बाहर से खूब उसकी देखभाल करते हैं, उत्तम वस्त्रों से सजाते हैं, उसे खूब सुन्दर रखने का प्रयास करते हैं। वही चमड़ा जब हट जाता है तो अंदर केवल विभत्स मांस ही दिखायी देता है। इसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी जिसे हम सुख-सुविधाओं और ऐश्वर्य से सजा कर रखने का प्रयास करते हैं परन्तु वास्तव में देखा जाए तो इस जीवन में समस्याओं और संघर्ष के अलावा कुछ नहीं है।

कवि आगे कहते हैं कि हे बुद्ध तुम यह सब देखकर अवाक् रह गए। तुम हैरान हो गये कि क्यों इतना दुख-दर्द, इतनी पीड़ा होने के बाद भी मनुष्य ने अपने आप को धोखे में रखा हुआ है। वह इस संसार को मोह-माया में फंस कर क्यों विष के घूँट पीये जा रहा है जो कि बार-बार फूट-फूट कर निकल रहा है। उन्हें इस बात की हैरानी है कि क्या मनुष्य के लिए यही सुख है यही साज है। ऐसा लगता है कि मनुष्य अपनी खाज खुजला रहा है। अर्थात् जिस प्रकार खुजली की बिमारी में मरीज को अपनी खाज खुजाने में जिस प्रकार का आनंद आता है उसी प्रकार मनुष्य इस संसार में लालच और मोह-माया की बिमारी से ग्रसित होकर इतना दुख, कष्ट सहन करके भी दिखावे के लिए सुख-सुविधा जुटाने में लगा है। उसकी अंतर्रात्मा चाहे कितनी भी दुखी हो वह लेकिन अपने इन्द्रियों के वश में होकर वही कर रहा है जो कि उसकी इन्द्रियाँ चाहती है।

इस प्रकार जब सिद्धार्थ ने देखा कि संसार तो रोगी बना हुआ है तो वह एक दिन घर से निकल गए और दूर देश, वनों, पर्वतों में घूमते रहे। इस संसार को जो रोग लगा है उसका कारण जानने एवं उस रोज का चिकित्सा कैसे हो वह ढूँढने निकल पड़ते हैं। उन्होंने बड़े-बड़े पंडितों से भी इस रोग का कारण और इलाज के बारे में पूछा। मोटे-मोटे ग्रंथ पढ़े। उन्होंने जंगलों में तपस्या करते हुए अपना तन सुखाया, साधना में मन को लगा दिया। फिर एक दिन उनकी साधना, उनका परिश्रम सफल हुआ, उनकी तपस्या सफल होती है। प्रकाश का क्षण आता है और उन्हें निर्वाण प्राप्त होता है। उन्हें वह दिव्य शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है जिससे कि वे प्रबुद्ध हो जाते हैं।

कवि आगे कहते हैं कि जब सिद्धार्थ ज्ञान प्राप्त करने के बाद बुद्ध बन जाते हैं तो वह संसार भर को उस रोग से दूर रखने के लिए एवं संसार के दुख, कष्ट को दूर करने के लिए जगह-जगह उपदेश देना शुरु करते हैं। वे व्याख्यान देना शुरु करते हैं। लोगों में उनके दिव्य सन्यासी वेश तथा उनकी ज्ञानवर्धक बातें सुनकर लोग उन्हें घेरने लगते हैं। कवि कहते हैं कि इस संसार में व्यक्ति सदैव नहीं बात सुनने को तत्पर रहता है। फिर चाहे वह किसी शैतान के मुख से निकली हो या भगवान के मुख से। फिर बुद्ध तो अब ज्ञान प्राप्त करने के बाद लोगों की दृष्टि में भगवान बन चुके थे।

कवि अंत में कहते हैं कि यह जीवन तो एक चुभते हुए तीर के समान है। जो जब भी किसी शरीर को लगता है तो मन उस पीड़ा से छटपटाने लगता है, शरीर में पीड़ा होती है और अंग-अंग तड़फड़ाने लगता है। यही असल सच्चाई है और क्या इसे सिद्ध करने की जरूरत है? बुद्ध जब है तो वह लोगों को इस कष्ट से दूर कर देंगे।

रविवार, 1 सितंबर 2024

B.com 3rd Sem रामायतन Part 2

 राम सरूप तुम्हार वचन अगोचर बुद्धिपर।

अविगत अकथ अपार नेति-नेति निगम कह।।

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीराम के असल स्वरूप के बारे में मुनि कह रहे हैं कि उन्हें वेद भी अच्छी तरह से नहीं जान पाते हैं क्योंकि वे परम परमेश्वर है जिनका स्वरूप अव्यक्त है।

व्याख्या :- मुनि वाल्मीकि कहते हैं कि हे राम! आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। अर्थात् श्री राम आप परम पिता परमेश्वर हैं। आपका स्वरूप इतना विराट और भव्य है कि उसे वाणी द्वारा बांधा नहीं जा सकता। ब्रह्माण्ड जितना विशाल स्वरूप है। श्री राम के स्वरूप को बुद्धि भी सही ढंग से व्यक्त नहीं कर सकती। क्योंकि वे ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड है, वे ही समस्त संसार है और स्वयं ही उसके निर्माता भी है। इसलिए श्री राम का स्वरूप अकथनीय (बोलकर समझाने लायक नहीं है) है और अपार (जिसका कोई पार या किनारा न हो) है। वेदों में भी आपके बारे में लिखते हुए बार-बार नेति-नेति (नहीं जानते या जाना जा सकता है) कहकर वर्णन किया गया है।

विशेष:- वास्तव में ये संपूर्ण ब्रह्माण्ड बहुत विशाल और विराट है। इसको चलाने वाले ईश्वर का स्वरूप तो इससे भी बड़ा और विशाल है। मनुष्य स्वयं अपनी आँखों से आकाश का एक टुकड़ा मात्र ही देख सकता है तो फिर स्वयं ईश्वर एक साधारण मनुष्य के नेत्रों में कैसे पूरे समा सकते हैं। इसी प्रकार श्री राम ईश्वर है तो उनके स्वरूप को कह देना किसी के लिए भी असंभव  ही है।

जगु पेख तुम्ह देखनिहारे। विधि हरि संभु नचावनिहारे।।

तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरू तुम्हहि को जाननिहारा।।

सोइ जानई जेहि देहु जनाई। जानक तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।

तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहि भगत भगत उर चंदन।।

चिदानंदमय देह तुम्हारी। विगत विकार जान अधिकारी।।

नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा

प्रसंग :- प्रस्तुत प्रसंग में मुनि वाल्मीकि जी श्री राम से कह रहे हैं कि आपको त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शंकर भी पूजते हैं और आप उनको नचाने वाले हैं। इन पंक्तियों में मुनिजन श्री राम की महिमा का वर्णन कर रहे हैं।

व्याख्या :- वे कहते हैं कि हे राम! यह जगत् दृश्य है और आप उसको देखने वाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचाने वाले हैं। जब वे भी आपके मर्म को नहीं जानते, तब और कौन आपको जानने वाला है? वही आपको जानता है जिसे आप स्वयं अपने बारे में जा देते है अर्थात् अपने बारे में बता देते हैं।  और जो आपको एक बार जान जाता है वह जानते ही आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन! हे भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले चंदन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं। आपकी देह चिदानन्दमय है। अर्थात् इस प्रकृति में मौजूद पंच महाभूतों द्वारा बनी हुई बंधनयुक्त और (उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय) आदि जैसे विकारों से युक्त देह नहीं है। बल्कि आपकी देह दिव्य और बंधन एवं विकारों से मुक्त है। आपने देवता और संतों के कार्य के लिए दिव्य नर शरीर धारण किया है और प्राकृत(प्रकृति के तत्वों से निर्मित देह वाले साधारण) राजाओं की तरह से कहते और करते हैं। अर्थात् असाधारण होकर भी साधारण की भांति कार्य कर रहे हैं।

विशेष :- वास्तव में श्री राम के उपरोक्त गुणों से यह विधित होता है कि वे ईश्वर होकर भी धरती पर अवतरित होकर मर्यादा का पालन करते हुए लोक कल्याण हेतु काम कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने स्वयं ही प्रकृति एवं समाज के मर्यादा के अनुकूल होकर वे काम कर रहे हैं। वे असल में मानव समाज को यह शिक्षा देना चाहते हैं कि मनुष्य को सदैव प्रकृति और समाज की मर्यादा का पालन करना चाहिए।

राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे।।

तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा।। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा।।

पूँछहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ। जहँ न होह तहँ देह कहि तुम्हहिं देखावौं ठाउँ।।

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में राम के चरित्र के बारे में बताया जा रहा है। वही राम को परोक्ष रूप में घट-घट वासी भी बताया जा रहा है।

व्याख्या :-  हे राम! आपके चरित्रों को देख और सुनकर मूर्ख लोग तो मोह को प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन सुखी होते हैं। आप जो कुछ कहते, करते हैं, वह सब सत्य (उचित) ही है, क्योंकि जैसा स्वाँग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिए अर्थात् इस समय आप मानव अवतार में हैं, अतः मनुष्योचित व्यवहार करना ही ठीक है। आगे मुनि श्री राम से कहते हैं कि हे राम आपने मुझसे पूछा कि मैं कहा रहूँ? परन्तु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हो, वह स्थान बता दीजिए। तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ। अर्थात् श्री राम इस समय मानव अवतार में हैं और मुनि वाल्मीकि से अपने रहने का स्थान पूछ रहे हैं। वही वाल्मीकि जी कहते हैं कि आप मुझसे पूछ रहे हैं कि आप कहा रहे बल्कि आप ही मुझे बताइए कि आप कहा नहीं है। अर्थात् हे राम आप तो संसार के हर कण-कण में वास करते हैं। फिर आप ही बता दीजिए कि जहाँ आप नहीं रहते हैं तो मैं आपसे कहूँगा कि आपको कहा रहना चाहिए।


काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।

जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया।।

सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।

कहहिं सत्य प्रिय वचन विचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।

तुम्हहिं छांड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहुं तिन्ह के मन माहीं।।


प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में मुनि वाल्मीकि श्री राम को रहने के लिए उचित स्थान के बारे में बता रहे हैं।

व्याख्या :- वे कहते हैं कि हे राम जिनके मन में  काम, क्रोध, मोह, मद, अभिमान जैसे छः शत्रु नहीं है, न ही लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है, न कपट या दंभ या माया है आप ऐसे विकार रहित पवित्र व्यक्ति के हृदय में निवास कीजिए। अर्थात् श्री राम ऐसे व्यक्ति के हृदय में ही रह सकते हैं जो कि इन सांसारिक विकारों और विचारों से मुक्त रहता हो जिसका हृदय पवित्र हो। क्योंकि काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या -द्वेष आदि से भरे हृदय में भक्ति और प्रेम कभी नहीं उत्पन्न हो सकता है और जहांँ भक्ति और प्रेम न हो वहाँ भगवान कभी भी वास नहीं करते हैं। वे आगे कहते हैं कि जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले लोग हैं, जिन्हें दुख और सुख तथा प्रशंसा और गाली समान है, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण में रहते हैं आप उनके यहाँ रहिए। अर्थात् अच्छे व्यक्ति जो हर प्रकार के बंधनों से मुक्त होकर दूसरों का भला करते हैं तथा दूसरों के हित का ही सोचते हैं ऐसे व्यक्ति के पास ईश्वर हमेशा साथ रहते हैं। मुनि वाल्मीकि कहते हैं कि हे राम आप ऐसे व्यक्ति के मन में ही वास करें जो आपको छोड़कर जिसके पास दूसरा कोई गति या आश्रय नहीं है। क्योंकि ऐसे व्यक्ति आपका मर्म अच्छी तरह से जानता है। वह आपको कभी भी नहीं त्यागेगा। सदा आपको अपने मन में धारण किये ही रहेगा।