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बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

B.com Logistic 3rd semester SEP कहै कबीर सुनो भाई साधो एक शब्द और एक वाक्य वाले प्रश्नोत्तर

प्रश्न - मंच पर कौन गाते हुए प्रवेश करते हैं?

उत्तर-गायक और गायिका

प्रश्न -गायक के अनुसार मानवता के दूत कौन है?

उत्तर - कबीर

प्रश्न - सच्चाई के लिए समर्पित किसका जीवन था?

उत्तर-कबीर

प्रश्न-कबीर ने किसके बल पर नई दुनिया रचाई?

उत्तर-प्रेम

प्रश्न-सम्प्रदायों और धर्मों के बीच कबीर ने किसकी जोत जलाई?

उत्तर-सत्य की

प्रश्न-कबीर किस जाति के थे? 

उत्तर -जुलाहा

प्रश्न-कबीर कहा रहते थे?

उत्तर-काशी

प्रश्न-आदमी 1 को किसने पीटा था?

उत्तर-जमींदार के कारिन्दों ने

प्रश्न- दोनों आदमियों के अनुसार उन्हें पीटे जाने का क्या कारण था?

उत्तर - वे जाति के चमार थे इसलिए पीटा गया था।

प्रश्न- गायक-गायिका लोगों को किस रास्तें पर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रहे थे?

उत्तर-सत्य के रास्ते पर

प्रश्न-समाज किन दो हिस्सों में बंटा हुआ है?

उत्तर- जातियों और फिरकों में

प्रश्न-फकीरों के गीत जलते हुए घावों पर क्या करते हैं?

उत्तर-मरहम लगाते हैं।

प्रश्न-प्यासों के लिए शीतल जल क्या है?

उत्तर-फकीरों की वाणी

प्रश्न-व्यक्ति की आँखें कैसे अँधी हो गयी थी?

उत्तर-उसकी आँखों में जलती सलाखे घुसेड़ की गयी थी।

प्रश्न- किन्होंने व्यक्ति की आँखों में जलती सलाखे घुसेड़ी थी?

उत्तर - वर्दीधारियों ने।

प्रश्न-कबीर काशी में कहाँ रहते थे?

उत्तर-जुलाहा पट्टी में।

प्रश्न-कबीर किसे अपना पूरा थान दे देते हैं?

उत्तर -गरीब आदमी को

प्रश्न-कबीर को पूरा थान देने से रोकने के लिए कौन आते हैं?

उत्तर -रैदास

प्रश्न-कबीर के तीनों मित्र कौन-कौन हैं?

उत्तर-रैदास, सुदर्शन,गोरा

प्रश्न-कबीर बनारस के पंडितों को क्या कहकर बुलाते थे?

उत्तर-ठग, धूर्त, पाखंडी, लोभी, लम्पट

प्रश्न- कौन कबीर से उसकी जाति पूछता है?

उत्तर- तिलकधारी साधु

प्रश्न-कबीर और रैदास को साधुओं की मार से बचाने कौन आते हैं?

उत्तर-बिजली खाँ और बोधन

प्रश्न-किसकी शह पाकर ये साधु, मुल्ला और तुर्क इतराते फिरते थे?

उत्तर-कोतवाल

प्रश्न- गीध (गिद्ध) के समान कौन था?

उत्तर -कोतवाल

प्रश्न-कबीर के माता-पिता का नाम क्या है?

उत्तर-नीरू और नीमा

प्रश्न-नीरू सारा जीवन किसके फेर में पड़े रहे?

उत्तर-साधु-संतों के फेर में

प्रश्न-कबीर अपने घर पर आधी-आधी रात तक क्या करते रहते थे?

उत्तर-सत्संग

प्रश्न-कौन कबीर की जान के पीछे पड़े हैं?

उत्तर-पंडित-मुल्ला

प्रश्न-कोतवाल की बीवी की क्या चीज़ चोरी हो गयी थी?

उत्तर-झुमका

प्रश्न-झुमका किसने वास्तव में चुराया था?

उत्तर-कोतवाल के साले ने

प्रश्न-झुमका चुराने का झूठा आरोप किन पर लगाया गया था?

उत्तर- बस्ती के लोगों पर

प्रश्न-बिजली खाँ और बोधन कहा गए थे?

उत्तर -मगहर

प्रश्न-किसान फरियाद लेकर किसके पास जाता है?

उत्तर-दीवान मियाँ भुवा

प्रश्न-बोधन को दिल्ली से किस लिए बुलावा आता है?

उत्तर-भजन-मंडली करने के लिए

प्रश्न-बोधन के साथ दिल्ली भजन मंडली में किसे साथ भेजने की बात कबीर कहते हैं?

उत्तर-बिजली खाँ को

प्रश्न-कबीर बोधन से किसे किसानों का दुख बताने को कहते हैं?

उत्तर- सुलतान को

प्रश्न-कबीर के गीत कौन गा रही थी?

उत्तर-लोई 

प्रश्न-लोई किसकी बेटी थी?

उत्तर-वनखंडी साधु

प्रश्न-लोई कबीर के सामने क्या रखती है?

उत्तर-दूध से भरा पात्र

प्रश्न-गंगा पार से कौन आने वाले थे जिसकी प्रतीक्षा कबीर कर रहे थे?

उत्तर-फकीर/रैदास

प्रश्न-वनखंडी साधु के घर कौन प्रवेश करते हैं?

उत्तर-रैदास

प्रश्न-कबीर के माता-पिता किससे उनका विवाह तय करते हैं?

उत्तर-लोई

प्रश्न-कबीर के घर वेवक्त कौन आ जाते हैं?

उत्तर-अवधूतों की मंडली

प्रश्न- कबीर और लोई किस दुविधा में पड़ जाते हैं?

उत्तर-कि अवधूतों के सत्कार की दुविधा में।

प्रश्न-कबीर और लोई अवधूतों का सत्कार क्यों नहीं कर पा रहे थे?

उत्तर-क्योंकि उनके घर में अन्न का एक दाना नहीं था।

प्रश्न-लोई किससे पैसे ले आती है?

उत्तर-साहूकार के बेटे से

 प्रश्न-लोई पर कौन आसक्त था?

उत्तर-साहूकार का बेटा।

प्रश्न-साहूकार का बेटा लोई को किस शर्त पर पैसे देता है?

उत्तर - कि लोई रात को उससे मिलने आएगी।

प्रश्न- कबीर किस तरह लोई को साहूकार के बेटे के पास लेकर जाते हैं?

उत्तर - कंधे पर बिठाकर




बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

SEP B.com logistics 3rd Sem कहे कबीर सुनो भाई साधो नोट्स

कहे कबीर सुनो भाई साधो 

संदर्भ-प्रसंग-व्याख्या 

पंक्तियाँ:

हमन है इश्क मस्ताना, हमन की होशियारी क्या,

रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या,

जो बिछड़े हैं पियारे से, भटकते दर भी दर फिरते,

हमारा यार है हम में, हमन को इंतज़ारी क्या,

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,

जो चलना राह नाजुक है, हमन सर बोझ भारी क्या।

१. संदर्भ (Reference)

प्रस्तुत पंक्तियाँ नरेंद्र मोहन द्वारा लिखित नाटक 'कहे कबीर सुनो भाई साधो' से उद्धृत हैं। यह नाटक संत कबीरदास के जीवन, सामाजिक विरोध और उनकी निर्गुण भक्ति के दर्शन पर आधारित है। ये पंक्तियाँ कबीर के मस्त मौला फकीर स्वभाव, उनकी आध्यात्मिक स्वतंत्रता और आत्म-साक्षात्कार की अवस्था को दर्शाती हैं।

२. प्रसंग (Context)

यह पद सामान्यतः कबीर की विचारधारा और उनके जीवन-दर्शन को प्रकट करता है। नाटक के भीतर यह उन क्षणों में प्रयुक्त हुआ होगा जब कबीर लोक-लाज और सांसारिक बंधनों को त्यागकर परमात्मा के प्रेम (इश्क मस्ताना) में लीन हो जाते हैं। यह पद उनकी वैराग्य भावना और अद्वैत सिद्धांत को दर्शाता है, जहाँ उन्हें ईश्वर बाहर कहीं खोजने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह उनके अपने भीतर ही मौजूद है। यह पंक्तियाँ उन लोगों के लिए भी एक संदेश है जो सांसारिक मोह को त्यागकर आध्यात्मिक मार्ग पर चलना चाहते हैं।

३. व्याख्या (Explanation)

इन पंक्तियों में कबीर (या नाटक में कबीर का चरित्र) अपनी आंतरिक अवस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं कि:

"हमन है इश्क मस्ताना, हमन की होशियारी क्या,"

हम तो ईश्वरीय प्रेम (इश्क) में डूबे हुए मस्त-मौला (मस्ताना) हैं। जब हृदय में सच्चा प्रेम और मस्ती समाई हुई है, तो हमें दुनियावी चालाकी (होशियारी) या समझदारी दिखाने की क्या आवश्यकता है? प्रेम की राह में ज्ञान और चालाकी का कोई काम नहीं है।

"रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या,"

हम तो स्वयं में आज़ाद (मुक्त) हैं, हमें इस संसार (जग) से यारी (दोस्ती/संबंध) रखने की कोई ज़रूरत नहीं है। जो आत्मा ईश्वर से जुड़ गई, उसके लिए संसार का मोह और संबंध तुच्छ हो जाता है।

"जो बिछड़े हैं पियारे से, भटकते दर भी दर फिरते, हमारा यार है हम में, हमन को इंतज़ारी क्या,"

जो लोग अपने प्रियतम (परमात्मा) से बिछड़ गए हैं, वे ही दर-दर (जगह-जगह) भटकते फिरते हैं। लेकिन हमारा यार (ईश्वर/प्रियतम) तो हमारे ही भीतर निवास करता है। जब ईश्वर हमारे अंदर ही है, तो हमें उसकी प्रतीक्षा (इंतज़ारी) करने या उसे बाहर खोजने की क्या आवश्यकता है? यह आत्म-ज्ञान का भाव है।

"कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से, जो चलना राह नाजुक है, हमन सर बोझ भारी क्या।"

कबीर कहते हैं कि ईश्वरीय प्रेम (इश्क) में मतवाला (माता) होकर, अपने दिल से द्वैत (दुई - मैं और तुम का भेद, जीवात्मा और परमात्मा का भेद) को दूर कर देना चाहिए।

क्योंकि मोक्ष की राह (राह नाजुक) अत्यंत बारीक और कठिन है, इसलिए हमें अपने सिर पर सांसारिक चिंता और अहंकार रूपी भारी बोझ (बोझ भारी) रखकर चलने की कोई ज़रूरत नहीं है। इस राह पर हल्के होकर (अहंकार रहित होकर) ही चला जा सकता है।

४. विशेष (Special Points)

रहस्यवाद और निर्गुण भक्ति: इन पंक्तियों में कबीर की निर्गुण भक्ति का रहस्यवादी स्वरूप स्पष्ट है, जहाँ ईश्वर को बाहर नहीं, बल्कि हृदय के भीतर खोजा जाता है।

फकीरी स्वभाव: यह पद कबीर के मस्त-मौला, बेपरवाह और सांसारिक बंधनों से मुक्त फकीरी स्वभाव को दर्शाता है।

अद्वैतवाद: "हमारा यार है हम में" की पंक्ति अद्वैत दर्शन का सार है—जीवात्मा और परमात्मा एक ही हैं।

प्रतीकात्मकता: 'इश्क मस्ताना' ईश्वरीय प्रेम का प्रतीक है, 'होशियारी' दुनियावी ज्ञान का, और 'बोझ भारी' अहंकार और मोह का प्रतीक है।


सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

हमारे जीवन में वनों का महत्व लघु प्रश्नोत्तर और संदर्भ प्रसंग व्याख्या


1 मनुस्मृति में वृक्ष काटने वाले को क्या कहा गया है?

 पापी

2 भारतीय संस्कृति का श्रेष्ठतम और सुन्दरतम उद्भव कहाँ हुआ?

 तपोवनों (या आश्रमों)

3 बुद्ध भगवान को किस वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था?

 वट-वृक्ष

4 महाभारत में वर्णित वन का नाम क्या है जिसे जलाया गया था?

 खांडव

5 वृक्षारोपण को आजकल क्या बना दिया गया है? 

फैशन

6 शकुन्तला वृक्षों को पानी दिए बिना स्वयं क्या ग्रहण नहीं करती थी?

 पानी (या जल)

7 सती सीता किस वन में रही थीं, जिसके कारण करुणापूर्ण वातावरण की छाप है? 

अशोक

8 हमारे पास अन्न न होने का मुख्य कारण क्या है?

 पानी (या जल)

9 कृष्ण भगवान ने अपना संदेश कहाँ सुनाया था? 

वृन्दावन

10 अग्निपुराण के अनुसार, वृक्ष लगाने वाला कितने पितरों को मोक्ष दिलाता है?

 तीस हज़ार (या 30,000)


संदर्भ-प्रसंग-व्याख्या (Reference to Context) के लिए महत्वपूर्ण नोट्स नीचे दिए गए हैं।

1. अवतरण: "हमारी संस्कृति में जो सुन्दरतम और श्रेष्ठतम है, उसका उद्भव आश्रमों और तपोवनों में हुआ था। हमारे संस्कारों पर नंदन-वन के सौन्दर्य और सती सीता के कारण अशोक वन के करुणापूर्ण वातावरण की छाप लगी हुई है। वृन्दावन को भी हम कैसे भूल सकते हैं, जहाँ कृष्ण भगवान ने अपना संदेश हमें सुनाया था।"

संदर्भ (Reference):

प्रस्तुत गद्यांश कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा लिखित निबंध "हमारे जीवन में वनों का महत्व" से लिया गया है।

प्रसंग (Context):

इस भाग में लेखक भारतीय संस्कृति के विकास में वनों और प्राकृतिक स्थानों के केंद्रीय महत्व को बता रहे हैं। वह सिद्ध करते हैं कि आश्रम और तपोवन ही हमारी सभ्यता के मूल प्रेरणास्रोत रहे हैं।

व्याख्या (Explanation):

लेखक बताते हैं कि भारतीय संस्कृति का जो भी सुंदर, महान और श्रेष्ठ पक्ष है, उसका जन्म जंगलों (आश्रमों) के शांत और पवित्र वातावरण में हुआ।

हमारी जीवनशैली और विचारों पर पौराणिक वनों का गहरा प्रभाव है—जैसे इंद्र का नंदन-वन (सौंदर्य का प्रतीक) और लंका का अशोक-वन (जहाँ सीता जी ने दुःख सहा, जो करुणा का प्रतीक है)।

अंत में, वृन्दावन का उल्लेख किया गया है, जहाँ भगवान कृष्ण ने अपनी लीलाएँ रची और ज्ञान का उपदेश दिया। यह दर्शाता है कि वन सिर्फ प्राकृतिक स्थान नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक केंद्र भी हैं।

2. अवतरण: "वृक्ष ही जल है और जल ही रोटी है और रोटी ही जीवन है।" यह नग्न सत्य है। आज सभी भारतीय हृदयों में असन्तोष भरा है, क्योंकि हमारे पास खाने को अन्न नहीं है। हमारे पास अन्न नहीं है, क्योंकि पानी संग्रह करने की पुरानी पद्धति हम हस्तगत नहीं कर सके। हमारे पास पानी नहीं है, वर्षा अनिश्चित है, क्योंकि हम तरु-महिमा भूल गए।"

संदर्भ (Reference):

प्रस्तुत गद्यांश कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा लिखित निबंध "हमारे जीवन में वनों का महत्व" से लिया गया है।

प्रसंग (Context):

इस अंश में लेखक वृक्ष, जल और अन्न के बीच के अटूट संबंध को स्थापित करते हुए भारतीय समाज में फैली गरीबी और असंतोष का कारण बता रहे हैं।

व्याख्या (Explanation):

लेखक एक सीधे और मूलभूत सत्य (नग्न सत्य) को प्रस्तुत करते हैं: वृक्ष जल को बचाते हैं, जल अन्न पैदा करता है, और अन्न ही जीवन का आधार है।

वह बताते हैं कि आज भारत में जो असंतुष्टि (असन्तोष) और भुखमरी (अन्न की कमी) है, उसका मूल कारण पानी की कमी है।

पानी की कमी इसलिए है क्योंकि हमने पानी को बचाने की पुरानी (पारंपरिक) पद्धतियाँ छोड़ दी हैं।

पानी की कमी और वर्षा की अनिश्चितता का अंतिम कारण है वृक्षों का महत्व (तरु-महिमा) भूल जाना। यानी, वनों की कटाई से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ गया है, जिसका सीधा असर जल और अन्न की उपलब्धता पर पड़ रहा है।

3. अवतरण: "जो मनुष्य लोगों के हित के लिए वृक्ष लगाता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है। वृक्ष लगाने वाला मनुष्य अपने 30,000 भूत और भावी पितरों को मोक्ष दिलाने में सहायक होता है।"

संदर्भ (Reference):

प्रस्तुत गद्यांश कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा लिखित निबंध "हमारे जीवन में वनों का महत्व" से लिया गया है।

प्रसंग (Context):

इस अंश में लेखक वृक्षारोपण के धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व पर प्रकाश डाल रहे हैं, जिसका उल्लेख पुराणों में मिलता है।

व्याख्या (Explanation):

लेखक अग्निपुराण के उद्धरण का उपयोग करते हुए वृक्ष लगाने के कार्य को एक महानतम पुण्य घोषित करते हैं।

यह कार्य केवल लौकिक लाभ (पर्यावरण) के लिए नहीं, बल्कि परलोक सुधारने के लिए भी है।

जो व्यक्ति जनता के कल्याण (लोगों के हित) की भावना से वृक्ष लगाता है, उसे मोक्ष (जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति) प्राप्त होता है।

सबसे बड़ी बात यह है कि वृक्षारोपण करने वाला व्यक्ति केवल स्वयं को नहीं, बल्कि अपने तीस हज़ार भूत (बीते हुए) और भावी (आने वाले) पितरों (पूर्वजों) को भी मुक्ति (मोक्ष) दिलाने में सहायता करता है। यह वृक्ष लगाने के महत्व को पीढ़ी-दर-पीढ़ी के कल्याण से जोड़ता है।

शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

गाथा कुरुक्षेत्र की

बड़े प्रश्नोत्तर वाले नोट्स 15 अंक वाले।

1. प्रश्नोत्तर 1: श्रीकृष्ण का कर्मयोग उपदेश और उसकी प्रासंगिकता (15 अंक)

प्रश्न:

मनोहर श्याम जोशी की 'गाथा कुरुक्षेत्र की' में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए कर्मयोग और स्थितप्रज्ञता के उपदेश की विस्तृत व्याख्या कीजिए। आज के जीवन में इस उपदेश की प्रासंगिकता कहाँ तक सिद्ध होती है?

उत्तर:

मनोहर श्याम जोशी ने 'गाथा कुरुक्षेत्र की' के तृतीय सर्ग में, मोहग्रस्त अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता के सारगर्भित दर्शन, अर्थात् कर्मयोग का उपदेश दिलवाया है। यह उपदेश न केवल युद्धभूमि के लिए, बल्कि आधुनिक जीवन के लिए भी एक शाश्वत दर्शन प्रस्तुत करता है।

क. कर्मयोग और स्थितप्रज्ञता का उपदेश:

स्वधर्म पालन का महत्व: कृष्ण सर्वप्रथम अर्जुन के मोह को कायरता बताते हैं और उसे स्वधर्म (क्षत्रिय धर्म) का पालन करने को कहते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि परिणाम चाहे जो भी हो (स्वर्ग या मही (पृथ्वी) का भोग), क्षत्रिय का परम कर्तव्य युद्ध करना ही है।

आत्मा की अमरता का ज्ञान: शोक से मुक्त करने के लिए कृष्ण आत्मा की अमरता और देह की नश्वरता का ज्ञान देते हैं। वे कहते हैं, "त्यागकर जीर्ण वस्त्रों को जैसे वस्त्र नवीन करते हैं धारण, वैसे ही आत्मा देह का चोला पुराना छोड़कर नया लेता है पहन।" अतः, किसी के लिए शोक करना अज्ञान है।

निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत: यह उपदेश का केंद्र है। कृष्ण कहते हैं, "कर्म पर अधिकार है तेरा किन्तु है नहीं कर्म के फल पर।" मनुष्य को फल की चिंता किए बिना केवल अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। फल की चाह ही बंधन है।

स्थितप्रज्ञता की अवस्था: कर्मों की कुशलता (आसक्तिरहित कर्म) ही योग है। जो व्यक्ति सिद्धि और असिद्धि को एक समान देखता है और मन की सभी कामनाओं को त्याग देता है, वही स्थितप्रज्ञ कहलाता है।

विनाश की श्रृंखला से चेतावनी: कृष्ण आसक्ति से होने वाले विनाश की मनोवैज्ञानिक श्रृंखला समझाते हैं: आसक्ति \rightarrow कामना \rightarrow क्रोध \rightarrow सम्मोह \rightarrow स्मृतिनाश \rightarrow बुद्धिनाश। बुद्धिनाश होते ही मनुष्य अपने पुरुषार्थ से भटक जाता है।

ख. आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता:

कृष्ण का यह उपदेश आज के प्रतिस्पर्धी और तनावग्रस्त युग में अत्यंत प्रासंगिक है:

कार्य-तनाव (Work Stress) का निवारण: आधुनिक जीवन में लोग परिणाम (प्रमोशन, वेतन) की चिंता में ही सबसे अधिक तनावग्रस्त होते हैं। कर्मयोग सिखाता है कि सफलता या असफलता पर नियंत्रण नहीं है, नियंत्रण केवल प्रयास की गुणवत्ता पर है। यह दृष्टिकोण 'बर्नआउट' (Burnout) से बचाता है।

कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी: स्वधर्म पालन का सिद्धांत बताता है कि हर व्यक्ति को अपने कार्यक्षेत्र (प्रोफेसर, डॉक्टर, व्यापारी) में अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए, भले ही तात्कालिक लाभ न हो।

भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence): 'आसक्ति से विनाश' की श्रृंखला क्रोध और सम्मोह पर नियंत्रण करना सिखाती है। यह आधुनिक भावनात्मक बुद्धिमत्ता के सिद्धांत के अनुरूप है कि आवेश में लिए गए निर्णय हमेशा बुद्धि का नाश करते हैं।

संतुलन और आत्म-नियंत्रण: स्थितप्रज्ञ की अवस्था आज के व्यक्ति को उपभोक्तावादी समाज में कामनाओं के जाल से बाहर निकलकर, सुख-दुःख में समान भाव रखने की प्रेरणा देती है।

2. प्रश्नोत्तर 2: भीष्म का नैतिक और भावनात्मक द्वंद्व तथा उनकी मृत्यु का औचित्य (15 अंक)

प्रश्न:

काव्य नाटक 'गाथा कुरुक्षेत्र की' के चतुर्थ और पंचम सर्गों के आधार पर पितामह भीष्म के नैतिक और भावनात्मक द्वंद्व का विश्लेषण कीजिए। उनकी मृत्यु शिखण्डी द्वारा क्यों सुनिश्चित की गई और बाणों की शैया पर उनका अंतिम व्यवहार उनके 'अजेय' व्यक्तित्व को कैसे स्थापित करता है?

उत्तर:

भीष्म पितामह महाभारत के सबसे पूज्य, ज्ञानी और वीर पात्र हैं, जो 'गाथा कुरुक्षेत्र की' में भी धर्म और प्रतिज्ञा के बीच फँसे हुए एक महान ट्रैजिक हीरो के रूप में चित्रित किए गए हैं।

क. नैतिक और भावनात्मक द्वंद्व:

भीष्म का द्वंद्व उनकी प्रतिज्ञा (सत्य) और धर्म (न्याय) के बीच था:

अर्थ-दासता का दुःख: युधिष्ठिर से अनुमति लेते समय, भीष्म अपने दुःख को प्रकट करते हैं: "अर्थ का है दास हर पुरुष... तो लडूँगा मैं कौरवों की ओर से ही, शुभकामनाएँ किन्तु मेरी तुम पाण्डवों के साथ हैं।" वे जानते थे कि न्याय पाण्डवों के पक्ष में है, पर कौरवों का अन्न खाने की प्रतिज्ञा (अर्थ-दासता) उन्हें अधर्म का साथ देने को विवश करती है।

नैतिक बंधन बनाम कर्तव्य: भीष्म की प्रतिज्ञा थी कि वे स्त्री पर अस्त्र नहीं उठाएँगे। इसी नैतिक बंधन के कारण वे जानते थे कि उनकी मृत्यु का रहस्य केवल शिखण्डी है। उन्होंने अपनी मृत्यु का रहस्य युधिष्ठिर को बताकर धर्म की स्थापना का मार्ग खोल दिया, जबकि स्वयं अधर्मियों की रक्षा का कर्तव्य निभाते रहे।

अभिमन्यु से लगाव: युद्ध के प्रथम दिन जब पंद्रह वर्षीय अभिमन्यु अकेले कौरव सेना का सामना करता है, तो भीष्म उसे 'वीर तू है पुत्र असली पार्थ का' कहकर साधुवाद देते हैं। यह उनका भावनात्मक लगाव दर्शाता है, जो युद्ध की क्रूरता से भी बड़ा था।

ख. शिखण्डी द्वारा मृत्यु का औचित्य:

भीष्म की मृत्यु शिखण्डी द्वारा सुनिश्चित की गई, जो निम्न कारणों से उचित थी:

प्रतिज्ञा का पालन: भीष्म की यह दृढ़ प्रतिज्ञा थी कि वे स्त्री पर शस्त्र नहीं उठाएंगे। शिखण्डी को पूर्वजन्म की अम्बालिका मानकर, भीष्म ने उसके सामने अस्त्र त्याग दिया। इस तरह, उनकी मृत्यु ने उनकी नैतिक प्रतिज्ञा को खंडित होने से बचा लिया।

मुक्ति का मार्ग: भीष्म स्वयं युधिष्ठिर से कहते हैं कि शिखण्डी को लाकर उनका वध कर दिया जाए ताकि उन्हें इस संसार से मुक्ति मिल सके। यह उनकी मृत्यु को त्याग और स्व-इच्छा का रूप देता है, न कि केवल हार का।

ग. बाणों की शैया पर 'अजेय' व्यक्तित्व:

बाणों की शैया पर भीष्म का व्यवहार उनके 'अजेय लौह पुरुष' व्यक्तित्व को सिद्ध करता है:

इच्छा-मृत्यु का आत्म-नियंत्रण: बाणों से बिंधे होने पर भी वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में प्राण रोके रखते हैं। यह उनकी इच्छा-मृत्यु के वरदान और आत्म-नियंत्रण की पराकाष्ठा है, जिसे कोई सामान्य योद्धा नहीं कर सकता।

वीर के अनुरूप सेवा: वे दुर्योधन द्वारा लाए गए कोमल तकिये और शीतल जल को ठुकरा देते हैं। वे अर्जुन से कहते हैं कि जब शैया बाणों की है, तो सिराहाना भी बाणों का ही होना चाहिए।

दिव्य प्यास: वे अपनी प्यास बुझाने के लिए अर्जुन से पार्जन्य अस्त्र से गंगा की धारा निकालने को कहते हैं। यह मांग दर्शाती है कि उनका शरीर भले ही घायल हो, पर उनकी आत्मा और उनकी इच्छाएँ अभी भी दिव्य थीं।

इस प्रकार, भीष्म की मृत्यु केवल एक योद्धा का अंत नहीं, बल्कि प्रतिज्ञा, त्याग और अटूट आत्म-संयम के माध्यम से धर्म की विजय सुनिश्चित करने वाले एक महानायक की गरिमापूर्ण विदाई थी।

गाथा कुरुक्षेत्र की part 4 लघु प्रश्नोत्तर और संदर्भ प्रसंग व्याख्या

लघु प्रश्नोत्तरी 

1. भीष्म के धनुष को किसने काटा?

 अर्जुन

2. भीष्म को कौन-सा अस्त्र मारने के लिए कृष्ण स्वयं जाने को तैयार हो जाते हैं?

 चक्र

3. कृष्ण ने अर्जुन को किसके सिर का धनुष काटने को कहा? 

भीष्म

4. भीष्म ने कृष्ण को 'युद्धश्रेष्ठ' कहकर क्या स्वीकार किया? 

नमन

5. अर्जुन ने कृष्ण को क्या न करने के लिए वचनबद्ध बताया? 

युद्ध

6. भीष्म के अनुसार अब किसका अंतिम समय समीप है? 

अवसान दिवस

7. भीष्म को किसका वरदान प्राप्त था?

 इच्छा-मृत्यु

8. भीष्म किस ऋतु की प्रतीक्षा में प्राण रोके हुए थे?

 उत्तरायण

9. भीष्म ने अर्जुन से सिर के लिए क्या बनवाने को कहा? 

सिराहाना (तकिया)

10. भीष्म की देह किस पर लेटी थी?

 बाणों की शैया

11. भीष्म की प्यास किसने बुझाई?

 अर्जुन

12. भीष्म की प्यास बुझाने के लिए अर्जुन ने कौन-सा अस्त्र चलाया? 

पार्जन्य

13. पार्जन्य अस्त्र से निकली धारा कौन-सी थी?

 गंगा मैया

14. दुर्योधन ने भीष्म से किस पर तकिया लगाने को कहा था? 

मोटे तकिये

15. भीष्म का लोहा कवच किसने बाँध रखा था? 

बाणों

16. भीष्म का वध करने कौन आगे आया? 

शिखण्डी

17. शिखण्डी को किसकी आड़ बताया गया?

 अर्जुन

18. शिखण्डी पूर्वजन्म में कौन थी?

 अम्बालिका

19. शिखण्डी को भीष्म क्या नहीं मानते थे? 

अस्त्र

20. भीष्म के अनुसार दुर्योधन को किसमें भी बुद्धि विपरीत थी?

 विनाशकाल



2. संदर्भ-प्रसंग-व्याख्या (Reference-Context-Explanation)

नोट 1: कृष्ण द्वारा प्रतिज्ञा भंग का प्रयास और अर्जुन की दृढ़ता

उद्धरण:

कृष्ण: "तुमसे कुछ भी नहीं होगा, मैं ही अब जाकर लड़ता हूँ।"

भीष्म: "युद्धश्रेष्ठ कृष्ण! करें स्वीकार नमन मुझ गांगेय भीष्म का, मुझे मार दें, तार दें अब, उपकार सबका है उसी में।"

अर्जुन: "नहीं कृष्ण नहीं, आप तो वचनबद्ध हैं नहीं लड़ने को इस युद्ध में, पितामह को मारने का भार मेरा है, संहार में ही करूँगा उनका।" (पृष्ठ 40)

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: भीष्म के युद्ध कौशल से हताश अर्जुन को देखकर कृष्ण का युद्ध करने के लिए तत्पर होना।

ख. प्रसंग (Context):

भीष्म के सामने पाण्डवों की सेना कमज़ोर पड़ रही थी। अर्जुन स्वयं उनके बाणों को झेल नहीं पा रहे थे। इससे निराश होकर, कृष्ण अपनी प्रतिज्ञा (कि वे युद्ध में अस्त्र नहीं उठाएँगे) भंग करके भी भीष्म को मारने के लिए तत्पर हो जाते हैं।

भीष्म कृष्ण के इस भाव की सराहना करते हैं और इसे 'उपकार' बताते हैं, जबकि अर्जुन कृष्ण को उनकी प्रतिज्ञा की याद दिलाकर उन्हें रोकते हैं और स्वयं ही यह कार्य पूरा करने की दृढ़ता दिखाते हैं।

ग. व्याख्या (Explanation):

कर्तव्य का द्वंद्व: कृष्ण के लिए अर्जुन का धर्म (युद्ध करना) और धर्म की स्थापना उनकी व्यक्तिगत प्रतिज्ञा से बड़ी थी। वे भीष्म को मारकर धर्म की स्थापना करना चाहते थे।

भीष्म का त्याग: भीष्म, कृष्ण को 'युद्धश्रेष्ठ' कहकर स्वीकार करते हैं कि उनके हाथों मरना ही उनका और सबका कल्याण है। यह उनका अंतिम त्याग था।

अर्जुन की दृढ़ता: अर्जुन जानते थे कि पितामह का वध उनकी नियति है। वह कृष्ण को उनकी प्रतिज्ञा का सम्मान करने को कहते हैं और स्वयं ही पितामह को मारने का भार उठाते हैं, जो उनके क्षत्राणी धर्म की पुनर्स्थापना को दर्शाता है।

नोट 2: भीष्म का शिखंडी के सामने अस्त्र त्याग

उद्धरण:

भीष्म: "तो सुनो युधिष्ठिर! उठाता मैं नहीं हूँ अस्त्र स्त्रियों पर... जन्मी वही शिखण्डी रूप में है। तो लेकर लौट उसको कल अर्जुन लड़े मुझसे और वध कर मेरा, दिला दे मुक्ति मुझको इस संसार से।"

दुर्योधन: "शिखण्डी की आड़ में कायर अर्जुन भीष्म से लड़ रहा है। रोको उसे दुःशासन!" (पृष्ठ 42)

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: भीष्म द्वारा अपनी मृत्यु का रहस्य युधिष्ठिर को बताने के बाद युद्ध में शिखंडी का प्रवेश और भीष्म का अस्त्र त्यागना।

ख. प्रसंग (Context):

युधिष्ठिर की सलाह पर पाण्डव, शिखण्डी को आगे करते हैं। शिखण्डी पूर्वजन्म में अम्बालिका थीं, जिसका हरण भीष्म ने किया था और जो बाद में स्त्री रूप में जन्म लेकर भीष्म की मृत्यु का कारण बनीं।

भीष्म की नैतिकता (स्त्रियों पर अस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा) के कारण वे शिखण्डी के सामने हथियार डाल देते हैं, जिससे अर्जुन उनकी आड़ लेकर उन पर बाण चला पाते हैं।

ग. व्याख्या (Explanation):

प्रतिज्ञा का पालन: भीष्म के लिए अपनी प्रतिज्ञा (स्त्रियों पर अस्त्र न उठाना) जीवन से बड़ी थी। शिखण्डी के सामने अस्त्र न उठाकर उन्होंने अपनी नैतिकता और क्षत्रिय धर्म के एक विशिष्ट नियम का पालन किया।

दुर्योधन का दृष्टिकोण: दुर्योधन इस कृत्य को 'कायरता' मानता है और शिखण्डी को केवल 'आड़' कहता है, क्योंकि वह भीष्म के गहन नैतिक सिद्धांतों को समझने में असमर्थ है।

मुक्ति की इच्छा: भीष्म युधिष्ठिर को स्वयं ही कहते हैं कि शिखण्डी को लाकर उनका वध किया जाए ताकि उन्हें संसार के इस बंधन और अर्थ की दासता से मुक्ति मिल सके।

नोट 3: बाणों की शैया पर भीष्म की अंतिम इच्छा

उद्धरण:

भीष्म: "इच्छा-मृत्यु का वरदान मुझको प्राप्त है इसलिए शुभ उत्तरायण की प्रतीक्षा में रोके हुए हूँ प्राण अपने... सिराहाना भी दिया वैसा जैसा बिछौना था।... नादान हो तुम, नहीं समझा, अर्जुन तू ही बुझा अब प्यास मेरी।" (पृष्ठ 44, 45)

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: बाणों से बिंधकर पृथ्वी पर गिरने के बाद भीष्म की अंतिम इच्छाएँ और उनका असाधारण आत्म-संयम।

ख. प्रसंग (Context):

भीष्म बाणों की शैया पर गिर चुके हैं। दुर्योधन उन्हें मोटे-मोटे तकिये और शीतल जल देकर उनकी प्यास बुझाने का प्रयास करता है, पर भीष्म यह सब अस्वीकार कर देते हैं।

भीष्म, अर्जुन से वीर के अनुरूप अंतिम संस्कार की माँग करते हैं।

ग. व्याख्या (Explanation):

इच्छा-मृत्यु और उत्तरायण: भीष्म धर्मशास्त्र के अनुसार, उत्तरायण (शुभ समय) में ही प्राण त्यागना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपनी इच्छा-मृत्यु के वरदान से अपने प्राणों को रोक रखा था।

वीर का सम्मान: भीष्म दुर्योधन द्वारा दिए गए कोमल तकिये और सामान्य जल को अस्वीकार करते हैं। उनका कथन था कि जब शैया बाणों की है, तो सिराहाना (तकिया) भी बाणों का ही होना चाहिए।

प्यास बुझाना: भीष्म अपनी प्यास बुझाने के लिए अर्जुन से पार्जन्य अस्त्र से गंगा मैया की धारा निकालने को कहते हैं। यह न केवल उनकी प्यास बुझाता है, बल्कि यह सिद्ध करता है कि एक वीर की अंतिम सेवा भी एक वीर ही कर सकता है, और केवल दिव्य शक्तियों द्वारा ही उनकी इच्छा पूरी हो सकती है।

गाथा कुरुक्षेत्र की लघु प्रश्नोत्तरी और संदर्भ प्रसंग व्याख्या

 क्र.सं. प्रश्न (Question) उत्तर (Answer)

1. अर्जुन युद्ध में किन्हें देखकर रुकने को कहते हैं? 

कौरवों को

2. अर्जुन के अनुसार, अपनों को मारकर क्या लगेगा?

 पाप

3. अर्जुन को कौन सा अस्त्र हाथ से छूटता हुआ महसूस हो रहा है? 

गाण्डीव

4. श्रीकृष्ण अर्जुन को किस से मुक्त होकर युद्ध करने को कहते हैं?

 शोक

5. 'स्वधर्म पालन परम कर्तव्य सबका' यह कथन किसका है? 

कृष्ण

6. युद्ध में मारे जाने पर क्षत्रिय कहाँ पाएगा?

 स्वर्ग

7. हारकर भी जीतने पर क्षत्रिय क्या भोगेगा? 

मही (पृथ्वी)

8. श्रीकृष्ण के अनुसार मनुष्य का किस पर अधिकार है? 

कर्म

9. श्रीकृष्ण ने अर्जुन को किसकी चाह न करने को कहा? 

फल

10. कर्मों की कुशलता को ही क्या कहा गया है? 

योग

11. 'स्थितप्रज्ञ' किसे कहते हैं? 

कामनाएँ त्यागने वाले को

12. आसक्ति से क्या जन्मती है? 

कामना

13. कामना से क्या उपजता है? 

क्रोध

14. स्मृति नष्ट होने से किसका नाश होता है? 

बुद्धि

15. श्रीकृष्ण के अनुसार क्या नश्वर है? 

देह

16. श्रीकृष्ण के अनुसार क्या अमर है? 

आत्मा

17. आत्मा किसे त्यागकर नया चोला लेती है? 

पुराना

18. 'गाण्डीव' किसका धनुष है? 

अर्जुन

19. 'गाथा कुरुक्षेत्र की' काव्य नाटक के रचयिता कौन हैं? 

मनोहर श्याम जोशी

20. भीष्म के अनुसार हर पुरुष किसका दास है?

 अर्थ

21. भीष्म ने युधिष्ठिर को किसके पक्ष से लड़ने की बात कही? 

कौरवों

22. युधिष्ठिर युद्ध शुरू करने से पहले किसके पास आशीर्वाद लेने गए?

 भीष्म

23. द्रोणाचार्य को शोकवश क्या गिरा देने पर मारा जा सकता है? 

अस्त्र

24. भीष्म के भीषण संग्राम से कौन 'त्राहि-त्राहि' कर उठेगा? 

पाण्डवगण

25. अभिमन्यु किसका पुत्र था? 

अर्जुन

2. संदर्भ-प्रसंग-व्याख्या (Reference-Context-Explanation) के लिए नोट्स

नोट 1: अर्जुन का मोह और स्वधर्म का उपदेश

उद्धरण:

"है कृष्ण! योद्धा जहाँ से कौरवों के दिख सकें सब-के-सब मुझको, रथ रोको वहीं... ये तो सभी अपने सगे हैं... अधम पाप कुलनाश का लूँ मोल इस अन्तिम घड़ी?"

कृष्ण: "उचित है और शोक से हो मुक्त तेरा युद्ध करना है स्वधर्म पालन परम कर्तव्य सबका और तुज क्षत्रिय का तो स्वधर्म युद्ध ही है।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

सर्ग: तृतीय सर्ग

ख. प्रसंग (Context):

युद्धभूमि में अर्जुन ने अपने सामने पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और अन्य संबंधियों को देखा। मोह और अवसाद (शोक) से ग्रसित होकर वह कृष्ण से युद्ध रोकने और कुलनाश के पाप से बचने की बात कहते हैं।

कृष्ण यहाँ अर्जुन को कर्तव्य (स्वधर्म) का सार समझाते हैं और उसे शोक, मोह और कायरता त्यागकर युद्ध करने का उपदेश देते हैं।

ग. व्याख्या (Explanation):

मोह और पाप: अर्जुन सगे-संबंधियों को देखकर कुलनाश के पाप से डर रहे हैं और क्षत्रिय धर्म त्यागकर भी शांति चाहते हैं।

स्वधर्म की प्रधानता: कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि अर्जुन का स्वधर्म (जन्म और कर्म के अनुसार कर्तव्य) है युद्ध करना। क्षत्रिय के लिए धर्म की रक्षा हेतु युद्ध करना ही परम कर्तव्य है।

परिणाम से मुक्ति: वे समझाते हैं कि युद्ध में वीरगति मिली तो स्वर्ग, और जीत गए तो पृथ्वी का सुख मिलेगा। अतः क्षत्रिय के लिए युद्ध किसी भी हाल में कल्याणकारी है।

नोट 2: आत्मा की अमरता और देह की नश्वरता

उद्धरण:

"तो मृत्यु क्या है? त्यागकर जीर्ण वस्त्रों को जैसे वस्त्र नवीन करते हैं धारण, वैसे ही आत्मा देह का चोला पुराना छोड़कर नया लेता है पहन... देह नश्वर है, अमर है आत्मा न कोई मारता है, और न मरता है कोई।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: मोहग्रस्त अर्जुन को आत्मा-परमात्मा का ज्ञान देना।

ख. प्रसंग (Context):

अर्जुन मृतकों और जीवितों के लिए शोक व्यक्त करते हैं। कृष्ण उन्हें समझाते हैं कि ज्ञानीजन कभी भी मृतकों या जीवितों के लिए शोक नहीं करते, क्योंकि उन्हें सत्य का ज्ञान होता है।

कृष्ण यहाँ गीता के मूल सिद्धांत को सरल और काव्यात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हैं, ताकि अर्जुन को मृत्यु के भय से मुक्ति मिल सके।

ग. व्याख्या (Explanation):

मृत्यु की परिभाषा: कृष्ण मृत्यु को विनाश नहीं, बल्कि परिवर्तन मानते हैं। जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्यागकर नए पहनता है, उसी तरह आत्मा (अमर तत्व) जीर्ण देह (नश्वर चोला) को त्यागकर नया शरीर धारण करती है।

आत्मा के गुण: आत्मा को नित्य (सदा रहने वाला) बताया गया है, जिसे अस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, और वायु सुखा नहीं सकती।

शोक का औचित्य: चूंकि आत्मा न जन्म लेती है न मरती है, इसलिए किसी भी 'देह' के लिए शोक करना अज्ञानता है।

नोट 3: कर्मयोग का सिद्धांत

उद्धरण:

"कर्म पर अधिकार है तेरा किन्तु है नहीं कर्म के फल पर। फल की चाह मत कर, बंध कर्म के फल से।... कर्म कर तू, कर्मों की कुशलता ही योग कहलाती है पार्थ! स्थितप्रज्ञ बन।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: कृष्ण द्वारा अर्जुन को निष्काम कर्म और योग का उपदेश।

ख. प्रसंग (Context):

अर्जुन के मन में यह सवाल आता है कि यदि फल की चिंता नहीं करनी, तो कर्म किसके लिए किया जाए। कृष्ण तब उन्हें फल की आसक्ति से मुक्त होकर कर्म करने का मार्ग बताते हैं।

यह अंश कर्मयोग के मूल सिद्धांत—'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'—को स्थापित करता है।

ग. व्याख्या (Explanation):

कर्म बनाम फल: कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने पर है, न कि कर्म के परिणाम पर। फल की इच्छा ही बंधन का कारण बनती है।

योग और कुशलता: 'कर्मों की कुशलता' (अर्थात् आसक्तिरहित होकर, ध्यानपूर्वक और श्रेष्ठ ढंग से कर्म करना) ही योग कहलाता है।

स्थितप्रज्ञ: स्थितप्रज्ञ वह ज्ञानी पुरुष है जिसने अपने मन की सभी कामनाओं को त्याग दिया है और जो सिद्धि (सफलता) और असिद्धि (असफलता) को समान दृष्टि से देखता है। फल की इच्छा न करने से ही मनुष्य स्थितप्रज्ञ बन सकता है।

नोट 4: आसक्ति से विनाश तक की श्रृंखला

उद्धरण:

"आसक्ति से जन्मती कामना है और काम से अनन्तर उपजता क्रोध है। क्रोध से सम्मोह होता है, होश रहता नहीं किसी बात का। स्मृति गड़बड़ाती है, स्मृतिनाश से बुद्धिनाश होता है और बुद्धिनष्ट मनुष्य पुरुषार्थ तो फिर कर नहीं सकता।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

प्रसंग: कृष्ण द्वारा आसक्ति (Attachment) के दुष्परिणामों की चेतावनी।

ख. प्रसंग (Context):

कृष्ण स्थितप्रज्ञ के गुणों का वर्णन करते हुए बताते हैं कि कैसे विषयों पर ध्यान लगाने वाले मूर्ख पुरुष आसक्ति के जाल में फँस जाते हैं, जो अंततः उनके विनाश का कारण बनता है।

यह अंश विनाश की मनोवैज्ञानिक श्रृंखला का वर्णन करता है।

ग. व्याख्या (Explanation):

मूल कारण: इस श्रृंखला का मूल कारण विषयों (सांसारिक सुख) के प्रति आसक्ति (मोह/Attachment) है।

श्रृंखला: आसक्ति \rightarrow कामना (इच्छा) \rightarrow क्रोध \rightarrow सम्मोह (भ्रम/Bewilderment) \rightarrow स्मृतिनाश (याददाश्त का कमजोर होना) \rightarrow बुद्धिनाश (विवेक का नाश) \rightarrow पुरुषार्थ (उचित कर्म) न कर पाना \rightarrow पतन/विनाश।

सार: मनुष्य का विवेक (बुद्धि) तब नष्ट हो जाता है जब वह मोह के कारण होश खो बैठता है। बुद्धिनष्ट व्यक्ति अपने कर्तव्य (पुरुषार्थ) का पालन नहीं कर सकता, जिससे उसका पतन निश्चित है।

नोट 5: भीष्म की प्रतिज्ञा और अर्थ-दासता

उद्धरण:

"अजेय है पितामह! प्रणाम हो स्वीकार मेरा, युद्ध अब मुझे करना पड़ेगा आपसे अनुमति दे और आशीर्वाद भी... अर्थ ने दिया है मुझको कौरवों के पक्ष से हाय, अर्थ का है दास हर पुरुष जबकि स्वयं अर्थ किसी का दास होता नहीं है। तो लड़ूँगा मैं कौरवों की ओर से ही शुभकामनाएँ किन्तु मेरी तुम पाण्डवों के साथ हैं।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

सर्ग: चतुर्थ सर्ग

ख. प्रसंग (Context):

युद्ध शुरू होने से पहले, युधिष्ठिर कौरव शिविर में जाकर अपने पूजनीय गुरुजनों (भीष्म और द्रोणाचार्य) से युद्ध की अनुमति और आशीर्वाद लेते हैं।

भीष्म युधिष्ठिर को आशीर्वाद देते हैं, लेकिन अपनी मजबूरी का वर्णन करते हुए बताते हैं कि वे किस कारण कौरवों के पक्ष से लड़ेंगे।

ग. व्याख्या (Explanation):

धर्म और अर्थ का द्वंद्व: भीष्म जानते हैं कि धर्म पाण्डवों के पक्ष में है, इसीलिए उनकी शुभकामनाएँ उनके साथ हैं।

अर्थ-दासता: भीष्म अपनी भीषण प्रतिज्ञा के कारण कौरवों के दिए हुए अन्न (अर्थ) के ऋणी हैं। वह स्वीकार करते हैं कि संसार में हर पुरुष कहीं न कहीं 'अर्थ का दास' होता है, और यही दासता उन्हें पाण्डवों के विरुद्ध लड़ने को विवश करती है।

युद्ध की अनुमति: युधिष्ठिर उनसे पूछते हैं कि उन्हें कैसे हराया जाए। भीष्म धर्म की रक्षा के लिए उन्हें अपनी मृत्यु का रहस्य बता देते हैं, लेकिन स्वयं लड़ना नहीं छोड़ते।

नोट 6: द्रोणाचार्य की मृत्यु का रहस्य

उद्धरण:

"राजन! जब तक हाथ में हो अस्त्र मेरे, मार ही सकता हूँ, मर नहीं सकता कभी। हाँ, यदि कभी किसी शोकवश मैं होश खो बैठूँ, गिरा दूँ अस्त्र, तब मार तुम मुझको सकोगे।" 

क. संदर्भ (Reference):

रचना: गाथा कुरुक्षेत्र की (काव्य नाटक)

रचयिता: मनोहर श्याम जोशी

सर्ग: चतुर्थ सर्ग

ख. प्रसंग (Context):

युधिष्ठिर, भीष्म से अनुमति लेने के बाद, गुरु द्रोणाचार्य के पास जाते हैं और उनसे भी युद्ध की अनुमति और आशीर्वाद माँगते हैं।

युधिष्ठिर उनसे भी यह पूछते हैं कि वे उन्हें युद्ध में कैसे पराजित कर सकते हैं (क्योंकि उन्हें मारना असंभव लग रहा था)। द्रोणाचार्य तब अपनी मृत्यु का एकमात्र रहस्य बताते हैं।

ग. व्याख्या (Explanation):

अजेय योद्धा: द्रोणाचार्य स्वयं की अजेयता को इस शर्त से जोड़ते हैं कि जब तक उनके हाथ में अस्त्र है, तब तक उन्हें कोई मार नहीं सकता। यह उनकी तपस्या और युद्ध कौशल का परिणाम था।

शोक और अस्त्र: उनकी मृत्यु का एकमात्र मार्ग मनोवैज्ञानिक था—यदि वे किसी गहरे शोक में अपने होश (सतर्कता/एकाग्रता) को खो दें और स्वयं ही अस्त्र त्याग दें।

नैतिकता और युद्ध-धर्म: द्रोणाचार्य अपनी मृत्यु का रहस्य बताकर भी गुरु-धर्म निभाते हैं, जिससे पाण्डवों को धर्म की जीत सुनिश्चित करने का मार्ग मिल जाता है।


अजेय लोह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल संदर्भ प्रसंग व्याख्या

 2. संदर्भ-प्रसंग-व्याख्या (Reference-Context-Explanation) के लिए नोट्स

उद्धरण 1: वल्लभ भाई की दृढ़ता

पाठ से उद्धरण:

"सरदार पटेल लौहपुरुष कहे जाते थे। उनका यह विशेषण पूरी तरह सार्थक था। उनके संकल्प में वज्र की सी दृढ़ता थी। जिस काम को कर लेने का वह निश्चय कर लेते थे, वह होकर ही रहता था। वह कम बोलते थे पर जो कुछ वह बोलते थे, उसके प्रत्येक शब्द में अर्थ होता था। इसलिए उनका एक-एक शब्द ध्यान से सुना जाता था।"

 संदर्भ (Reference):

लेखक: सत्यकाम विद्यालंकार

पाठ/शीर्षक: अजेय लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जीवनी

पृष्ठभूमि: यह उद्धरण सरदार पटेल के व्यक्तित्व, विशेष रूप से उनकी दृढ़ता और उनके 'लौह पुरुष' कहलाने के औचित्य का वर्णन करता है।

प्रसंग (Context):

विषय-वस्तु: इस अंश में बताया गया है कि पटेल न केवल भारत को स्वतंत्रता दिलाने के प्रयासों में अग्रणी थे, बल्कि स्वतंत्रता के बाद लगभग 600 देशी रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करने जैसे असंभव कार्य को उन्होंने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति के बल पर संभव कर दिखाया।

मुख्य विचार: लेखक बताता है कि पटेल का 'लौह पुरुष' उपनाम उनकी इच्छाशक्ति की दृढ़ता और कम बोलने पर भी प्रभावी होने की विशेषता के कारण पूरी तरह उचित था।

व्याख्या (Explanation):

दृढ़ संकल्प: पटेल की तुलना वज्र से की गई है, जो उनके संकल्प की अटूट प्रकृति को दर्शाता है। वे जिस कार्य को करने का निश्चय करते थे, उसे हर हाल में पूरा करते थे।

शब्दों का मूल्य: वे अनावश्यक रूप से नहीं बोलते थे। उनके हर शब्द में गंभीर अर्थ छिपा होता था, जिससे उनके अनुयायी और विरोधी दोनों उनके कथनों को महत्व देते थे और उन पर ध्यान देते थे।

सार्थकता: लेखक निष्कर्ष निकालता है कि उनकी यह दृढ़ता और प्रभावी व्यक्तित्व ही उन्हें 'लौह पुरुष' बनाता है, न कि कोई उपाधि।

उद्धरण 2: बारडोली सत्याग्रह की सफलता

पाठ से उद्धरण:

"बारडोली का सत्याग्रह वल्लभभाई की ऐसी सफलता थी, जिसने उन्हें अखिल भारतीय नेताओं की ला खड़ा किया। इस सत्याग्रह में सफलता मिलने के कारण ही वह 'सरदार' कहलाने लगे थे। इस आन्दोलन का कारण यह था कि बारडोली के किसानों के लगान में बीस प्रतिशत वृद्धि कर दी गई थी।... इस सत्याग्रह को पटेल ने इतनी कुशलता से किया कि सरकार को कुछ ही समय में घुटने टेक देने पड़े।"


संदर्भ (Reference):

लेखक: सत्यकाम विद्यालंकार

पाठ/शीर्षक: अजेय लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जीवनी

पृष्ठभूमि: यह अंश बारडोली सत्याग्रह (1928) के महत्व और इस आंदोलन में वल्लभ भाई की नेतृत्व क्षमता को उजागर करता है, जिसके कारण उन्हें 'सरदार' की उपाधि मिली।

प्रसंग (Context):

विषय-वस्तु: अंग्रेज़ी सरकार ने बारडोली के किसानों के लगान में 20 प्रतिशत की अनुचित वृद्धि कर दी थी। किसानों के प्रतिरोध के बाद, वल्लभ भाई ने इस अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया।

मुख्य विचार: लेखक यह बताता है कि यह आंदोलन केवल किसानों की माँगों की लड़ाई नहीं थी, बल्कि यह वल्लभ भाई की राजनीतिक कुशलता का प्रमाण था, जिसने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।

व्याख्या (Explanation):

नेतृत्व और उपाधि: बारडोली सत्याग्रह की अभूतपूर्व सफलता ने वल्लभ भाई को 'सरदार' (नेता/प्रमुख) का उपनाम दिया। यह उपाधि उन्हें किसी ने दी नहीं थी, बल्कि उनकी नेतृत्व क्षमता ने उन्हें यह स्थान दिलाया।

रणनीतिक कुशलता: पटेल ने किसानों को एकजुट किया और उनसे लगान देने से मना करने को कहा। उनकी इस कुशल रणनीति और किसानों की दृढ़ता के सामने ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और लगान वृद्धि वापस लेनी पड़ी।

अखिल भारतीय पहचान: इस जीत ने उन्हें क्षेत्रीय नेता से उठाकर राष्ट्रीय राजनीति में अग्रिम पंक्ति के नेताओं के बराबर ला खड़ा किया।

​उद्धरण 3: निजी दुःख पर कर्तव्य-बोध

पाठ से उद्धरण:

​"पत्नी की बीमारी की चिंता होते हुए भी वल्लभभाई पहले से स्वीकार किए हुए मुकदमों की पैरवी करने जाते रहे। मुवक्किलों को उन्होंने भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ा। एक दिन जब वह अदालत में एक मुकदमे की पैरवी कर रहे थे, उसी समय उन्हें एक तार मिला, जिसमें उनकी पत्नी की मृत्यु का दुःखद संवाद था। उस तार को पढ़कर उन्होंने जेब में रख लिया और पहले की भाँति ही मुकदमे की बहस करते रहे।"

संदर्भ (Reference):

  • लेखक: सत्यकाम विद्यालंकार
  • पाठ/शीर्षक: अजेय लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जीवनी
  • पृष्ठभूमि: यह अंश वल्लभ भाई पटेल के युवाकाल का है, जब वे एक वकील के रूप में काम कर रहे थे। यह उनकी असाधारण आत्म-संयम और कर्तव्यपरायणता को दर्शाता है।

प्रसंग (Context):

  • विषय-वस्तु: पटेल की पत्नी का स्वर्गवास प्लेग के कारण हो गया था, जब वे केवल 33 वर्ष के थे। अपनी पत्नी की मृत्यु की खबर उन्हें अदालत में एक महत्वपूर्ण मुकदमे की पैरवी के दौरान मिली।
  • मुख्य विचार: लेखक इस घटना के माध्यम से यह स्थापित करता है कि पटेल के लिए निजी दुःख से कहीं अधिक महत्वपूर्ण कर्तव्य था, जिसे उन्होंने अपने मुवक्किलों के प्रति निभाना ज़रूरी समझा। विपत्तियों को भी चुपचाप सहने की क्षमता ही उन्हें 'लौह पुरुष' बनाती है।

​व्याख्या (Explanation):

  • अद्वितीय आत्म-संयम: मृत्यु का समाचार मिलने पर भी विचलित न होना, उस तार को चुपचाप जेब में रख लेना और बहस जारी रखना उनकी मानसिक दृढ़ता का चरम उदाहरण है।
  • कर्तव्यनिष्ठा: एक वकील के रूप में, वे अपने मुवक्किलों (क्लाइंट्स) के भविष्य को अपने दुःख की वजह से खतरे में नहीं डालना चाहते थे। यह उनके पेशेवर नैतिकता को दर्शाता है।
  • 'लौह पुरुष' का आधार: यह घटना बताती है कि उन्हें 'लौह पुरुष' का विशेषण केवल राजनीतिक सफलता के कारण नहीं मिला, बल्कि उनकी आंतरिक शक्ति और दुःख को सहने की क्षमता के कारण भी मिला।

​उद्धरण 4: देशी रियासतों का विलय

पाठ से उद्धरण:

​"अंग्रेज़ों ने जब भारत को स्वतंत्र किया तो उन्होंने देशी राज्यों के साथ हुए सब समझौते और सन्धियाँ समाप्त कर दी। ये राज्य अब अपने भविष्य का निर्णय करने में स्वतंत्र थे।... इनकी संख्या 600 के लगभग थी। यदि समुच्चय ही ये राज्य उपद्रव पर उतर आते तो भारत सरकार के लिए अच्छी मुसीबत बन जाते।... परंतु सरदार पटेल ने उस समय बड़ी कुशलता, दूरदर्शिता और दृढ़ता से काम लिया।..."


संदर्भ (Reference):

  • लेखक: सत्यकाम विद्यालंकार
  • पाठ/शीर्षक: अजेय लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जीवनी
  • पृष्ठभूमि: यह अंश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की सबसे बड़ी और सबसे जटिल चुनौती—लगभग 600 देशी रियासतों को भारतीय संघ में एकीकृत करने—की चर्चा करता है।

प्रसंग (Context):

  • विषय-वस्तु: ब्रिटिश शासन ने जाते समय इन रियासतों को यह छूट दे दी थी कि वे या तो भारत में मिल जाएँ, पाकिस्तान में या स्वतंत्र रहें। यह स्थिति देश की अखंडता के लिए एक बड़ा खतरा थी।
  • मुख्य विचार: यह अंश बताता है कि सरदार पटेल ने उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के रूप में अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता और असाधारण दृढ़ता का उपयोग करते हुए इस चुनौती को सफलतापूर्वक हल किया और भारत को एक अखंड राष्ट्र का रूप दिया।

व्याख्या (Explanation):

  • राष्ट्रीय संकट: 600 रियासतों का स्वतंत्र रहने का विकल्प भारतीय संघ के लिए एक विशाल चुनौती थी, जो देश में अराजकता और उपद्रव फैला सकती थी (विशेष रूप से हैदराबाद और जूनागढ़ जैसी रियासतों में)।
  • पटेल की त्रिमूर्ति: पटेल ने इस समस्या को हल करने के लिए कुशलता (राजनैतिक बातचीत), दूरदर्शिता (भविष्य के खतरों को पहचानना) और दृढ़ता (आवश्यकता पड़ने पर सेना का प्रयोग, जैसे हैदराबाद में) का प्रयोग किया।
  • ऐतिहासिक कार्य: लेखक इस कार्य को "पटेल के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य" बताता है, क्योंकि इसके बिना भारत का वर्तमान स्वरूप असंभव था। कुछ इतिहासकार इसलिए उन्हें 'भारत का बिस्मार्क' भी कहते हैं।

अजेय लोह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल लघु प्रश्नोत्तरी

 क्र.सं. प्रश्न (Question) उत्तर (Answer)

1. वल्लभ भाई पटेल का जन्म किस राज्य में हुआ था?

 गुजरात

2. वल्लभ भाई पटेल का जन्म किस गाँव में हुआ था? करमसद

3. वल्लभ भाई पटेल का जन्म किस तारीख को हुआ था? 

31 अक्टूबर, 1875 ई.

4. वल्लभ भाई के पिता किस विद्रोह में शामिल थे?

 1857 ई.

5. वल्लभ भाई ने सर्वप्रथम कौन सी परीक्षा पास की? 

मैट्रिक

6. वल्लभ भाई का विवाह कितने वर्ष की आयु में हुआ?

 18 वर्ष

7. वल्लभ भाई की पत्नी का स्वर्गवास कितनी वर्ष की आयु में हुआ? 

33 वर्ष

8. वल्लभ भाई की पत्नी का स्वर्गवास किस बीमारी से हुआ? 

प्लेग

9. वल्लभ भाई ने बैरिस्टर बनने के लिए किस देश की यात्रा की? 

इंग्लैंड

10. गांधीजी के किस आन्दोलन को वल्लभ भाई ने गुजरात में लागू किया? 

असहयोग

11. खेड़ा जिले में फ़सलें खराब होने पर पटेल ने किस चीज़ की माँग की?

 लगान माफ़

12. बारडोली सत्याग्रह की सफलता के बाद वल्लभ भाई को कौन सी उपाधि मिली? 

सरदार

13. सन 1931 ई. में कांग्रेस के अधिवेशन के अध्यक्ष कौन चुने गए थे?

 सरदार पटेल

14. कांग्रेस के सात प्रांतों में मंत्रिमंडल कब समाप्त हुआ? 

1939 ई.

15. 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव कब पास किया गया? 9 अगस्त, 

1942 ई.

16. सरदार पटेल को 'भारत छोड़ो' आन्दोलन के तहत कहाँ जेल में रखा गया? 

बम्बई (मुंबई)

17. अंतरिम सरकार में सरदार पटेल को कौन सा विभाग मिला? 

सूचना एवं प्रसारण

18. देश की 600 स्वतंत्र देशी राज्यों को भारतीय संघ में किसने शामिल किया? 

सरदार पटेल

19. सरदार पटेल को किस नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ दृढ़ संकल्प वाला है? 

लौह पुरुष

20. सरदार पटेल का स्वर्गवास किस तारीख को हुआ?

 15 दिसम्बर, 1950 ई.

सोमवार, 22 सितंबर 2025

दो नाक वाले लोग विस्तृत सारांश

 

हरिशंकर परसाई की कहानी का विस्तृत सारांश: 'दो नाक वाले लोग'

1. शीर्षक का औचित्य और केंद्रीय विचार

यह कहानी हरिशंकर परसाई का एक प्रसिद्ध व्यंग्य है, जिसमें उन्होंने भारतीय समाज की दिखावे की प्रवृत्ति, सामाजिक प्रतिष्ठा और नैतिक खोखलेपन पर तीखा प्रहार किया है। कहानी का शीर्षक 'दो नाक वाले लोग' स्वयं कथावाचक की भूमिका को दर्शाता है, जो एक बुजुर्ग व्यक्ति को सामाजिक दबाव से ऊपर उठकर व्यावहारिक और तर्कसंगत निर्णय लेने की सलाह दे रहे हैं। कहानी का केंद्रीय विचार 'नाक' है, जिसका प्रयोग लेखक ने सामाजिक सम्मान और प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में किया है।

2. कहानी के प्रमुख पात्र और घटनाक्रम

कहानी में मुख्य रूप से दो पात्र हैं: कथावाचक (लेखक) और एक बिगड़ा हुआ रईस बुजुर्ग। बुजुर्ग अपनी बेटी का अंतरजातीय विवाह कर रहे हैं, जो कि एक प्रगतिशील कदम है, लेकिन वे यह शादी पुराने ठाठ-बाठ से करना चाहते हैं। इसका कारण है रिश्तेदारों के सामने अपनी 'नाक' कटने का डर।

कथावाचक बुजुर्ग को समझाते हैं कि वे अपनी हैसियत से अधिक खर्च न करें और कर्ज लेकर दिखावा न करें। वे उन्हें शादी को आर्य-समाजी रीति से सादगी के साथ करने का सुझाव देते हैं। वे तर्क देते हैं कि दूर के रिश्तेदार (जो पंजाब, दिल्ली आदि में हैं) निमंत्रण पाकर खुश नहीं होंगे, बल्कि परेशान होंगे। कथावाचक यह भी बताते हैं कि दिखावे के बजाय नैतिक मूल्यों को अपनाना अधिक महत्वपूर्ण है।

3. 'नाक' का प्रतीकात्मक प्रयोग और व्यंग्य

परसाई जी ने इस कहानी में 'नाक' का उपयोग कई प्रतीकात्मक अर्थों में किया है:

  • छोटे आदमी की नाजुक नाक: जो छोटी-सी बात पर कट जाती है।

  • बड़े आदमी की 'इस्पात की नाक': जो कालाबाजारी, भ्रष्टाचार और अनैतिक कार्यों के बाद भी नहीं कटती। ये लोग इतनी हैसियत रखते हैं कि सामाजिक आलोचना से बच जाते हैं।

  • होशियार लोगों की 'तलवे में रखी नाक': जो इतने चालाक होते हैं कि उनकी इज्जत पर कोई आंच ही नहीं आ पाती।

  • गुलाब के पौधे जैसी नाक: जो बदनामी के बाद और भी बढ़ जाती है।

  • 'कटी हुई नाक': कहानी के अंत में, जब बुजुर्ग दिखावा करने के लिए कर्ज लेते हैं और साहूकार रोज तकादा करने आते हैं, तब लेखक बताते हैं कि उनकी नाक रोज थोड़ी-थोड़ी कटने लगी है, और अंत में काटने के लिए कुछ बचता ही नहीं है।

यह प्रतीकात्मक प्रयोग भारतीय समाज में नैतिक मूल्यों के पतन और दिखावे की प्रवृत्ति पर गहरा व्यंग्य करता है।

4. कहानी का उद्देश्य और संदेश

कहानी का मुख्य उद्देश्य समाज में व्याप्त दिखावे की संस्कृति पर चोट करना है। लेखक समझाते हैं कि दिखावा और झूठी प्रतिष्ठा व्यक्ति को कर्ज और परेशानियों के दलदल में धकेल देती है। यह कहानी हमें यह संदेश देती है कि बाहरी आडंबर और सामाजिक दबावों के बजाय, हमें सादगी, ईमानदारी और अपनी हैसियत के अनुसार जीवन जीना चाहिए।

परसाई जी ने अपनी व्यंग्य शैली में हास्य और कटु सत्य का मिश्रण किया है। वे एक ओर तो 'जूते खा गए' जैसे मुहावरे पर व्यंग्य करते हैं, वहीं दूसरी ओर कर्ज और दिखावे के कारण होने वाले दुखों को भी उजागर करते हैं।

5. निष्कर्ष

'दो नाक वाले लोग' सिर्फ एक व्यंग्य नहीं है, बल्कि समाज के एक कड़वे सच का आईना है। यह बताती है कि कैसे लोग अपनी झूठी इज्जत (नाक) बचाने के लिए अपनी वास्तविक नैतिकता और आर्थिक स्थिति को दांव पर लगा देते हैं। अंत में, बुजुर्ग को अपनी गलती का एहसास तब होता है, जब उनकी नाक सचमुच कट चुकी होती है। यह कहानी हमें दिखावे से दूर रहने और यथार्थवादी जीवन जीने की प्रेरणा देती है।

दो नाक वाले लोग हरिशंकर परसाई

 

  1. बुजुर्ग ने लड़की की शादी में क्या करने से मना किया? उत्तर: टीमटाम

  2. रिश्तेदारों में क्या कटने का डर था? उत्तर: नाक

  3. किस तरह की नाक बहुत नाजुक होती है? उत्तर: छोटे आदमी की

  4. कुछ बड़े आदमियों की नाक किस चीज की होती है? उत्तर: इस्पात की

  5. जो होशियार होते हैं, वे अपनी नाक कहाँ रखते हैं? उत्तर: तलवे में

  6. कुछ नाकें किस पौधे की तरह होती हैं? उत्तर: गुलाब

  7. 'जूते खा गए' मुहावरे पर लेखक क्या कहते हैं? उत्तर: भुखमरा

  8. बुजुर्ग की नाक कैसी हो गई थी? उत्तर: लंबी

  9. बिगड़ा रईस और बिगड़ा घोड़ा किस तरह के होते हैं? उत्तर: एक तरह के

  10. लेखक किससे दूर रहने की सलाह देते हैं? उत्तर: बिगड़े रईस

  11. बुजुर्ग अपनी बेटी का कैसा विवाह कर रहे थे? उत्तर: अंतरजातीय

  12. लड़की का लड़का किस जाति का था? उत्तर: कान्यकुब्ज

  13. लेखक ने किस तरह शादी करने की सलाह दी? उत्तर: आर्यसमाज

  14. लड़के को शादी में कितना पैसा नहीं चाहिए था? उत्तर: एक पैसा

  15. बुजुर्ग के करीबी रिश्तेदार कहाँ रहते थे? उत्तर: पटियाला

  16. लेखक को निमंत्रण पत्र पाकर कैसा लगता है? उत्तर: घबराता

  17. लेखक ने किस महीने की लग्नें हटाने को कहा? उत्तर: मई और जून

  18. किस विवाह में लड़का-लड़की भागकर शादी कर लेते हैं? उत्तर: गांधर्व

  19. लेखक के अनुसार, कौन संस्कृत नहीं समझता? उत्तर: पंडित

  20. साहूकार क्यों निराश लौट जाते थे? उत्तर: नाक नहीं थी


संदर्भ प्रसंग व्याख्या वाले नोट्स

अवतरण 1: '...रिश्तेदारों में नाक कट जाएगी। नाक उनकी काफी लंबी थी। मेरा ख्याल है, नाक की हिफाजत सबसे ज्यादा इसी देश में होती है।'

        संदर्भ -- प्रस्तुत गद्यांश हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित व्यंग्य निबंध दो नाक वाले लोग से ली गयी है।

  • प्रसंग: यह कहानी का शुरुआती हिस्सा है जहाँ एक बुजुर्ग अपनी बेटी की शादी सादगी से करने के बजाय दिखावे के साथ करना चाहते हैं।

  • व्याख्या: परसाई जी यहाँ 'नाक' शब्द का प्रयोग इज्जत, प्रतिष्ठा और सामाजिक सम्मान के प्रतीक के रूप में करते हैं। वे व्यंग्य करते हैं कि भारत में लोग अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए कितना चिंतित रहते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कर्ज ही क्यों न लेना पड़े। वे शारीरिक नाक के बहाने सामाजिक प्रतिष्ठा की रक्षा के प्रति लोगों के obsessive व्यवहार पर कटाक्ष कर रहे हैं।

अवतरण 2: 'कुछ बड़े आदमी, जिनकी हैसियत है, इस्पात की नाक लगवा लेते हैं और चमड़े का रंग चढ़वा लेते हैं। कालाबाजार में जेल हो आए हैं...'

        संदर्भ -- प्रस्तुत गद्यांश हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित व्यंग्य निबंध दो नाक वाले लोग से ली गयी है।

  • प्रसंग: लेखक समाज के उन प्रभावशाली लोगों पर व्यंग्य कर रहे हैं जो नैतिक रूप से भ्रष्ट हैं, लेकिन फिर भी समाज में उनका सम्मान बना रहता है।

  • व्याख्या: यहाँ 'इस्पात की नाक' उन लोगों की प्रतिष्ठा का प्रतीक है जो गलत काम करने के बावजूद अप्रभावित रहती है। लेखक कहते हैं कि ये लोग इतने शक्तिशाली होते हैं कि उन्हें किसी भी बात का फर्क नहीं पड़ता। उनकी नाक स्टील की होती है, जिसे कोई काट नहीं सकता। यह टिप्पणी बताती है कि समाज में नैतिकता और सम्मान अक्सर आर्थिक और राजनीतिक हैसियत से तय होता है, न कि कर्मों से।

अवतरण 3: 'जूते खा गए' अजब मुहावरा है। जूते तो मारे जाते हैं। वे खाए कैसे जाते हैं? मगर भारतवासी इतना भुखमरा है कि जूते भी खा जाता है।

        संदर्भ -- प्रस्तुत गद्यांश हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित दो नाक वाले लोग व्यंग्य निबंध से ली गयी है।

  • प्रसंग: लेखक 'नाक' से जुड़ी एक घटना का जिक्र करते हुए 'जूते खा गए' मुहावरे पर अपनी सोच प्रकट करते हैं।

  • व्याख्या: यह एक गहरा व्यंग्य है। लेखक इस मुहावरे के शाब्दिक अर्थ को लेते हुए भारतीयों की गरीबी और अपमान सहने की आदत पर कटाक्ष करते हैं। वे कहते हैं कि लोग शारीरिक रूप से इतने भूखे हैं कि वे अपमान (जूते) को भी सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं, मानो वह कोई भोजन हो। यह दर्शाता है कि कैसे सामाजिक और आर्थिक मजबूरियाँ व्यक्ति के आत्मसम्मान को नष्ट कर देती हैं।

अवतरण 4: 'मैंने कहा-लड़का उत्तर प्रदेश का कान्यकुब्ज और आप पंजाब के खत्री-एक दूसरे के रिश्तेदारों को कोई नहीं जानता... लड़के के पिता की मृत्यु हो चुकी है... आप एक सलाह मेरी मानिए... हम आपको शादी में नहीं बुला सके।'

        संदर्भ -- प्रस्तुत गद्यांश हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित दो नाक वाले लोग व्यंग्य निबंध से ली गयी है।

  • प्रसंग: लेखक बुजुर्ग को दिखावे से बचने के लिए एक काल्पनिक कहानी गढ़ने की सलाह देते हैं, जिसमें लड़के के पिता की मृत्यु को एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

  • व्याख्या: यह हिस्सा लेखक की धोखेबाजी और हास्य का अद्भुत मिश्रण है। लेखक यहाँ यह दिखाना चाहते हैं कि दिखावे से बचने के लिए लोग किस हद तक जा सकते हैं। वे बुजुर्ग को एक झूठ बोलने की सलाह देते हैं ताकि वे रिश्तेदारों के सामने अपनी प्रतिष्ठा बचा सकें और शादी का खर्च भी कम हो जाए। यह अंततः कहानी के केंद्रीय विषय - 'सामाजिक दबाव' और 'दिखावा' - को पुष्ट करता है और बताता है कि लोग अपनी नाक बचाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

B.com SEP Kedarnath Badrinath ki Yatra Long Question Answer

अनीता गांगुली द्वारा लिखित 'केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा' पाठ का विस्तृत सारांश

प्रस्तावना:

अनीता गांगुली द्वारा लिखित यात्रा-वृत्तांत 'केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा' एक विस्तृत और भावपूर्ण संस्मरण है, जिसमें लेखिका ने अपनी सात दिवसीय हिमालयी तीर्थयात्रा का वर्णन किया है। यह पाठ न केवल धार्मिक महत्त्व को उजागर करता है, बल्कि हिमालय की प्राकृतिक सुंदरता और यात्रा की चुनौतियों को भी दर्शाता है। यह सारांश पाठ के प्रमुख बिंदुओं और अनुभवों को विस्तृत रूप से प्रस्तुत करता है।


1. यात्रा की शुरुआत और प्रारंभिक पड़ाव:

यात्रा की शुरुआत देहरादून से होती है, जहाँ से लेखिका 14 मई 1993 को अपनी यात्रा पर निकलती हैं। शुरुआती दिनों में वे बस से यात्रा करती हैं और उनका पहला रात्रि-विश्राम कोटद्वार में होता है। इस दौरान, वे पहाड़ी रास्तों, नदियों और मनमोहक दृश्यों का आनंद लेती हैं। यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव रुद्रप्रयाग है, जहाँ लेखिका अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों के संगम को देखती हैं। वे इस संगम को एक पवित्र और अविस्मरणीय दृश्य मानती हैं।


2. केदारनाथ की चुनौतीपूर्ण यात्रा:

केदारनाथ की यात्रा इस संस्मरण का सबसे चुनौतीपूर्ण हिस्सा है। लेखिका ने पैदल 14 किलोमीटर की चढ़ाई का वर्णन किया है। इस यात्रा के प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:

चुनौतीपूर्ण मार्ग: मार्ग में बर्फ की मोटी परतें जमी हुई हैं, जिसे पार करना बहुत कठिन है। लेखिका इस ठंड का अनुभव करते हुए लिखती हैं कि उनके हाथ-पैर काँप रहे थे।

उच्चावचन: केदारनाथ का मंदिर समुद्र तल से 11,075 फुट की ऊँचाई पर स्थित है, जो इस यात्रा को और भी कठिन बनाता है।

आध्यात्मिक अनुभव: इन सभी कठिनाइयों के बावजूद, मंदिर पहुँचने पर उन्हें एक गहरी आध्यात्मिक शांति और दिव्यता का अनुभव होता है। वे केदारनाथ मंदिर के शांत और शक्तिशाली वातावरण से मंत्रमुग्ध हो जाती हैं।


3. बद्रीनाथ का आध्यात्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य:

केदारनाथ के बाद, यात्रा बद्रीनाथ की ओर बढ़ती है, जहाँ का वातावरण थोड़ा अलग है। यहाँ लेखिका प्राकृतिक और आध्यात्मिक सुंदरता का अद्भुत मिश्रण पाती हैं:

प्रमुख दर्शनीय स्थल: लेखिका बद्रीनाथ मंदिर, तप्त कुंड, और बद्री ताल (बद्रीबाद की झील) का वर्णन करती हैं। वे बद्री की प्रतिमा को काले पत्थर से बनी बताती हैं, जो धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।

मनमोहक दृश्य: बद्री ताल को वे "बहुत ही सुंदर" बताती हैं, जो वहाँ के स्वच्छ और शांत वातावरण को दर्शाता है।


4. यात्रा का समापन:

यह यात्रा-वृत्तांत ऋषिकेश में समाप्त होता है, जहाँ लेखिका कनखल में गंगा स्नान करती हैं और स्वर्गाश्रम में रुकती हैं। यह पड़ाव उनकी यात्रा को एक पवित्र और शांत अंत देता है। यह गंगा नदी और आध्यात्म से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अनुभव था।


निष्कर्ष:

यह पाठ केवल एक यात्रा का वर्णन नहीं है, बल्कि यह एक गहरी आध्यात्मिक और व्यक्तिगत खोज का भी प्रतीक है। अनीता गांगुली ने अपनी यात्रा के अनुभवों को इस तरह से प्रस्तुत किया है कि पाठक भी हिमालय की विशालता, नदियों की पवित्रता और तीर्थस्थलों के आध्यात्मिक महत्त्व को महसूस कर सकें।

B.com SEP Kedarnath Badrinath ki Yatra notes

 एक शब्द वाले लघु प्रश्नोत्तर :


1. लेखिका का नाम क्या है?

उत्तर: अनीता गांगुली



2. यात्रा कहाँ से शुरू हुई?

उत्तर: देहरादून



3. केदारनाथ की यात्रा किस नदी के किनारे थी?

उत्तर: मन्दाकिनी



4. गौरीकुंड से केदारनाथ कितने किलोमीटर था?

उत्तर: 14 कि.मी.



5. लेखिका ने कितने दिनों की यात्रा का वर्णन किया है?

उत्तर: सात दिन



6. अलकनंदा और मन्दाकिनी का संगम कहाँ होता है?

उत्तर: रुद्रप्रयाग



7. यात्रा की पहली रात लेखिका कहाँ रुकी?

उत्तर: कोटद्वार


8.लेखिका ने बद्रिबाद की झील का वर्णन कैसे किया है?

उत्तर: सुंदर झील


9.बद्रीनाथ में कौन सी नदी बहती है?

उत्तर: अलकनंदा


10. बद्री की मूरत किस पत्थर से बनी है?

उत्तर: काली पत्थर


11.बद्रीनाथ मंदिर किस स्थान पर है?

उत्तर: तप्त कुंड


12.लेखिका ने कहाँ रुककर गंगा स्नान किया?

उत्तर: कनखल


13.ऋषिकेश में लेखिका कहाँ रुकी?

उत्तर: स्वर्गाश्रम


14.यात्रा का आखिरी स्थान क्या था?

उत्तर: ऋषिकेश




सन्दर्भ-प्रसंग-व्याख्या



“समुद्र तल से 11,075 फुट की ऊँचाई पर स्थित है केदारनाथ। बर्फ, बर्फ, बर्फ, रास्ते में जमी हुई बर्फ...”


सन्दर्भ:

ये पंक्तियाँ अनीता गांगुली द्वारा लिखित यात्रा-वृत्तांत "केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा" से ली गई हैं।


प्रसंग:

इस अंश में लेखिका केदारनाथ पहुँचने के बाद वहाँ के दृश्यों और अनुभवों का वर्णन कर रही हैं, जो बहुत ऊँचाई पर स्थित है।


व्याख्या:

लेखिका बताती हैं कि केदारनाथ समुद्र तल से 11,075 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। वहाँ के रास्ते बर्फ से ढके हुए हैं, जिसे वे “बर्फ, बर्फ, बर्फ” दोहराकर उसकी महत्त्वपूर्णता और विशालता को दर्शाती हैं। वहाँ की सर्दी और बर्फीली हवाओं के बारे में बताते हुए लेखिका कहती हैं कि उनके हाथ-पैर तक काँप रहे थे। इसके बावजूद, वे वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता—जैसे पहाड़ों, मंदिर और आकाश की शोभा—का आनंद लेती हैं। यह अंश यात्रा के दौरान आने वाली कठिनाइयों और उनके आध्यात्मिक तथा प्राकृतिक अनुभवों का एक सुंदर चित्रण है।




अवतरण 2: “हमने बद्रीबाद की झील देखी, जिसे बद्री ताल भी कहा जाता है, बहुत ही सुंदर थी।”


संदर्भ: यह पंक्तियाँ अनीता गाँगुली द्वारा लिखित यात्रा-वृत्तांत "केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा" से ली गई हैं।


प्रसंग: इस अंश में, लेखिका बद्री ताल की सुंदरता का वर्णन कर रही हैं।

व्याख्या: लेखिका ने बद्रीबाद की झील को बहुत ही सुंदर बताया है। इस झील को बद्री ताल भी कहते हैं। इस वर्णन से पता चलता है कि बद्रीनाथ के आस-पास के प्राकृतिक दृश्य बहुत ही मनमोहक हैं।


अवतरण 3: "अलकनंदा और मंदाकिनी का संगम होता है रुद्रप्रयाग, जहाँ दोनों नदियां मिलकर एक धारा में बहने लगती हैं।"


संदर्भ: यह पंक्तियाँ लेखिका अनीता गांगुली द्वारा लिखित यात्रा-वृत्तांत "केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा" से ली गई हैं।


प्रसंग: इस अंश में, लेखिका दो प्रमुख नदियों, अलकनंदा और मंदाकिनी, के मिलन स्थल रुद्रप्रयाग का वर्णन कर रही हैं।


व्याख्या: लेखिका बताती हैं कि रुद्रप्रयाग एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है जहाँ अलकनंदा और मंदाकिनी नदियाँ मिलती हैं। यह संगम इन दोनों नदियों की यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है, जहाँ वे एक होकर आगे बढ़ती हैं। यह स्थान प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ धार्मिक महत्व भी रखता है।


अवतरण 4: "केदारनाथ समुद्र तल से 11,075 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। बर्फ़, बर्फ़, बर्फ़, रास्ते में जमी हुई बर्फ़..."


संदर्भ: यह पंक्तियाँ भी "केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा" नामक पाठ से ली गई हैं।


प्रसंग: इस अंश में, लेखिका केदारनाथ पहुँचने के बाद वहाँ के मौसम और वातावरण का वर्णन कर रही हैं।

व्याख्या: लेखिका बताती हैं कि केदारनाथ बहुत ऊँचाई पर स्थित है, जिसकी वजह से वहाँ का मौसम बेहद ठंडा है। "बर्फ, बर्फ, बर्फ" का दोहराव वहाँ की अत्यधिक ठंड और रास्तों पर जमी हुई बर्फ को दर्शाता है। यह वर्णन दिखाता है कि वहाँ की यात्रा कितनी चुनौतीपूर्ण हो सकती है, लेकिन इसके बावजूद वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता मन को मोह लेती है।



पाठ पर आधारित संक्षिप्त सारांश

यह पाठ लेखिका अनीता गांगुली की केदारनाथ और बद्रीनाथ की सात दिवसीय यात्रा का विस्तृत वर्णन है। यह यात्रा देहरादून से शुरू होती है। लेखिका ने अपनी इस यात्रा में आने वाली चुनौतियों, अनुभवों और प्राकृतिक सौंदर्य का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है।

यात्रा की शुरुआत देहरादून से होती है, जहाँ से वे कोटद्वार पहुँचते हैं। इस यात्रा में उन्हें विभिन्न नदियाँ, जैसे मंदाकिनी और अलकनंदा, और उनके संगम स्थलों को देखने का अवसर मिलता है। लेखिका ने रुद्रप्रयाग के संगम का विशेष रूप से उल्लेख किया है।

केदारनाथ की यात्रा पैदल चढ़ाई वाली है, जहाँ रास्ते में बहुत बर्फ जमी होती है। लेखिका ने इस यात्रा की कठिनाइयों और वहां के ठंडे मौसम का वर्णन किया है, जिससे उनके हाथ-पैर तक काँप रहे थे। उन्होंने गौरी कुंड से केदारनाथ तक की 14 किलोमीटर की पैदल यात्रा का अनुभव भी साझा किया है।

बद्रीनाथ पहुँचने पर, लेखिका वहाँ के मंदिर, तप्त कुंड, और बद्री ताल जैसी सुंदर झीलों का वर्णन करती हैं। वे बद्री की मूरत के काले पत्थर से बनी होने का उल्लेख करती हैं। इसके अलावा, उन्होंने कनखल में गंगा स्नान और ऋषिकेश में स्वर्गाश्रम में रुकने का भी अनुभव साझा किया है।

यह यात्रा धार्मिक और आध्यात्मिक अनुभव के साथ-साथ प्राकृतिक सौंदर्य का भी एक सुंदर मिश्रण है, जिसमें लेखिका ने अपने अनुभवों को बहुत ही सहज और आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया है।







बुधवार, 17 सितंबर 2025

शीतल पाटी

मिनती एक सिलेठी गरीब ब्राह्मण परिवार की विधवा बहू थी। उसकी शादी के महज साल भर में ही पति की अचानक एक अप्रत्याशित घटना में मृत्यु हो गई। ससुराल वालों ने मिनती को इसका दोषी तो नहीं माना, लेकिन कुछ परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि उसे अपने साथ रखना भी उचित नहीं समझे। जवान लड़की, वह भी विधवा। उसे समझा-बुझाकर उसके पिता के घर वापस जाने के लिए राज़ी कर लिया। सास ने उसे समझा दिया कि जिस आधार पर वह इस घर में आई थी, वह तो अब रहा नहीं। अब यहां उसका क्या ही बचा है? बेचारी मन में दुखों का बोझ लेकर पिता के घर चली आई। जो कुछ साथ ले गई थी, वह भी उसकी सास ने उसके साथ वापस कर दी, उसकी शादी का जोड़ा और गहने भी।

पिता का घर इतना सचचल तो नहीं था, फिर भी उसके भरण-पोषण की समस्या नहीं थी। लेकिन माता-पिता और छोटे भाई पर बोझ बन बनकर रहना मिनती को स्वीकार न था। पिता के घर रहकर वह शीतल पाटी बुनने का निश्चय करती है। यही अब उसकी दिनचर्या और जीने का मुख्य आसरा था। ये शीतल पाटी सिलेठी परिवारों की शादी का अहम हिस्सा होती है। ससुराल में चतुर्थ-मंगल के अनुष्ठान के बाद घर में पति-पत्नी इसे साथ लेकर उल्टा-सुलटा लपेटते हुए प्रवेश करते हैं। मिनती पाटी बुने जा रही थी और रह-रह कर उसे भी अपना चतुर्थ मंगल अनुष्ठान याद हो आया।

कैसे उसका पति देवव्रत उसकी तरफ प्रेम से देख रहा था और शीतल पाटी को धीरे-धीरे लपेट रहा था। उसका विवाह गर्मियों के मौसम यानी बैसाख में हुआ था। रात में उन्होंने इसी शीतल पाटी में ही शयन किया था। मिनती अपने पति को इसी शीतल पाटी में गर्मियों के दिनों में बिठाकर चाय तथा मूड़ी के लड्डू दिया करती थी। कभी-कभी दोपहर को देवव्रत अपने यजमानों के घर से पूजा करके लौट आता था तो इसी शीतल पाटी में सोकर अपनी गर्मी और थकान दूर किया करता था।

लेकिन हाय री किस्मत! मिनती को भी क्या पता था कि ऐसी ही एक दोपहर उसके पति की जान चली जाएगी। हुआ कुछ यूं था कि देवव्रत अपने एक यजमान के घर से सावन सोमवार की पूजा सम्पन्न करा कर घर लौट आया। मिनती ने उसे घर आने के बाद पानी पीने को दिया तथा रसोई में चाय बनाने चली गयी। देवव्रत यजमान के घर में खाना खाकर ही आया था। घर लौटने में उसे लगभग घण्टे भर का समय लग गया था। इसलिए उसने सोचा कि चाय पीकर आराम कर लिया जाए। बाद में संध्या समय में आरती करके वह जल्दी खाना खा लेगा। बराक-घाटी में संध्या भी बहुत जल्दी हो जाया करती है। इसी बीच न जाने कहा से एक साँप कमरे के कोने में से चला आया और शीतल पाटी पर लेटकर आराम कर रहे देवव्रत को डंस देता है। देवव्रत ठीक से न तो मिनती को पुकार पाता है न ही अपने माता-पिता को पुकार पाता है। वह वही पर दम तोड़ देता है। मिनती जब रसोई से वापस आती है तो उसका संसार उजड़ चुका था। वह देवव्रत की लाश के पास पछाड़ खा-खाकर रोने लगती है। देवव्रत के माता-पिता का भी हाल बुरा था। माँ लगभग अपने बेटे का नाम लेकर बेहोश हो जाती थी। पड़ोस के लोगों की मदद से देवव्रत के पार्थिव शरीर को उसी शीतल पाटी समेत लपेट कर श्मशान ले जाया जाता है तथा उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। उसके बाद किसी प्रकार खबर पाकर देवव्रत के कुछ दूर के रिश्तेदार आते हैं और श्राद्ध तथा अन्य क्रियाकर्म सम्पन्न हो पाती है। मिनती के पिता को भी जब इसकी खबर मिलती है तो उनपर जैसे आकाश टूट पड़ा था। जिस बेटी को बड़े जतन से सजा-धजा कर सुहागिन भेजा था उसे विधवा के कपड़ों में कैसे देखते? माँ का भी रो-रोकर बुरा हाल था। वे उसे अपने यहाँ बुला लाने के लिए पति को भेजती है। जब मिनती के पिता श्राद्ध वाले दिन पहुँचते हैं तो पिता-पुत्री एक-दूसरे को देखकर रोने लगते हैं। मिनती के पिता भी बेटी को सफेद धोती में देख लगभग अचेत से होने लगते हैं। वे उसी दिन उसे अपने साथ ले जाने की कहते हैं लेकिन ससुराल वाले तब उसे नहीं छोड़ पाते हैं क्योंकि देवव्रत की जगह अब वही उनकी संतान थी। पड़ोस में रहने वाले बाबू शंकर रायचौधरी जी पंचायत के दफ्तर में काम करते थे जिनकी मदद से मिनती को देवव्रत की मृत्यु प्रमाण पत्र मिल जाता है जो कि कई अन्य जरूरी कामों के लिए जरूरी था।

 

            अब उसके तथा सास-ससुर के लिए मुश्किलें शुरु होती है। जवान विधवा बहू घर से बाहर क्या ही उसे काम के लिए भेजते, उन्हें रह-रह कर कई चिन्ताएँ सताती रहती। साथ ही वे भी बूढ़े हो चले थे तो उन्हें भी कोई काम मिले यह तो सवाल ही नहीं उठता था। मिनती को देखकर उन्हें रात-दिन अपने बेटे की याद सताती रहती थी। सास दिन-रात रोती ही रहती। मिनती उन्हें जब खाना देने जाती तो कई बार उस पर वे झल्ला उठती थी। पर अगले ही क्षण अपनी भूल तथा बहू की बेबसी समझकर उसे पास बुला लेती। मिनती अपनी सास को अपने हाथों से कौर खिलाने जाती तो सास उसे गले से लगाकर रोती रहती। मिनती भी अपनी सास से लिपटकर रोती। कुछ दिनों तक तो यह सिलसिला चला। लेकिन घर तो चलाना था ही। अतः मिनती के ससुर जी ने ही यजमानी का काम शुरु कर दिया। एक समय ससुर देवज्योति भट्टाचार्या जी अपने गाँव में अच्छे यजमानी ब्राह्मण हुआ करते थे। देवव्रत को भी उन्होंने ही हर प्रकार की पूजा तथा अनुष्ठानों की शिक्षा दी थी।

मिनती के ससुर जी बहुत बूढ़े हो चले थे। एक मात्र कुलदिपक के चले जाने से जैसे कुछ और ही अधिक दुखी भी रहने लगे थे। अपने गठिया रोग के चलते वे अक्सर लंगड़ा कर चला करते थे। चेहरे पर झुर्रीयों से अधिक दुख और निराशा की झलक आ गयी थी। थोड़ा बहुत भूलने की बिमारी ने भी घेर लिया था। लेकिन जीवन की इस डूबती नांव को किसी प्रकार वे बचाने में जुट गए। गाँव में ज्यादातर लोग इतने सम्पन्न तो न थे मगर छोटी-मोटी पूजा, अनुष्ठान इत्यादि में अब उन्हें ही बुला लिया करते थे। बदले में थोड़ी सी धन राशी के साथ ब्रह्म भुज्जी(चावल, दाल, आलू, तेल, नमक, चीनी इत्यादि जो कि एक डाली में सजाकर अपनी क्षमता अनुसार ब्राह्मण पुजारी को दिए जाने वाला दान) उन्हें मिल जाया करती थी। वे यही सब घर ले आया करते थे। इसी से अब उन तीनों का गुज़ारा चल जाता था। वही मिनती की सास ने मिनती से कह दिया था कि वह सफेद साड़ी पहनना छोड़ दे और मामूली रंग की साड़ियाँ पहना करे। सफेद साड़ी में उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का दुख बार-बार सताता है। वे इस दुख को भुलाने की कोशिश में लगी थी।

 

एक दिन ऐसी घटना घटी की उन्हें न चाहते हुए भी मिनती को अपने घर से दूर उसके पिता के पास ही भेज देना पड़ा। हुआ ये कि मिनती गाँव के पास बह रही भांगा नदी में कुछ कपड़े धोने जाया करती थी। गाँव में जो पानी की सप्लाई थी वह केवल घण्टे भर के लिए आती थी। जिससे सिर्फ गांव वाले पीने का पानी ही ले जा सकते थे। मिनती जब कपड़े धो रही थी तो वहाँ रफीक नाम का मछुवारा उसके पास आकर के उसे छेड़ने लग जाता है। वह उसे अपने साथ चलने के लिए कहता है। रफीक उसे छेड़ते हुए कहता है कि वह उसे कई दिनों से घाट पर कपड़े धोते हुए और कभी-कभी नहाते हुए भी देखा करता था। मिनती अपना मान बचाने के लिए वही पर सारा सामान छोड़ घर की तरफ दौड़ पड़ती है। रफीक भी उसके पीछे-पीछे दौड़ता है लेकिन यह वाक्या गाँव वालों की आँखों में पड़ जाता है। मिनती का वह पीछा करना छोड़ तो देता है लेकिन वह धमकियाँ और गालियाँ देकर वहाँ से चला जाता है। इधर मिनती जब घर पहुँचती है तो पड़ोसी शंकर बाबू उसके सास-ससुर को इसकी खबर देते हैं। वे दोनों ही इस घटना से बहुत आहत हो जाते हैं। उसी दिन वे निर्णय ले लेते हैं। वृद्ध दम्पति मिनती को रात में खाने के समय बात करने के लिए बुलाते हैं। इधर मिनती इस घटना से काफी भयभीत हो गयी थी। वह लगातार डर के मारे कांपे जा रही थी। वह बार-बार इस घटना के बारे में सोच-सोच कर रोए जा रही थी। शंकर बाबू की पत्नी भी उस समय वहाँ उसके साथ थी। रसोई में रोते-रोते काम करता देख शंकर बाबू की पत्नी का भी जी दुख से भरने लगा था। उधर शंकर बाबू भी मिनती के सास-ससुर को दिलासा देने में लगे थे। जब मिनती को वे अपना निर्णय सुनाने के लिए बुलाते हैं तो वह उनके सामने बड़ी मुश्किल से जाती है। साथ में शंकर बाबू की पत्नी भी आती है। मिनती अपराधी की मुद्रा में जाकर अपनी सास के पैरों से लिपट जाती है और रोते हुए माफी मांगने लगती है। तब उसकी सास उसे उठाते हुए अपने पास बिठाती है। उसकी सास उससे कहती है—‘देखो माँ। हम जानते हैं कि तुमने कोई अपराध नहीं किया है। लेकिन अब हमने सोच लिया है कि तुम्हें अब अपने साथ नहीं रख पाएंगे।’ मिनती – ‘माँ अगर मैंने अपराध नहीं किया है तो फिर क्यों तुम मुझे अपने से अलग कर रही हो। आपसे अलग होकर मैं कैसे रहूँगी? एक आप ही तो हो जो उनसे जुड़े हुए थे। उनकी यादें और आप ही लोगों का सहारा है तभी तो मैं जी रही हूँ।’

 

सास—‘माँ रे, जिसके सहारे तुम इस घर में आयी थी, वह तो अब रहा नहीं और आज जो घटना हुई है उससे हम दोनों का मन बहुत विचलित हो गया है। पहले तुम हमारे देबु की अमानत थी, लेकिन उसके जाने के बाद अब तुम हमारी अमानत भी हो और सम्मान भी। तुम्हें कुछ हो गया तो तुम्हारे पिता को हम क्या मुँह दिखाएंगे? तुम्हारे पिता तो देबु के श्राद्ध के दिन ही तुम्हें लेकर चले जाना चाहते थे, लेकिन तुमसे हम इतना घुल-मिल गये थे कि हम तुम्हें भेज ही नहीं पाए, लेकिन लगता है कि वह हमारी भूल थी। अगर तुम्हें हम तभी भेज देते तो हमें भी ये दिन नहीं देखना पड़ता।’

 

मिनती – ‘माँ एक तरफ तुम कहती हो कि मेरा कोई अपराध नहीं है। वही दूसरी तरफ तुम ही कह रही हो कि मेरे यहाँ रहने के कारण ही ये घटना हुई है।’ मिनती के ससुर सास-बहू की बात देर से सुन रहे थे। तब उनसे न रहा गया और वे कहने लगे –‘ देख माँ इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। परन्तु बात को समझो। तुम एक जवान लड़की हो। अभी-अभी विधवा हुई हो। आगे तुम्हारा लम्बा जीवन पड़ा है। अगर तुम अपने पिता के साथ उसी समय चली गयी होती तो फिर तुम अपने पिता के घर सुरक्षित रहती। हम तो आज है कल नहीं। हमारे पीछे तुम्हारा क्या होगा यही सोच कर ही हमने निर्णय लिया है कि तुम्हें तुम्हारे पिता के घर भेज दिया जाय। अगर तुम्हें कुछ हो गया तो हम तुम्हारे पिता को क्या मुँह दिखाएंगे। तुम हमारे बेटे की पत्नी हो और उसकी अमानत हो। तुम्हारे साथ कुछ गलत होगा तो हम अपने बेटे को ऊपर जाकर क्या कहेंगे।’

मिनती अपने ससुर की बात सुनकर चुप रह जाती है। वह कोई जवाब नहीं देती। परन्तु कुछ देर चुप रहकर बहुत विनत स्वर में कहती है –‘बाबा मैं अगर चली गयी तो आपकी सेवा कौन करेगा? आप घर से जब यजमानी के लिए जाएंगे तब पीछे माँ को कौन देखेगा? यदि मुझे इस गाँव से जाना ही है तो फिर मैं आप लोगों को अकेला नहीं छोड़ सकती। आप लोग भी मेरे साथ चलेंगे। नहीं तो मैं यही पर रहूंगी। जो होगा ईश्वर की मर्जी समझ कर रह लूंगी या फिर इस मुसीबत का सामना करूंगी।’ मिनती के कहने पर वे लोग थोड़ा चिन्तित होते हैं और फिर वे अपनी बहू के मायके में जाकर रहने की बात को मना कर देते हैं। मिनती के ससुर पुनः उसे समझाते हुए कहते हैं कि ‘देखो माँ हमसे ज्यादा तूम्हारे जीवन पर संकट है। हम दो बूढ़ा-बूढ़ी इस उमर में इस गाँव को छोड़ कर कही और बसने की सोच नहीं सकते। हमारे लिए ये संभव नहीं है। फिर बेटे की यादें भी जुड़ी है। अपने घर को छोड़ पराए घर में रहना वही मरना हमसे नहीं होगा। हम तो अब अंतिम समय तक यही रहेंगे। बहुत चिन्ता होती है तुम्हें तो शंकर बाबू तो है ही। तुम हमारे पीछे अपना जीवन क्यों नष्ट करती हो? तुम नए सिरे से अपना जीवन शुरु करो।’

मिनती अपने ससुर की बात सुनकर आश्चर्यचकित रह जाती है। वही शंकर बाबू तथा उनकी पत्नी भी। परन्तु वे भी समझ चुके थे कि इसी में मिनती की भलाई है। मिनती अंत में कुछ और नहीं कह पाती है तथा अपने पिता के घर वापस जाने के लिए तैयार हो जाती है। अगले ही दिन उसकी सास मिनती को उसके विवाह के समय मिले कपड़े तथा थोड़े से गहने एक बक्से में बांध कर देती है। मिनती अपनी सास से मिलती है तथा नम आँखों से उनके चरण स्पर्श करती है। भारी मन से अपने ससुर को भी प्रणाम करती है। शंकर बाबू ने इस बीच एक ऑटो रिक्शा वाले को बुला लिया था। शंकर बाबू के साथ वह रिक्शा में बैठ रवाना हो जाती है।

 

वे दोनों बदरपुर घाट पहुँचते हैं जहाँ से कुछ दूर उसके पिता का गाँव कालाडूमरा था। वे लोग घाट के किनारे से पैदल ही चलकर गाँव जाते हैं। रास्ते में मिनती शंकर बाबू से कहती है, ‘काकू, आप लोगों ने तो मुझे क्षण भर में पराया कर दिया, पर मैं आप लोगों को नहीं भूलूँगी। पिताजी और माँ का खयाल रखिएगा। वे लोग तो अब पूरी तरह से अकेले हो चुके हैं।’

 

शंकर बाबू – ‘माँ रे, तू चिन्ता मत कर। तू अपना जीवन देख संवार। जो कुछ भी हुआ वह तो विधाता का लिखा है। इसमें हम सब क्या कर सकते हैं। कहते हैं न जन्म, मृत्यु तथा विवाह तीन विधाता का करा होता है। मैं जानता हूँ तू दुखी है लेकिन अब ये ही नियती है।’

मिनती शंकर बाबू की बात सुनकर चुपचाप सोचने लगती है। इस बीच वे लोग घर पहुँच जाते हैं। मिनती को घर पहुँचाने पर शंकर बाबू को यथोचित आथित्य करके मिनती के पिता वापस भेज देते हैं। इसके बाद वे मिनती के साथ पूरा समय बिताते हैं। उसे दुखी होने का कोई अवसर नहीं देना चाहते थे। उसकी माँ भी उसे उसकी पसन्द का खाना बनाकर खिलाती है। उसका छोटा भाई तथा बहू भी मिनती को हमेशा किसी-न-किसी तरह कोई काम-काज या फिर बातों में उलझाये रखते ताकि उसे अपने ससुराल तथा देवव्रत की बातें याद न आने पाए। लेकिन मिनती को वे खोया-खोया देख वे भी दुखी हो जाया करते थे। उसे इस तरह देखकर पड़ोस की ही एक दादी ने सोचा कि मिनती के किसी काम में व्यस्त रखा जाए तो शायद उसे इतना सोचने का अवसर न मिले।ये दादी मिनती को बचपन से ही बहुत प्यार करती थी तथा अपनी पोती के समान ही मानती थी। वह आकर एक दिन मिनती से मिलती है तथा अपने साथ पाटी बुनने का प्रस्ताव रखती है। दादी उसे बताती है कि उसकी बनाई पाटी गाँव के साथ-साथ शहर वाले भी खरीद लेते हैं जिससे उनका गुज़ारा हो जाता है। मिनती को वह समझाती है कि उसे इस प्रकार दुखी होकर रहने के बजाए कोई काम में व्यस्त रहना चाहिए ताकि वह अपना सहारा खुद बन सके। मिनती दादी की बात सुनकर पहले तो मना करती है। परन्तु माता-पिता के बहुत समझाने पर वह उनके घर जाकर शीतल पाटी बुनने के लिए राज़ी हो जाती है। वह वहाँ दिन भर पाटी बुन लेती तथा कुछेक पाटी उसकी बिक भी गयी थी जिससे दादी खुश होकर उसे उसकी कमाई का हिस्सा दे देती थी। लेकिन मिनती पाटी बुनते समय अक्सर देवव्रत के साथ हुए हादसे को याद कर रोने लग जाती थी जिससे अब दादी भी परेशान हो चुकी थी। परन्तु वे धैर्य से काम ले रही थी। जानती थी कि मिनती के लिए ये सब इतना आसान नहीं है।

कुछ दिनों बाद उनके घर दूर की एक मासी आती है। ये मिनती की माँ की ममेरी बहन लगती थी। मगर बचपन में ये एक ही मोहल्ले में रहती थी सो दोनों में बहुत ही अच्छी दोस्ती थी। मासी जब मिनती को देखती है तो वे बहुत दुखी हो जाती है। विशेषकर मिनती का दिन भर उदासी और चुप्पी साधे घर के काम-काज करते रहना या फिर पाटी बुनना और शाम को खाना खाकर जब वह सोने जाती को मासी को उसकी सिसकियाँ सुनाई देती। ऐसे ही एक दिन जब मासी और मिनती की माँ घर के पीछे के बरामदे में बैठ कर कुछ कामों में लगी हुई थी। मासी सुपारी काट रही थी तो मिनती की माँ काथा सिलाई में लगी हुई थी तब मासी बात छेड़ती है –‘क्यों रे मनोरमा, तेरी बेटी क्या सारा जीवन ऐसे ही बिता देगी। उसके भविष्य का भी कुछ सोचा है। देख जवान लड़की है। रात-दिन इस तरह रो-रोकर गुजार रही है। अच्छा नहीं लगता। सुन अगर तुझे बुरा न लगे तो मैं एक दो जगह बात चलाऊ?’

 

मनोरमा को जैसे थोड़ा झटका सा लगा। वह बोली— नमिता दी, तुम तो जानती हो कि वह विधवा है। साल भर अपने पति के साथ तो रही है। ऐसे में उसका विवाह हो जाएगा क्या? फिर लड़की की मर्जी भी तो जाननी है। मैं भी जानती हूँ कि इस तरह उसका भविष्य तो नष्ट ही हो जाएगा।

 

नमिता—सुन, मैं एक लड़के को जानती हूँ। बड़ा ही अच्छा लड़का है। उसकी उम्र थोड़ी सी ज्यादा है, लेकिन अपनी मिनती उसके साथ सुखी रहेगी। मेरे ही घर के बगल में रहता है। उनकी माँ को गुज़रे बहुत समय हो गया है। पिता है। दोनों अच्छे ब्राह्मण हैं। कमाई हो जाती है। वह पुर्णिमा ताई याद है तुझे? उन्हीं के किसी दूर के रिश्तेदार लगते हैं। सुन, बात चला लेने में बुराई नहीं है।

 

मनोरमा—अच्छा लड़का है तो उसकी इतने दिनों से शादी क्यों नहीं हुई, दीदी?

 

नमिता—अरे गरीबी के चलते कहाँ हमारे यहाँ लड़के-लड़कियों की शादी समय पर हो पाती है। लड़के की माँ को सास का रोग हो गया था। उसी के इलाज में काफी पैसा खर्चा हो गया। फिर घर की हालत भी ठीक नहीं थी। वह तो भला हो हमारे निताई राय का। उन्हीं के घर में अब पुजारी लगा है। पिछली बैसाख को उन्होंने एक बड़ा सा दुर्गा मंदिर बनवाया था। उनकी कुल देवी है न। सो उन्हें कोई ब्राह्मण तो चाहिए था ही पूजा-पाठ के लिए तो इन्हें रख लिया। अब खाने-पीने की कोई कमी नहीं है। बस एक घरवाली की कमी है। वह पूरी हो जाए तो बस।

 

मनोरमा—क्या उन्होंने तुमसे कुछ कहा है क्या?

 

नमिता: अरे नहीं रे। वह तो लड़के का बाप मुझसे कह रहा था कि अब लड़की एक देख ली जाए। जब से उनकी पत्नी गुज़री है, दोनों बाप-बेटे बहुत मुश्किल में हैं। खाने की कमी नहीं है, लेकिन पुरुष मानुष के लिए तीनों समय खाना पकाकर खाना कोई आसान काम है क्या?

 

मनोरमा – सुनो। मैं तो बात नहीं करूंगी। उसे देख कर ही मेरा जी घबराने लगता है। बात करते डर लगता है। तुम ही बात करो। उसके पिता को भी तुम ही मनाना। जानते तो हो कि लाडली बेटी है।

 

नमिता—तू अगर चाहे तो मैं जमाई बाबू से बात कर लूंगी। पीछे हटना नहीं। मुझसे तो मिनती की ये हालत देखी नहीं जा सकती। बेचारी।

दो-तीन दिन में नमिता लड़के के बारे में सारी बातें अच्छी तरह से पता लगा लेती है। वह मिनती के पिता से इस बारे में बात करती है। इधर लड़के वालों को भी वही मिनती के बारे में बताती है। लड़के के पिता पहले तो मिनती के विधवा होने की बात से रिश्ते को मानने से इनकार कर देते हैं, लेकिन जब नमिता उन्हें मिनती के गुणों के बारे में बताती है तथा उन्हें समझाती है कि बड़ा उम्र का लड़का है, उसे अब दूसरी कोई कन्या नहीं मिलेगी, तो वे भी मान जाते हैं। दोनों पक्षों में बातों का सिलसिला शुरू होता है। इधर मिनती को इसकी खबर तक न थी। वह तो अपने दिवंगत पति की यादों को समेटे शीतल पाटी बुनने में लगी हुई थी।

एक दिन उसकी माँ ने समय देखकर दोपहर के खाना खाने के बाद सोते समय उससे पूछा तो मिनती ने पुनःविवाह से साफ-साफ मना कर दिया। मिनती की माँ को जिस बात का भय था इतने दिनों से वह होता देख उन्हें आशंका होने लगी कि कही लड़की के मना कर देने पर बात बिगड़ गयी तो जग हसाई हो जाएगी। वह मिनती को बहुत स्नेह के साथ समझाते हुए कहती है कि उसका पूरा जीवन इस प्रकार बर्बाद हो जाए तो सही न होगा। मिनती अपनी माँ की बात सुनकर पूछती है कि –‘माँ क्या ज़रूरी है कि एक स्त्री को किसी पुरुष का ही सहारा लेकर पूरा जीवन गुज़ारना होगा?’ तब मिनती की माँ उसे समझाती है कि ज़रूरी नहीं कि किसी पुरुष का सहारा लेकर वह जीवन बिताए। लेकिन किसी का सहारा बनना भी ज़रूरी होता है। उसके माँ के समझाने पर मिनती दुबारा कहती है कि ‘जब मैंने मेरे ससुर जी से भी यही कहा था कि वह उनका सहारा बनेगी तो उन्होंने तो मुझे ये कहा कि मैं अपना जीवन उनके पीछे क्यों बर्बाद करू। बल्कि वे अकेले किसी तरह अपना जीवन जी लेंगे। मुझे तो उन्होंने इसके लायक भी नहीं समझा।’ इतना कहकर मिनती रोने लगती है। तब माँ कहती है –‘देख तेरे ससुर जी अकेले नहीं है। उनकी पत्नी साथ है। यानी उनकी जीवन-साथी साथ में है। लेकिन तू सोच तेरे जीवन में कोई साथी है। जिसे तूने साथ फेरे लेकर वरा वह तो चला गया अकेला छोड़ कर। तेरा अब इस संसार में है ही कौन? देख मेरी बच्ची। इस प्रकार की जिद छोड़ दे। इतना लम्बा जीवन जीवन-साथी के बिना बहुत मुश्किल होगा। देख हमने जो लड़का देखा है वह भला-चंगा है। अकेला है। उसकी माँ नहीं है केवल पिता है। तेरे बारे में सब जानते हुए भी उन लोगों ने रिश्ते के लिए हामी भरी है। हमने बात भी कर ली है। कुछ दिनों में तुझे देखने आएंगे। तू मना मत कर। मेरी बात मान जा। तेरे पिता का मान रख ले बेटी। इस प्रकार अपना जीवन यू ही बर्बाद मत कर। शास्त्रों में भी विधवा विवाह का विधान है। तुझे याद है न तुलसी माता की कहानी। मान जा मेरी लाडली।’

 

मिनती अपने माँ के समझाने पर तैयार हो जाती है। तय दिन पर लड़का और लड़के का पिता उसे देखने आते हैं। फिर दोनों पक्षों में बात होती है तथा विवाह की तारीख पक्की कर दी जाती है। मिनती का पहला विवाह बैसाख माह में हुआ था लेकिन दूसरे विवाह के लिए जब दुबारा कुण्डली देखी जाती है तो सावन महीने की तिथि तय होती है। इस बीच मिनती के मन में कुछ उधेरबुन सी होने लगती है। वह देवव्रत के माता-पिता को किसी प्रकार भूल नहीं पाती है। वह अपने पिता से उनकी खबर लेने तथा उसके पुनः विवाह की बात भी बताने की सोचती है। उसके पिता बेटी की बात सुनकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं। लेकिन मिनती उन्हें अपना वास्ता देकर उन्हें अपने पहले ससुराल के गाँव खिरतुआ भेज देती है। मिनती के पिता जब गाँव जाते हैं और उसके ससुराल वालों से मिलते है। देवव्रत के माता-पिता मिनती के पिता से मिलकर बहुत आश्चर्यचकित होते हैं। उन्हें इस बात की आशा ही नहीं थी कि वे उन्हें इतने दिनों तक याद भी रखेंगे। देवव्रत के पिता को जब मिनती के दूसरे विवाह का पता चलता है तो वे सजल नेत्रों से मिनती के सौभाग्य की कामना करते हैं। वही उनकी पत्नी भी मिनती को शंख और सिन्दुर तथा आलता लाकर मिनती के पिता को देती हुई कहती है –‘हमारे भाग्य में होता तो हम बहू को हमेशा शंख-सिन्दुर से लदा हुआ देखते। लेकिन नियति के आगे किसका बस चलता है। खैर अच्छा ही हुआ उस अभागिन के लिए। भगवान उसे सुखी रखे। उसने यहाँ रहते हमारी जितनी सेवा की है उसी का पुण्य फल है।’ इतना कहते-कहते वह फूट-फूट कर रोने लगती है। देवव्रत के पिता उन्हें किसी प्रकार दिलासा देने लगते हैं।

मिनती के पिता को अपने पुराने समधियों की हालत देख बहुत दुख होने लगता है। वे चाहते हुए भी उनके लिए कुछ नहीं कर सकते थे। वृद्धावस्था में उन्हें देखने के लिए कोई नहीं था। लेकिन दोनों दम्पति का जीवट बड़ा ही सख्त था। वे बेटे के मृत्यु को पचा तो नहीं पा रहे थे लेकिन जितना जीवन वे विधाता से लेकर आए थे उसे तो जीना ही था सो बेटे की यादों के सहारे जी रहे थे। मिनती के पिता उनसे कुछ नहीं कह पाते हैं। वे रुधे हुए कण्ठ से उनसे विदा लेकर चले आते हैं। मिनती जब अपने पिता से उनके बारे में पूछती है तो वे कुछ ढंग से कह नहीं पाते। परन्तु मिनती सबकुछ समझ जाती है। वह रसोई में जाकर फूट-फूट कर रोने लगती है। काफी देर रो लेने के बाद अपने आँसुओं को पोछ कर वह कुछ देर सोचती है। वह अपने पिता के पास दुबारा जाकर थोड़ी विरक्ति के स्वर में पूछने लगती है –‘आप सब लोग मुझे मारने पर क्यों तुले हुए हैं? क्यों मेरा विवाह कराना चाहते हैं। उनके माता-पिता की हालत देखकर भी आप लोगों को कुछ तरस नहीं आता?’ तब मिनती के पिता उसे देवव्रत की माता जी के द्वारा दिया हुआ शंख, सिंदुर तथा आलता देकर कहते हैं कि –‘देख माँ तेरी सास ने ही तुझे आशीर्वाद देकर ये सब भेजा है। अब तो वे लोग भी चाहते हैं कि तू विवाह करके नए घर चली जाए। तुझे भले ही लग रहा हो कि तेरे साथ हम सब जोर जबरदस्ती कर रहे हैं लेकिन तू ही सोच हम माँ-बाप आज है कल नहीं। तेरे सास-ससुर भी अपने बेटे की मृत्यु से इतने दुखी और निराश हो चुके हैं कि वे कितने दिन और जीएंगे इसका भी कोई ठिकाना नहीं है। तेरा जीवन तो आगे पड़ा हुआ है। क्या तू नहीं चाहती कि तेरा भी एक संसार हो जहां तू निःशंक अपना जीवन बिता सके? हमारे बाद तू तेरे छोटे भाई पर बोझ बनकर रहना चाहती है?’ मिनती को एक समय के लिए जैसे बिजली सी चुभी। क्या वह अपने भाई पर बोझ है? वह कहती है –‘बाबा क्या छोटे ने आपसे कुछ कहा है?’ तब वे कहते हैं ‘देख उसने मुझसे कुछ कहा नहीं है। लेकिन मैं भी बाप हूँ। सब समझता हूँ। वह तुझे कुछ कहेंगे तो नहीं लेकिन उनका भी परिवार बड़ा हो रहा है। छोचे की बहू के गोद में बच्चा देखकर तुझे मन नहीं होगा कि काश तेरा भी घर होता, संतान होती तो तू भी कितनी सुखी होती। पुराने जमाने में विधवा बहने अपने पिता या भाई के घर ही आकर सारा जीवन रह जाती थी लेकिन तब का समय अलग था। सामाजिक नियम कानून व्यवस्थाएँ सब बहुत कठोर थे। परन्तु आज का समय बड़ा कठिन है। इसलिए तुझे समझा रहा हूँ। तेरे पर कोई जोर-जबरदस्ती भी नहीं करूंगा। लेकिन अब तुझे निर्णय लेना होगा। ’

मिनती अपने पिता की बात अंततः मान लेती है। तय तिथि पर उसका विवाह होता है। फिर वही चतुर्थ मंगल की घड़ी आती है। वह और उसका दूसरा पति सुधाकर शीतल पाटी को उलटा-पुलटा लपेटकर घर के अंदर प्रवेश कर रहे होते हैं। मिनती अपनी पहली शादी की बात को याद करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करते हुए गृह-प्रवेश करती है कि इस बार वह किसी भी प्रकार अपने जीवन में कोई अनहोनी नहीं होने देगी। वह उसी रात को अपने बिस्तर पर बिछायी हुई शीतल पाटी को लपेटकर कमरे की छत पर बने बांस के थाक (शेल्फ) पर रख देती है। ये देख उसका पति उससे पूछता है तो वह कोई जवाब नहीं देती है, बस कहती है कि उसे इसके बिना ही सोने की आदत करनी चाहिए।