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रविवार, 23 मार्च 2025

B.com 2nd Sem SEP कृष्ण की चेतावनी

 

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‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश-------------------हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण में ही त्रिदेव तथा समस्त संसार की शक्तियों को दिखाया गया है।

व्याख्या – श्री कृष्ण दुर्योधन को कह रहे हैं कि देखो मेरे भीतर करोड़ों ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश हैं। करोड़ों विजेता, करोड़ो जलपति तथा धन के ईश्वर कुबेर मेरे ही भीतर समाए हुए हैं। करोड़ों रुद्र तथा काल अर्थात् मृत्यु एवं दण्डधारी लोकपाल आदि सब कुछ मेरे ही भीतर समाए हुए है। अर्थात् कवि यह दर्शाना चाहते हैं कि इस संसार की संरचना करोड़ों वर्षों से हो रही है। इस संसार की रचना स्वयं श्रीकृष्ण के द्वारा ही हुई है। अतः उनके ही भीतर संसार के समस्त तत्व समाए हुए हैं। सृष्टि के संचालन के लिए करोड़ों वर्षों से ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश की आवश्यकता थी जो कि स्वयं श्री कृष्ण से ही उपजे हैं। इसी प्रकार सभी मनुष्य, देवता, कुबेर तथा रुद्र एवं मृत्यु सबकुछ ही श्रीकृष्ण की ही संरचना है। श्री कृष्ण दुर्योधन को ललकारते हुए कह रहे हैं कि – हे दुर्योधन यदि तुझमें शक्ति है तो अपनी जंजीर बढ़ा और इन समस्त करोड़ों ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा लोकपालों को बांध सकते हो तो बांध कर दिखाओ। हाँ दुर्योधन इन सभी को बाँध कर दिखाओ।

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‘भूलोक, अतल, पाताल देख---------------------पहचान, इसमें कहाँ तू है।

प्रसंग—प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण दुर्योधन को महाभारत का वास्तविक दृश्य दिखाते हैं।

व्याख्या – श्रीकृष्ण अपने विराट रूप में दुर्योधन को दिखाते हुए कह रहैं हैं कि यह सम्पूर्ण सृष्टि उन्हीं में समाहित है। भूलोक अर्थात् पृथ्वी, अतल अर्थात् पाताल का एक भाग और पाताल भी सभी उनकी सत्ता के अधीन है। वे ही इनके स्वामि है। कृष्ण आगे कहते हैं कि यहाँ समय की मनुष्य तो केवल वर्तमान को देख सकता है परन्तु वे चाहे तो उसे अतीत(बीता हुआ समय) और भविष्य यानि आने वाला कल दोनों ही दिखा सकते हैं। इस जगत का सृजन उन्हीं से हुआ है। वे दुर्योधन को पहले ही महाभारत के युद्ध का दृश्य दिखा रहे हैं, जिसमें विनाश का तांडव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। युद्ध के बाद की भयानक दृश्य का वर्णन करते हुए वह दुर्योधक को दिखाते हैं कि देख धरती मरे हुए लोगों के शवों से ढक गयी है। उसमें अपने-आप को पहचानो, देखों तुम्हारे कारण कितना बड़ा विनाश होने जा रहा है। देख तू भी इनमें कहा है, शायद मृतकों में नहीं है। यहाँ वे दुर्योधन को चेतावनी दे रहे हैं कि उसका भी अंत होगा।

 

 

 

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‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख-------------------------फिर लौट मुझी में आते हैं।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड के नियंत्रक हैं।

व्याख्या – श्रीकृष्ण दुर्योधन से कहते हैं कि – हे दुर्योधन! देख यह आकाश मेरे केशराशि की तरह विस्तृत है। मेरे ही पैरों के नीचे पूरा पाताल लोक है।  मेरी मुट्ठी में तीनों काल अर्थात् अतीत, वर्तमान, भविष्य तीनों ही समाए हुए हैं। मेरा विकराल अत्यंत भयानक रूप देख। यह रूप ही है जो न केवल सृजन अर्थात् जन्म देता है बल्कि संहार भी करता है। यहाँ श्रीकृष्ण का योगेश्वर रूप स्पष्ट होता है जिसमें इस संसार के सभी जीव-जन्तु उन्हीं से उत्पन्न होकर उन्हीं में ही विलीन हो जाते हैं।

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‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन-----------------छा जाता चारों ओर मरण।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण अपने महाविनाशकारी रूप का वर्णन करते हैं जिसमें वे स्पष्ट कर रहे हैं कि वे  केवल सृजनकर्ता ही नहीं बल्कि संहारकर्ता भी है।

व्याख्या—श्रीकृष्ण दुर्योधन से कहते हैं कि जब मैं अपना मुँह खोलता हूँ तो अग्नि की प्रचंड लपटें निकलती हैं। मेरी ही श्वास(सांस) से वायु का जन्म होता है, जिससे प्राणी सांस ले पाते हैं। जहाँ भी मेरी दृष्टि पड़ती है वही सृष्टि निर्मित हो जाती है। अर्थात् उनकी कृपा से ही सृजन होता है। लेकिन जब मैं अपनी आँखें मूँद लेता हूँ तो सम्पूर्ण सृष्टि ही नष्ट हो जाती है। मैं ही सृष्टि का जन्मदाता हूँ और मैं ही संहार करने वाला हूँ।

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‘बाँधने मुझे तो आया है-------------वह मुझे बाँध कब सकता है?

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में वे दुर्योधन से उसकी शक्ति का परिचय मांग रहे हैं तथा उसे बता रहे हैं कि आज तक कोई भी शून्य या सूने वस्तु को साध नहीं सका है।

व्याख्या – श्रीकृष्ण कहते हैं कि—हे दुर्योधन तू जो मुझे बाँधने आया है क्या तेरे पास इतनी बड़ी जंजीर है जिससे की तू मेरे इस विराट स्वरूप को बाँध सके? यदि मुझे तू बाँधना ही चाहता है तो पहले यह अनन्त गगन को बाँधकर दिखा। अर्थात् श्रीकृष्ण का स्वरूप अनन्त गगन की तरह है। वही वे आगे कहते हैं कि इस संसार में आज तक सूने या फिर शून्य को कोई बाँध नहीं सका है। शून्य जब किसी अंक के आगे लग जाता है तो उसका मूल्य घट जाता है परन्तु जब पीछे लगता है तो उसका मूल्य बढ़ जाता है। परन्तु जब वह अकेला रहता है तब उसे न कोई बाँट सकता है न ले सकता है न ही किसी को दे सकता है। शून्य से जब कोई टकराता है तो वह भी स्वयं शून्य में परिवर्तित हो जाता है। मैं स्वयं शून्य हूँ और मुझी से ही सृष्टि का आरंभ हुआ है। अतः मुझे आज तक कब कोई बाँध सका है?

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‘हित-वचन नहीं तूने माना----------------जीवन-जय या कि मरण होगा।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण दुर्योधन को अपना अन्तिम संकल्प की युद्ध होगा और विनाशकारी युद्ध हो जिसमें करो या मरो की स्थिति होगी के बारे में बताते हैं।

व्याख्या – श्रीकृष्ण कहते हैं कि – हे दुर्योधन मैंने तुम्हें समझाने का प्रयास किया। मैंने तुम्हारे हित कई बात कही परन्तु तुम्हें हित वचन अच्छे नहीं लगे। इसलिए तुमने मेरे हित वचनों को नहीं माना। मित्रता का मूल्य तुमने नहीं पहचाना। तो लो अब मैं जाता हूँ। परन्तु जाते-जाते अपनी अन्तिम चेतावनी सुना जाता हूँ। अब कोई याचना नही की जाएगी, अर्थात् कोई भी तुमसे आकर मित्रता करने की बार-बार भीख नहीं माँगेगा। अब सीधे युद्ध होगा। या तो इस युद्ध में कौरव की जीत हो या फिर पाण्डवों की। या तो वे मरेंगे या फिर तुम परन्तु युद्ध होगा ही।

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‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर--------------------फिर कभी नहीं जैसा होगा।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण भयंकर युद्ध की स्थिति के बारे में दुर्योधन को पहले से ही सावधान कर रहे हैं।

व्याख्या – हे दुर्योधन! देखना अब इतना भयंकर युद्ध होगा ऐसा लगेगा कि तारे आपस में टकरा रहे हैं। इस धरती पर आग की तरह एक-एक अस्त्र बरसेंगे। शेषनाग रूपी मृत्यु का फण खुलेगा जिसमें सभी समा जाएंगे। दुर्योधन ऐसा युद्ध होगा जिसमें इतना विनाश होगा कि भविष्य में फिर कभी दुबारा इतना विनाशकारी युद्ध नहीं होगा।

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‘भाई पर भाई टूटेंगे--------------------हिंसा का पर, दायी होगा।’

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण न्याय के लिए कौरव-पाण्डव जो कि वास्तव में एक-दुसरे के भाई थे उनमें युद्ध होने एवं स्वजनों के भाग्य फूटने का दुख की स्थिति के बारे में बता रहे हैं।

व्याख्या – हे दुर्योधन तुम्हारे कारण इस महाभारत के युद्ध में भाई-भाई आपस में एक-दूसरे से लड़ पड़ेंगे। एक-दूसरे को मारने के लिए जहर से भरे बाण उनपर छोड़ेंगे। जो लोग मरेंगे उनके अपने घर वालों पर दुख का पहाड़ तो टूटेगा ही साथ ही स्त्रियों का सौभाग्य फूट जाएगा। लोगों के मरने पर मरे हुए लोगों का भक्षण करने के लिए बाघ और सियारी आएंगे। उन्हें सुख मिलेगा। अर्थात् एक तरफ मनुष्य दुखी होगा तो दूसरी तरफ नरभक्षी पशु सुखी होंगे। अंत में एक दिन तू भी हार कर मृत्यु को गले लगाएगा और भूमि पर तू भी गिरेगा। हे दुर्योधन इतनी बड़ी हिंसा का तू ही दायी होगा।

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थी सभा सन्न, सब लोग डरे-------निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में हस्तिनापुर की राजसभा का दृश्य वर्णित है जिसमें श्रीकृष्ण की चेतावनी से पूरी सभी सन्न रह जाती है तथा सभी को आभास हो जाता है कि श्रीकृष्ण कोई राजदूत नहीं बल्कि स्वयं ईश्वर का अवतार है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप सबके सामने प्रकट किया और अपनी शक्ति दिखाई तो दरबार में बैठे सभी लोग भयभीत हो जाते हैं। कुछ लोग तो उनके विराट रूप को देखकर लोग या तो बिल्कुल चुप हो जाते या फिर बेहोश ही हो जाते थे। केवल पूरी सभा में दो ही ऐसे व्यक्ति थे जो न तो भयभीत थे न ही हतप्रभ। वे थे धृतराष्ट्र और विदुर। दोनों की मनःस्थिति यहाँ पर अलग थी। धृतराष्ट्र जो कि जन्मान्ध थे वे अपनी आँखों से कुछ नहीं देख पा रहे थे लेकिन उनकी आत्मा कृष्ण की दिव्य शक्ति को अनुभव कर पा रही थी। वही विदुर जो हमेशा धर्म और सत्य के मार्ग पर थे, श्रीकृष्ण के इस दिव्य रूप को देखकर अपार आनंद और संतोष प्राप्त कर रहे थे। जहां सभी लोग भयभीत थे वही धृतराष्ट्र और विदुर ही हाथ जोड़े खड़े थे। दोनों ही श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप से प्रसन्न थे एवं बिना किसी डर के दोनों ने उनके विराट स्वरूप पर स्वीकार कर लिया था। वे धृतराष्ट्र जो कि पुत्र प्रेम में अंधे होने के बावजूद भी उन्होंने सच्चाई को समझ लिया था अतः वे उनकी जय-जय कर रहे थे। वही विदुर जो कि श्रीकृष्ण के भक्त थे अतः उनके लिए यह ईश्वरीय सत्य अत्यंत सुखकारी था। इसलिए वे भी जय-जय कर रहे थे।

शनिवार, 22 मार्च 2025

B.com 2nd Sem SEP कृष्ण की चेतावनी व्याख्या

 

कृष्ण की चेतावनी

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दुर्योधन वह भी दे ना सका------पहले विवेक मर जाता है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में दुर्योधन की ईर्ष्या एवं विवेकहीन कृत्य की वर्णना की जा रही है।

व्याख्या – जब कृष्ण ने दुर्योधन से आधे राज्य के बदले केवल पाँच गाँव माँगे तो दुर्योधन क्रोधित हो जाता है और वह कृष्ण से कहता है कि वह पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर की भूमि भी नहीं देगा। कवि आगे कहते हैं कि दुर्योधन यह भी न दे सका पाण्डवों को। यदि वह देता तो समाज उसे आशीर्वाद देता परन्तु उसके मना करने पर समाज को भी बुरा लगा। उलटे दुर्योधन ने मूर्खता दिखाते हुए वह कृष्ण को ही बन्दी बनाने लगा। जो कि असाध्य है क्योंकि कृष्ण  स्वयं भगवान है, उन्हें बांधना असंभव है। असाध्य को जब दुर्योधन साधने चला तो कवि कहते हैं कि मनुष्य का नाश जब सिर पर चढ़ता है तो पहले विवेक नाश हो जाता है।

 

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हरि ने भीषण हुंकार किया --------हाँ, हाँ दुर्योधन बाँध मुझे।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कृष्ण के क्रोध एवं उनकी शक्ति का वर्णन करते हैं।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि जैसे ही दुर्योधन कृष्ण को बन्दी बनाने के लिए उनकी तरफ बढ़ता है तो कृष्ण भीषण हुंकार करते हैं तथा अपना स्वरूप विस्तार करते हुए विश्वरूप धारण करते हैं। उनके विस्तृत रूप देखकर सारे दिग्गज अर्थात् दिग्विजयी योद्धा भी डर के मारे डग-मग होकर डोलने लगते हैं। भगवान कृष्ण तब क्रोधित होकर दुर्योधन को बोलते हैं – हे दुर्योधन अपनी जंजीर लेकर आओ और आगे बढ़ो और साध मुझे। हाँ दुर्योधन मुझे बाँध। भगवान कृष्ण यहाँ दुर्योधन को चुनौति देते हैं।

 

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यह देख गगन मुझमें लय है--------संहार झूलता है मुझमें।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कृष्ण के विराट स्वरूप के बारे में बता हैं।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि जब दुर्योधन को कृष्ण चेतावनी देते हैं तथा उसे अपने को बाँधने के लिए ललकारते है तब वे कहते हैं – यह देख दुर्योधन यह सम्पूर्ण गगन(आकाश) मुझमें समाया हुआ है।  यह देख दुर्योधन यह पवन भी मुझमें मिला हुआ है। सारे झंकार अर्थात् संसार में जितना नाद (आवाज़) ताल, लय, शब्द सबकुछ मुझमें विलीन है अर्थात् समाया हुआ है। कवि कहते हैं कि समस्त ध्वनियाँ, कंपन और संसार की समस्त चहल-पहल उनके भीतर समायी हुई है। यह उनकी आत्मा की व्यापकता और अखंडता को दर्शाता है। कृष्ण दुर्योधन से यह भी कहते हैं कि उनमें ही अमरत्व एवं विनाश(संहार) दोनों समाया हुआ है। अर्थात् सृष्टि के सृजन तथा विनाश दोनों ही वे स्वयं है।

 

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उदाचल मेरा दीप्त भाल------------सब हैं मेरे मुख के अन्दर

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप का चित्रण करते हुए बताते हैं कि कृष्ण दुर्योधन को अपने दिव्य, अनंत और व्यापक रूप को दर्शा रहे हैं, जो सम्पूर्ण सृष्टि को अपने भीतर समाहित किए हुए है।

व्याख्या – यहाँ उदयाचल(पूर्व दिशा की ओर सूर्य का उदित होना) को श्रीकृष्ण के चमकते हुए मस्तक(भाल) की उपमा दी गई है जो तेज और ज्ञान का प्रतीक है। इसका अर्थ है कि भगवान का मुख मण्डल सूर्य की तरह प्रकाशवान और दिव्य है। कवि कहते हैं कि कृष्ण का वक्षस्थल(छाती) संपूर्ण पृथ्वी के समान विशाल बताया गया है। जिससे यह संकेत मिलता है कि वे समस्त ब्रह्माण्ड को धारण किए हुए हैं।  आगे कि पंक्ति में कृष्ण की भुजाओं की अपार को दर्शाया गया है। उनकी भुजाएँ इतनी विशाल है कि वे पूरी सृष्टि को अपने घेरे में ले सकते हैं।

 

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दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख---शत कोटी

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने श्रीकृष्ण के विश्वरूप को दर्शाया है जो कि दुर्योधन को चुनौति दे रहा है।

व्याख्या – कृष्ण दुर्योधन को ललकारते हुए कह रहे है कि यदि तेरी आँखें है, यदि उन आँखों में शक्ति है तो देख दुर्योधन। यह देख सारा ब्रह्माण्ड मुझमें समाया हुआ है। संसार के समस्त चर-अचर अर्थात् चलने वाले और एक ही स्थान पर रह जाने वाले अचल जीव-जन्तु, पूरा संसार, नष्ट होने वाले जीव हो अथवा अविनाशी जीव जो कभी नष्ट नहीं होते ऐसे सभी जीव मेरे ही अंदर है। मनुष्य हो चाहे देवता हो चाहे सुर या असुर, राक्षस सब मेरे ही भीतर है। इस पूरे ब्रह्माण्ड में करोड़ो सूर्य और चन्द्रमा, करोड़ो समुद्र, नदियाँ, झरने सबकुछ मेरे ही भीतर समाया हुआ है।

मंगलवार, 11 मार्च 2025

शंबूक व्याख्या

 व्याख्या: जगदीश गुप्त द्वारा लिखित 'शंबूक' की इन पंक्तियों में समाज में व्याप्त विषमता, अन्याय और शोक का सजीव चित्रण किया गया है। 

"लगी पड़ने स्याह गोरी देह, हो रहा विष दंश का संदेह" इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि ब्राह्मण पुत्र की देह स्याह अर्थात् नीला पड़ने लगा है। ऐसा लग रहा है जैसे कि किसी सर्प से उसे कांटा है। विष के प्रभाव से उसका शरीर नीला पड़ गया है।

"कौन जाने कहां कैसा नाग, बुझा मेरा वंश दीपक आज" न जाने ये नाग कैसा है कहा से आया है एवं इसके काटने से आज मेरे पुत्र की मृत्यु हो गई है। इसके वजह से मेरे वंश का दीपक बुझ गया है। अर्थात् ब्राह्मण का पुत्र उसके वंश के दीपक के समान था जो कि आगे उसका वंश बढ़ाता परन्तु सांप के काटने से उसकी मृत्यु हो गई है। 

"राम यह कैसा ’तुम्हारा राज’" यहाँ कवि ने रामराज्य की आदर्श छवि पर प्रश्न उठाया है। जिस रामराज्य को न्याय और समानता का प्रतीक माना जाता था, वहीं पर एक ब्राह्मण के बेटे की इस प्रकार से मृत्यु होना सही नहीं है। 

"शोक से ब्राह्मण हुआ निःशब्द, घट गये ज्यों आयु के सब अब्द" यहाँ ब्राह्मण वर्ग का मौन रहना और उसकी आयु का घटना यह दर्शाता है कि समाज के संरक्षक और मार्गदर्शक वर्ग भी इस अन्याय के कारण हतप्रभ और लज्जित हैं। नैतिक मूल्यों का पतन हो चुका है।

"प्रजा पर यदि गिरे कोई गाज, ’दोष राजा का’, उठी आवाज" 

कवि कह रहे है कि ब्राह्मण उलाहना देते हुए राम को लक्ष्य करके कह रहा है कि जब प्रजा पर कोई विपत्ति या मुसीबत आती है तो इसमें राजा का ही दोष होता है। क्योंकि राजा पर ही प्रजा की सुरक्षा और पालन पोषण का भार होता है। यहां पर कवि ने सामाजिक जागरूकता को दर्शाया है। प्रजा यह समझने लगी है कि शासक की नीतियों और निर्णयों का प्रभाव समाज पर पड़ता है। रामराज्य में हुए अन्याय का दोष अब राम पर ही मढ़ा जा रहा है।

"जगे पुरजन, लगा होने भोर, मच गया चारों तरफ यह शोर"  ब्राह्मण की करुण पुकार एवं उलाहना सुनकर सारे नगरवासी जागने लगते हैं तथा चारों ओर ये बातें फैल जाती है।यहाँ जनचेतना के जागरण का संकेत है। अन्याय के प्रति लोगों में असंतोष और आक्रोश पनप रहा है। रामराज्य की आदर्श छवि खंडित हो रही है।

"राम–राज नहीं रहा अकलंक, इस कमल में भी सना है पंक" रामराज्य, जिसे निष्कलंक और आदर्श माना जाता था, अब उसमें भी दोष उत्पन्न हो गए हैं। 'कमल में पंक' का अर्थ है कि रामराज्य की निर्मलता और शुद्धता अब कलुषित हो गई है।

शंबूक विस्तृत व्याख्या BA 4th sem

 व्याख्या:

जगदीश गुप्त द्वारा लिखित शंबूक काव्य की इन पंक्तियों में रामराज्य की भव्यता, राजमहल की दिव्यता, और शासन की संरचना को चित्रित किया गया है।

आगे ज्योति मंडित, दीर्घ उन्नत, दिव्य राजद्वार – इन पंक्तियों में राजमहल के द्वार की विशालता और दिव्यता का वर्णन किया गया है। "ज्योति मंडित" से तात्पर्य है कि यह द्वार प्रकाशमय और अलौकिक तेज से युक्त है। "दीर्घ उन्नत" से द्वार की ऊँचाई और भव्यता का संकेत मिलता है।

पीछे शक्ति शाली, लोक रक्षक, राम का दरबार – इस पंक्ति में यह बताया गया है कि इस दिव्य राजद्वार के पीछे वह दरबार है जहाँ राजा राम न्याय करते हैं। यह केवल एक साधारण दरबार नहीं, बल्कि एक ऐसा स्थान है जहाँ शक्ति (सत्ता) और लोक रक्षा (जनता की सुरक्षा) का संतुलन बना हुआ है। राम का शासन धर्म और न्याय पर आधारित है।

ऊपर तोरणों, आच्छादनों, कलशों, ध्वजों की भांति – यहाँ महल की शिल्पकला और उसकी अद्वितीय बनावट का वर्णन किया गया है। "तोरण" यानी महल के प्रवेश द्वार पर बने सजावटी द्वार, "आच्छादन" यानी छतों पर की गई विशेष सजावट, "कलश" यानी शिखर पर रखे गए पवित्र कलश, और "ध्वज" यानी झंडे, जो महल की दिव्यता को और बढ़ाते हैं।

जितने रूप, उतने रंग, जितने रंग, उतनी भांति – यह वाक्य महल की विविधता और उसकी सौंदर्यपूर्ण भव्यता को दर्शाता है। यहाँ पर यह संकेत दिया गया है कि महल का हर कोना अलग-अलग रंगों, रूपों और शैलियों से सजा हुआ है, जो उसे अत्यंत आकर्षक और राजसी बनाता है।

समग्र रूप से, इन पंक्तियों में राम के दरबार की अद्वितीय भव्यता और न्यायपरायणता का चित्रण किया गया है, जो एक आदर्श शासन व्यवस्था का प्रतीक है।



व्याख्या:

इन पंक्तियों में अयोध्या की भव्यता, सामाजिक व्यवस्था, और ब्राह्मण के पुत्र  की मृत्यु से उपजे शोक व आक्रोश का चित्रण किया गया है।

पहला खंड: अयोध्या का वैभव और व्यवस्था

"सहज प्रहरी, दंडधारी हर प्रहर, हर दिशा उल्लास की उठती लहर" यहाँ अयोध्या की सुरक्षा व्यवस्था और अनुशासन का वर्णन किया गया है। "सहज प्रहरी" से तात्पर्य उन सैनिकों से है जो स्वाभाविक रूप से नगर की रक्षा में तैनात हैं। "दंडधारी" शब्द प्रशासनिक शक्ति और अनुशासन का प्रतीक है, जो अयोध्या में हर समय सक्रिय है। "हर दिशा उल्लास की उठती लहर" इस बात को इंगित करता है कि यह नगर समृद्ध, सुव्यवस्थित और उत्सवपूर्ण वातावरण से भरा हुआ है।

"यह अयोध्या का हृदय प्रत्यक्ष है, कौन इससे अधिक है समकक्ष है" इस पंक्ति में अयोध्या की श्रेष्ठता का चित्रण किया गया है। इसे आदर्श राज्य और न्याय का केंद्र माना गया है। प्रश्न के रूप में पूछे गए इन वाक्यों में गर्व और आत्मविश्वास झलकता है कि इस नगर की बराबरी करने वाला कोई अन्य राज्य या नगर नहीं है।

दूसरा खंड: एक विषादपूर्ण घटना

"चीर कर शाहनाइयों का नाद, बेधता किसका असीम विषाद" यहाँ विपर्यय (विरोधाभास) का चित्रण किया गया है। एक ओर तो अयोध्या में उल्लास और आनंद का वातावरण है, दूसरी ओर किसी के "असीम विषाद" (अत्यधिक दुःख) को वह खुशी भेद रही है। "शाहनाइयों का नाद" यानी उत्सवों और राजकीय वैभव की ध्वनि को किसी करुण क्रंदन ने चीर दिया है। यह संकेत करता है कि अयोध्या में कोई ऐसा अन्याय हुआ है जो इसके हर्षोल्लास पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है।

"शब्द कर्कश बोलता है कौन, अमृत में विष घोलता है कौन" यहाँ कवि प्रश्न करता है कि इस आदर्श राज्य में, जहाँ सब कुछ शांति और न्याय से संचालित होता है, यह कठोर और कटु शब्द कौन बोल रहा है? "अमृत में विष घोलता है कौन" – यह संकेत है कि रामराज्य की पवित्रता और न्यायप्रियता को किसी घटना ने कलंकित कर दिया है।

तीसरा खंड: ब्राह्मण का शोक

"शिखा खोले, क्षुब्द ब्राह्मण एक, दे रहा अभिशाप, बाँहें फेंक" यहाँ एक ब्राह्मण का चित्रण किया गया है जो अत्यधिक क्रोधित और क्षुब्ध है। "शिखा खोले" का तात्पर्य यह है कि वह शोकग्रस्त और व्याकुल है, क्योंकि शास्त्रों में किसी ब्राह्मण के खुले शिखा (चोटी) को अपशकुन और अनर्थ का संकेत माना जाता है। वह किसी को (संभवत: समाज या व्यवस्था को) अभिशाप दे रहा है, जिससे उसके आक्रोश और वेदना का पता चलता है।

"भूमि पर उसका तरुण प्रतिरूप, भग्न, निश्चल, यज्ञ का ज्यों यूप" यहाँ बताया गया है कि ब्राह्मण का युवा पुत्र मृत पड़ा है। "तरुण प्रतिरूप" यानी उसका जवान पुत्र, जो अब निष्प्राण है। "भग्न, निश्चल" से उसके शव की दशा का वर्णन है—वह टूटा हुआ और निष्क्रिय पड़ा है, जैसे यज्ञ में उपयोग किया गया "यूप" (बलि के लिए स्थापित लकड़ी का खंभा) बलि के बाद बेकार पड़ा रहता है।

भावार्थ:

जहाँ एक ओर अयोध्या में उल्लास और शांति का माहौल है, वहीं दूसरी  ओर ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु से उत्पन्न दुख के कारण स्थिति बहुत दुखद हो गई है जिससे ब्राह्मण को क्रोध होता है।ब्राह्मण के क्रोध और उसके मृत पुत्र के चित्रण के माध्यम से यह बताया गया है कि समाज को शिक्षा तथा ज्ञान देने वाले को ही यदि सुरक्षा नहीं मिलती है तो फिर इतने उल्लास और हर्ष मनाने की क्या आवश्यकता है।


व्याख्या:

प्रथम खंड: अतीत, वर्तमान और भविष्य की जटिलता

"विगत के आस्तित्व से अनजान, स्वप्न में होता भविष्यत ज्ञान" यहाँ यह बताया गया है कि मनुष्य अक्सर अपने अतीत को भुला देता है, लेकिन भविष्य को लेकर आशंकित और जिज्ञासु रहता है। यह पंक्तियाँ दर्शाती हैं कि समाज अपने इतिहास में हुए अन्यायों से सीख नहीं लेता, बल्कि भविष्य को लेकर स्वप्नों में खोया रहता है।

"रात्रि के पिछले पहर, निस्तब्ध व्यक्ति से ज्यों बोलता प्रारब्ध" रात्रि का अंतिम पहर एक विशेष प्रतीक है, जो परिवर्तन और चेतना का संकेत देता है। जब सब कुछ शांति में डूबा होता है, तब "प्रारब्ध" (भाग्य) व्यक्ति से संवाद करता है। इसका अर्थ यह है कि जब समाज मौन हो जाता है, तब उसके भीतर छिपी नियति या उसके कर्मों का प्रभाव प्रकट होने लगता है।

द्वितीय खंड: ब्राह्मण की करुण पुकार और उसकी गूंज

"उस तरह उसका करुण चीत्कार, पैठ जाता चेतना के पार" यहाँ ब्राह्मण की पुकार को दर्शाया गया है, जो केवल एक सामान्य मृत्यु नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक अन्याय की घोषणा है। उसका करुण क्रंदन केवल सतही तौर पर नहीं सुना जाता, बल्कि वह चेतना के उस स्तर तक पहुँच जाता है जो व्यक्ति और समाज दोनों को झकझोर सकता है।

तृतीय खंड: रामराज्य का मौन और उसकी विडंबना

"शांत फिर भी राम का दरबार, मौन फिर भी भव्य राजद्वार" यह पंक्तियाँ गहरी विडंबना प्रकट करती हैं। ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु के बावजूद, राम का दरबार शांत है, कोई प्रतिरोध नहीं, कोई हलचल नहीं। यह मौन उस सामाजिक तंत्र को दर्शाता है जो अन्याय को देखकर भी प्रतिक्रिया नहीं देता। "भव्य राजद्वार" का "मौन" रहना यह संकेत करता है कि सत्ता और शासक वर्ग इस घटना से प्रभावित नहीं हुआ, वह अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा बनाए रखने में ही व्यस्त रहा।

भावार्थ:

इन पंक्तियों में कवि ने नियति, अन्याय और सामाजिक व्यवस्था की निष्क्रियता को रेखांकित किया है। ब्राह्मण पु की मृत्यु केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरी सामाजिक चेतना पर एक आघात थी। उसका चीत्कार एक प्रश्न की तरह इतिहास में दर्ज हो गया, लेकिन राम का दरबार और अयोध्या की सत्ता उस पर मौन बनी रही। यह मौन केवल शारीरिक नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक और राजनीतिक चुप्पी को दर्शाता है, जो अन्याय को अनदेखा कर देती है।



व्याख्या:

इन पंक्तियों में ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु  के बाद उत्पन्न हुई विक्षोभ, वेदना और सामाजिक संतुलन पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाया गया है। कवि ने अन्याय के परिणामों को अत्यंत प्रभावशाली रूपकों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

प्रथम खंड: यातना और उसका व्यापक प्रभाव

"यातना उसकी दरारें खोल, ला रही थी सृष्टि में भूडोल" ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु  की यातना केवल उसकी व्यक्तिगत पीड़ा तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह संपूर्ण समाज और सृष्टि के लिए एक झटका थी। "दरारें खोल" से तात्पर्य यह है कि यह घटना समाज के भीतर गहरी टूटन और असंतुलन उत्पन्न कर रही थी। "भूडोल" (भूकंप) शब्द इस बात को दर्शाता है कि इस अन्यायपूर्ण हत्या से एक ऐसा हलचल पैदा हो रहा था जो पूरे सामाजिक ताने-बाने को हिला सकता था। यह संकेत करता है कि जब भी समाज में अन्याय होता है, तो वह केवल एक घटना नहीं होती, बल्कि उसकी लहरें दूर तक फैलती हैं और सत्ता की नींव तक को हिला सकती हैं।

द्वितीय खंड: प्रकृति और न्याय की चुनौती

"भूमि पर अघटित घटेगा क्या? सूर्य निज पथ से हटेगा क्या?" यहाँ कवि प्रश्न करता है कि क्या यह घटना इतनी असाधारण और अन्यायपूर्ण थी कि यह प्रकृति के नियमों को भी बदल सकती है? "अघटित घटेगा क्या?"—अर्थात् क्या ऐसा कुछ होगा जो पहले कभी नहीं हुआ? यह प्रश्न सत्ता और समाज के लिए एक चुनौती है कि क्या वे इस अन्याय को स्वीकार करके भी स्वयं को न्यायप्रिय कहेंगे?

"सूर्य निज पथ से हटेगा क्या?"—यह अत्यंत महत्वपूर्ण पंक्ति है। सूर्य के अपने पथ से हटने का अर्थ है कि सृष्टि का संतुलन ही बिगड़ जाए। यहाँ सूर्य को सत्य और न्याय का प्रतीक माना गया है। कवि संकेत करता है कि क्या यह अन्याय इतना बड़ा है कि यह सृष्टि के मूल नियमों को भी हिला देगा?

भावार्थ:

इन पंक्तियों में ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु को एक ऐतिहासिक, सामाजिक और प्राकृतिक संकट के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह अन्याय केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज के न्याय और संतुलन पर प्रहार था। कवि ने भूकंप और सूर्य जैसे व्यापक रूपकों का उपयोग करके यह दिखाया है कि जब सत्ता अन्यायपूर्ण निर्णय लेती है, तो उसके प्रभाव केवल एक व्यक्ति तक सीमित नहीं रहते, बल्कि संपूर्ण समाज और उसकी संरचना को प्रभावित करते हैं।

शनिवार, 1 मार्च 2025

BBA 2nd sem SEP समानांतर लकीरें कविता व्याख्या

 

कविता: समानांतर लकीरें (प्रयागनारायण त्रिपाठी)

इस कविता में प्रेम, दूरी, सामाजिक बंधन, भय, और संशय जैसे तत्वों का गहरा चित्रण है। कवि ने प्रेम में आने वाली बाधाओं को "समानांतर लकीरों" के रूप में प्रस्तुत किया है, जो कभी मिलती नहीं हैं। यहाँ प्रत्येक पंक्ति की व्याख्या इस प्रकार है:


1. मैं अभी तक भी न छू पाया तुम्हें

  • यह प्रेमी की वेदना को दर्शाता है। वह अपने प्रिय से निकटता चाहते हुए भी उसे छू नहीं पाता, यानी उनके बीच कोई अदृश्य बाधा है।

**2. क्योंकि ढह पाईं नहीं

अब तक**

  • यह उन सामाजिक, मानसिक, और आत्मिक बाधाओं को इंगित करता है जो प्रेमी और प्रेमिका के बीच हैं।

**3-4. हमारे बीच की कुछ भीतियाँ—

यद्यपि बहुत झीनी**

  • "भीतियाँ" यानी दीवारें, जो उनके प्रेम में अवरोध बनी हुई हैं। ये बहुत पतली (झीनी) हैं, परंतु फिर भी टूट नहीं पाई हैं।

5. पवन-सी क्षीण।

  • यह दर्शाता है कि ये बाधाएँ बहुत हल्की और नाजुक हैं, जैसे हवा की एक हल्की परत, लेकिन फिर भी बनी हुई हैं।

6. अपरिचय की एक थी :

  • पहले अपरिचय (एक-दूसरे को न जानने) की दीवार थी, जो अब समाप्त हो गई है।

**7. वह ढह चुकी है—

कर चुकी है दृष्टि को छू दृष्टि**

  • अब वे एक-दूसरे को जान चुके हैं, एक-दूसरे की आँखों से आँखें मिला चुके हैं, यानी अब वे अजनबी नहीं रहे।

**8. परिचय ख़ूब :

पर अभी हैं और भी :**

  • प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे से भली-भाँति परिचित हो चुके हैं, लेकिन अब भी कुछ और बाधाएँ शेष हैं।

**9-10. जैसे कि कायरता—

(कि आत्मा की अटल जो माँग,**

  • प्रेमिका (या प्रेमी) की कायरता एक बड़ी बाधा है। वह अपने हृदय की सच्ची भावना को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती।

**11-12. तुम बस खोजती रहती

उसी से भागने की राह)—**

  • प्रेमिका अपने भीतर के प्रेम को पहचानते हुए भी उससे बचने या भागने का रास्ता खोज रही है।

**13-14. और संशय

(यह कि पीपर-पात-सा**

  • संदेह (संशय) भी एक बाधा है। यह संशय शायद प्रेमी के मन की अस्थिरता को लेकर है।

**15-16. चल है पुरुष-मन)

और भय।**

  • पुरुष का मन पीपल के पत्ते की तरह चंचल होता है, यही संशय प्रेमिका के मन में भय पैदा करता है।

**17-18. (जग क्या कहेगा?

—क्षुद्र जग!)**

  • प्रेमिका समाज के डर से प्रेम को स्वीकार नहीं कर पाती। कवि इसे "क्षुद्र जग" कहकर इसकी संकीर्ण सोच की आलोचना करता है।

**19-20. और शायद पाप

(क्योंकि केवल**

  • प्रेमिका इस प्रेम को शायद 'पाप' मानती है, क्योंकि समाज ने प्रेम को नैतिक और धार्मिक नियमों के दायरे में बाँध रखा है।

**21-22. ग्रंथि-बंधन-दंभ ही है

पुण्य की ध्रुव माप!**

  • समाज ने पुण्य और पाप के जो मापदंड बनाए हैं, वे केवल ग्रंथियों (मानसिक उलझनों), बंधनों और दंभ (अहंकार) पर आधारित हैं।

23. जय हो! धन्य)।

  • यह एक व्यंग्यपूर्ण कथन है। कवि कहता है कि यदि यही पुण्य है, तो "जय हो"।

**24-25. तो यही हो,

ओ सती!**

  • प्रेमिका को "सती" कहकर कवि व्यंग्य करता है कि यदि वह प्रेम को स्वीकार करने के बजाय त्याग और संयम को अपनाने में ही पुण्य मानती है, तो यही सही।

**26-27. तो नहीं छू पाए तुमको,

ओ अछूती पुण्य!**

  • कवि कहता है कि अगर तुम इतनी पवित्र (अछूती) हो कि प्रेम को स्वीकार नहीं कर सकतीं, तो मैं तुम्हें कभी छू नहीं पाऊँगा।

**28-29. मेरे स्पर्श का अंगार;

तो सदा चलती रहो तुम**

  • प्रेमी का प्रेम तीव्र और जलता हुआ है, लेकिन यदि प्रेमिका इस प्रेम को नहीं स्वीकार सकती, तो वह अपनी राह पर चलती रहे।

**30-31. तो सदा चलते रहें ये स्वप्न

तो सदा चलता रहूँ मैं :**

  • प्रेम एक असंभव स्वप्न बनकर चलता रहेगा, और प्रेमी इसी अधूरे प्रेम के साथ जीवन में आगे बढ़ता रहेगा।

**32-34. ये समानांतर लकीरें तीन

(शायद चार)।**

  • "समानांतर लकीरें" प्रेमी और प्रेमिका के रिश्ते का प्रतीक हैं। वे एक-दूसरे के बहुत करीब होते हुए भी कभी मिल नहीं पाते।

कविता का सार

यह कविता प्रेम की उन बाधाओं को दर्शाती है जो समाज, भय, संशय, और आत्म-संकोच से उत्पन्न होती हैं। प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे के करीब होते हुए भी समानांतर रेखाओं की तरह कभी मिल नहीं पाते। समाज की संकीर्ण सोच और व्यक्ति के मन में बसे संदेह प्रेम को अधूरा छोड़ देते हैं।

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

BA 2nd Sem SEP विद्रोहिणी कविता व्याख्या व केंद्रीय भाव

 

व्याख्या:

सुशीला टाकभौरे की कविता "विद्रोहिणी" समाज में व्याप्त वंचना, शोषण और बाधाओं के विरुद्ध स्त्री के आत्मसाक्षात्कार एवं विद्रोह की गाथा है। यह कविता दलित स्त्री चेतना, सामाजिक अन्याय और रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष की भावना को प्रकट करती है।

कविता की शुरुआत में कवयित्री यह दर्शाती हैं कि जन्म से कोई भी व्यक्ति विकलांग या सीमित नहीं होता—"माँ-बाप ने पैदा किया था गूँगा!"—बल्कि समाज और उसका परिवेश उसे विकलांगता या सीमितताओं का एहसास कराता है। यह पंक्तियाँ पितृसत्तात्मक और जातिगत शोषण को इंगित करती हैं, जहाँ व्यक्ति को उसकी इच्छाओं के अनुसार स्वतंत्रता नहीं मिलती, बल्कि उसे एक निर्धारित ढांचे में ढालने का प्रयास किया जाता है।

कवयित्री आगे जीवन को एक यात्रा की तरह प्रस्तुत करती हैं, जहाँ "बैसाखियाँ" प्रतीक हैं उन सहारों और परंपराओं का, जिन पर स्त्रियों को जबरन निर्भर किया जाता है। ये बैसाखियाँ सामाजिक नियमों, बंधनों और रूढ़ियों का प्रतीक हैं, जिनके सहारे वह अपने जीवन का सफर तय करती रही हैं। लेकिन जब वह जीवन के ऊँचे पड़ाव (संघर्ष की पराकाष्ठा) पर पहुँचती हैं, तब ये सहारे ही चरमराने लगते हैं। यहाँ यह संकेत है कि जब स्त्री अपनी शक्ति पहचानने लगती है, तो उसे एहसास होता है कि ये बैसाखियाँ अब उसके लिए बाधा बन चुकी हैं।

इसके बाद कविता का स्वर तीव्र होता है—"विस्फारित मन हुँकारता है—बैसाखियों को तोड़ दूँ!!"—यहाँ विद्रोह की घोषणा है। कवयित्री आत्मा की चटकन और दिल की आग को दिखाकर यह स्पष्ट करती हैं कि उनके भीतर दबी हुई वेदना अब एक विद्रोही स्वर में बदल रही है। यह स्त्री की आत्मस्वीकृति का क्षण है, जहाँ वह रूढ़ियों को तोड़कर अपनी असली शक्ति को पहचानती है।

कविता का अंतिम भाग सर्वाधिक सशक्त है, जहाँ कवयित्री अपने विद्रोही स्वर को और मुखर करती हैं। वे केवल प्रतीकात्मक स्वतंत्रता (छत का खुला आसमान) नहीं चाहतीं, बल्कि पूर्ण स्वतंत्रता (आसमान की खुली छत) की मांग करती हैं। यहाँ "छत" सीमित स्वतंत्रता का और "आसमान" अनंत संभावनाओं एवं असीम स्वतंत्रता का प्रतीक है। यह कविता केवल एक व्यक्ति विशेष की कहानी नहीं, बल्कि समूची स्त्री जाति और वंचित समुदायों की सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती है।


केंद्रीय भाव:

कविता "विद्रोहिणी" सामाजिक रूढ़ियों, पितृसत्ता और जातिगत बंधनों के खिलाफ स्त्री के विद्रोह की अभिव्यक्ति है। यह एक दलित स्त्री की आत्मबोध और आत्मनिर्भरता की घोषणा है। कवयित्री यह दर्शाती हैं कि स्त्री अब परंपरागत सीमाओं में बंधकर नहीं रहना चाहती, बल्कि वह अपनी शक्ति पहचानकर हर दिशा में मुक्त रूप से उड़ान भरना चाहती है। कविता न केवल स्त्री सशक्तिकरण, बल्कि व्यापक सामाजिक बदलाव की आवश्यकता को भी उजागर करती है।

शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

BA 2nd Sem SEP राम की शक्ति पूजा

 कुछ क्षण तक रहकर मौन........ मसक दंड 

पंक्तियों की व्याख्या:

यह अंश सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित महाकाव्य "राम की शक्ति पूजा" से लिया गया है। इस खंड में भगवान राम युद्ध के दौरान महाशक्ति की भूमिका पर विचार करते हैं और लक्ष्मण से संवाद करते हैं।

व्याख्या:

पहली दो पंक्तियों में राम कुछ समय तक मौन रहने के बाद अपने सहज और कोमल स्वर में अपने मित्र (लक्ष्मण) से कहते हैं कि यह युद्ध जीतना कठिन होगा। वे बताते हैं कि अब यह केवल मनुष्य-वानर और राक्षसों का युद्ध नहीं रह गया है, बल्कि स्वयं महाशक्ति (दुर्गा) रावण का पक्ष ले चुकी हैं, क्योंकि रावण ने उन्हें आमंत्रित कर लिया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि शक्ति सदैव उसी के पक्ष में होती हैं, जो उन्हें प्रसन्न कर लेता है।

इसके बाद, राम अत्यंत दुखी होकर स्वीकार करते हैं कि शक्ति अन्याय के पक्ष में खड़ी है और यही युद्ध का सबसे कठिन पक्ष है। उनके नेत्र छलक जाते हैं, कुछ अश्रु पुनः ढलकते हैं, जिससे उनके मानसिक द्वंद्व और वेदना का चित्रण होता है। यह भाव राम के संघर्ष और उनके भीतर के मानवीय पक्ष को दर्शाता है।

अगली पंक्तियों में लक्ष्मण का क्रोध और पराक्रम व्यक्त किया गया है। उनका तेज बढ़ जाता है, और वे अत्यंत क्रोध से भर उठते हैं। उनकी शक्ति इतनी प्रचंड हो जाती है कि वानर (हनुमान) अपने दोनों पैरों से धरती में धँस जाते हैं, मानो यह धरा भी इस अद्भुत तेज को सहन करने में असमर्थ हो।

मुख्य भाव:

  • राम को यह ज्ञात होता है कि शक्ति केवल धर्म या न्याय के पक्ष में नहीं होती, बल्कि जो उसे प्रसन्न करता है, उसके पक्ष में जाती है।
  • अन्याय के साथ शक्ति होने से राम के मन में चिंता उत्पन्न होती है।
  • लक्ष्मण का प्रचंड तेज दिखाता है कि वे इस परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार हैं।
  • यह अंश राम के मनोवैज्ञानिक द्वंद्व, शक्ति के प्रति उनकी समझ, और लक्ष्मण के युद्ध के प्रति उत्साह को प्रकट करता है।

यह पंक्तियाँ शक्ति की महत्ता, धर्म-अधर्म के संघर्ष, और राम के मानसिक द्वंद्व को अत्यंत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती हैं।

स्थिर जांबवान.......संस्कृति अपार।


पंक्तियों की व्याख्या:

यह अंश सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित "राम की शक्ति पूजा" महाकाव्य से लिया गया है। इस खंड में युद्धभूमि का वातावरण, विभिन्न पात्रों की मनोदशा और स्वयं राम के हृदय में उठ रहे द्वंद्व को दर्शाया गया है।

व्याख्या:

पहली दो पंक्तियों में जांबवान को स्थिर और गंभीर दिखाया गया है। वे अनुभवी और विवेकशील हैं, इसलिए वे पूरी परिस्थिति को समझने की चेष्टा कर रहे हैं। सुग्रीव व्याकुल हो जाते हैं, मानो उनके हृदय में कोई गहरा घाव हो गया हो। इससे स्पष्ट होता है कि स्थिति अत्यंत चिंताजनक हो गई है, जिससे वानर सेना में भी तनाव व्याप्त है।

विभीषण, जो अब राम की सेना में हैं, युद्ध को लेकर निश्चित भाव में हैं। वे आगे की रणनीति तय करने का प्रयास कर रहे हैं। किन्तु पूरे वातावरण में एक विचित्र मौन और तनाव व्याप्त है, जिससे युद्ध की भीषणता का आभास होता है।

इसके बाद, राम अपने सहज रूप में संयत होते हैं और गंभीर स्वर में कहते हैं कि उन्हें यह दैवी विधान समझ में नहीं आ रहा है। वे यह देखकर आश्चर्यचकित हैं कि रावण, जो अधर्म में लिप्त है, फिर भी शक्ति का समर्थन पा रहा है, जबकि वे स्वयं धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं, फिर भी शक्ति उनसे विमुख है। यह स्थिति राम को गहरे मानसिक संघर्ष में डाल देती है।

राम समझते हैं कि यह मात्र एक युद्ध नहीं है, बल्कि शक्ति का एक विचित्र खेल है। वे भगवान शंकर को पुकारते हैं, मानो उनसे इस स्थिति की व्याख्या और समाधान की प्रार्थना कर रहे हों।

अंतिम पंक्तियों में, राम यह स्वीकार करते हैं कि वे बार-बार अपनी शक्ति से प्रचंड बाणों की वर्षा कर रहे हैं, जो इतने प्रबल हैं कि संपूर्ण सृष्टि को पराजित कर सकते हैं। ये बाण तेज और शक्ति का पुंज हैं, जिनमें सृष्टि की रक्षा करने की क्षमता है। इनमें ही पतनोन्मुख, अनैतिक संस्कृतियों का विनाश करने का सामर्थ्य है। परंतु फिर भी, रावण की शक्ति क्षीण नहीं हो रही, जिससे राम और भी अधिक चिंतित हो जाते हैं।

मुख्य भाव:

  • युद्ध का संकटपूर्ण और तनावपूर्ण वातावरण
  • राम का मानसिक द्वंद्व, क्योंकि शक्ति अधर्म के साथ प्रतीत हो रही है।
  • धर्म बनाम अधर्म की दुविधा—शक्ति का न्यायप्रिय न होना।
  • राम की शक्ति और उनके बाणों की महत्ता, जो सृष्टि को विनाश और रक्षा दोनों कर सकते हैं।
  • शिव का स्मरण, जो यह दर्शाता है कि राम दैवीय सहायता की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं।

यह अंश राम के भीतर के संघर्ष, युद्ध की जटिलता और शक्ति के रहस्यमय स्वरूप को प्रभावी रूप से व्यक्त करता है।


बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

Bsc 2nd Sem SEP चंद्र गहना से लौटती बेर

 

कविता का सारांश:
केदारनाथ अग्रवाल की कविता "चंद्र गहना से लौटती बेर" ग्रामीण जीवन की सुंदरता, सरलता और श्रमशीलता का चित्रण करती है। इसमें कवि ने प्रकृति और मनुष्य के गहरे संबंध को उजागर किया है।

कविता में "चंद्र गहना" एक पहाड़ी स्थान या प्रकृति का रमणीय स्थल हो सकता है, जहाँ से लौटते हुए व्यक्ति अपने आसपास के ग्रामीण परिवेश को देखता है। वह खेतों, नदियों, पेड़ों और मेहनतकश किसानों के जीवन को निहारता है। यह कविता गाँव के उन लोगों के परिश्रम और संघर्ष को दर्शाती है, जो प्रकृति की गोद में रहते हुए अपनी जीविका चलाते हैं।

कवि का दृष्टिकोण श्रम के प्रति आदरभाव का है। वह मानते हैं कि किसान और श्रमिक ही समाज की असली रीढ़ हैं। इस कविता में प्राकृतिक सौंदर्य, श्रम का महत्त्व और गाँव की आत्मीयता एक साथ मिलकर एक मार्मिक चित्र प्रस्तुत करते हैं।

मुख्य विषय:

  1. प्रकृति का सौंदर्य: गाँव की सुंदरता, नदियाँ, खेत, वृक्ष और चिड़ियों का वर्णन।
  2. श्रम का गौरव: किसानों और श्रमिकों की मेहनत को महिमामंडित किया गया है।
  3. ग्राम्य जीवन: ग्रामीण समाज की सरलता, ईमानदारी और आत्मनिर्भरता को रेखांकित किया गया है।
  4. सामाजिक संदेश: मेहनत और ईमानदारी ही सच्चे आनंद और संतोष का स्रोत हैं।

कुल मिलाकर, यह कविता ग्रामीण भारत की जड़ों से जुड़ाव और श्रम के सौंदर्य को दर्शाती है, जिससे पाठक को प्रकृति और मेहनतकश जीवन के प्रति नई दृष्टि मिलती है।

B.com 2nd SEM SEP चौका कविता का सारांश


अनामिका की चौका कविता की विस्तृत व्याख्या

अनामिका की कविता "चौका" एक गहरी सांकेतिकता और जीवन के मूलभूत सत्यों से जुड़ी हुई कविता है। यह कविता नारी के श्रम, सृजन और अस्तित्व की पहचान को उजागर करती है। रोटी बेलने की क्रिया के माध्यम से कवयित्री पृथ्वी, स्त्री, जीवन और श्रम के बीच एक गहरा संबंध स्थापित करती हैं।

१. स्त्री और श्रम का प्रतीकात्मक संबंध

कविता का पहला पंक्ति ही गहरी अर्थवत्ता लिए हुए है—
"मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।"
यहाँ रोटी बेलने की क्रिया केवल एक दैनिक कार्य नहीं, बल्कि सृजन का प्रतीक है। जिस प्रकार पृथ्वी अन्न उपजाती है, उसी तरह स्त्री अपने श्रम से जीवन को बनाए रखती है।

२. प्राकृतिक शक्तियों का समावेश

कवयित्री ने रोटी बेलने की तुलना प्राकृतिक शक्तियों से की है—

  • "ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़।"
  • "भूचाल बेलते हैं घर।"
  • "सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।"

यहाँ ‘बेलना’ केवल शारीरिक श्रम की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि सृजन और विनाश दोनों का प्रतीक है। जिस प्रकार ज्वालामुखी और भूचाल धरती को नया रूप देते हैं, उसी तरह स्त्री भी अपने श्रम और संघर्ष से समाज को आकार देती है।

३. अस्तित्व की निरंतरता और आत्मसाक्षात्कार

कविता के अगले भाग में कवयित्री कहती हैं—
"रोज़ सुबह सूरज में
एक नया उचकुन लगाकर,
एक नई धाह फेंककर
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।"

यहाँ स्त्री का श्रम सूरज के प्रकाश के साथ जुड़ जाता है। हर दिन नया संघर्ष होता है, लेकिन हर सुबह एक नई ऊर्जा भी लाती है। यह स्त्री के अटूट धैर्य और निरंतरता का प्रतीक है।

४. पृथ्वी और स्त्री का गहरा संबंध

"पृथ्वी–जो खुद एक लोई है
सूरज के हाथों में
रख दी गई है, पूरी-की-पूरी ही सामने
कि लो, इसे बेलो, पकाओ,"

इस पंक्ति में कवयित्री ने पृथ्वी को रोटी की लोई की तरह दर्शाया है, जिसे सूरज के ताप में पकाया जाता है। यह प्रतीकात्मकता बहुत गहरी है—

  • जैसे स्त्री समाज और परिवार के बीच खुद को ढालती रहती है,
  • जैसे पृथ्वी ब्रह्मांड की अनगिनत शक्तियों के बीच अपने संतुलन को बनाए रखती है।

५. नारी का आत्मसंघर्ष और आत्मगठन

"और मैं
अपने ही वजूद की आँच के आगे
औचक हड़बड़ी में
खुद को ही सानती,
खुद को ही गूँधती हुई बार-बार"

यहाँ रोटी बनाने की प्रक्रिया को स्त्री के आत्मसंघर्ष और आत्मनिर्माण से जोड़ा गया है। स्त्री न केवल अपने परिवार को संभालती है, बल्कि वह खुद को भी नए सिरे से गढ़ती है, गूँधती है।

६. कविता का सार और संदेश

कविता का अंतिम भाव एक संतोष और गर्व से भरा हुआ है—
"ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।"

यह कविता नारी के श्रम को महिमामंडित करती है, लेकिन साथ ही यह श्रम केवल एक यांत्रिक क्रिया नहीं, बल्कि सृजन की शक्ति का प्रतीक है। पृथ्वी की तरह ही स्त्री भी जीवन का पोषण करने वाली है, और इस भूमिका में उसे एक आत्मसंतोष भी प्राप्त होता है।

निष्कर्ष

"चौका" केवल एक घरेलू कार्य का चित्रण नहीं, बल्कि स्त्री के अस्तित्व, संघर्ष, और सृजनशीलता की गहन अभिव्यक्ति है। अनामिका ने साधारण क्रिया में असाधारण अर्थ भरकर स्त्री के श्रम को एक नई दृष्टि से प्रस्तुत किया है। यह कविता स्त्री के आत्मनिर्माण, उसके संघर्ष और उसके श्रम की गरिमा को रेखांकित करती है।

Bsc 4th sem दौड़ MCQ

 

"दौड़" उपन्यास पर आधारित लघु प्रश्नोत्तरी

(लेखिका: ममता कालिया)

1. बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs)

  1. "दौड़" उपन्यास की लेखिका कौन हैं?
    (A) मन्नू भंडारी
    (B) ममता कालिया
    (C) महादेवी वर्मा
    (D) कृष्णा सोबती

    • उत्तर: (B) ममता कालिया
  2. "दौड़" उपन्यास का मुख्य नायक कौन है?
    (A) अर्जुन
    (B) पवन
    (C) विजय
    (D) मोहन

    • उत्तर: (B) पवन
  3. उपन्यास "दौड़" मुख्य रूप से किस विषय पर केंद्रित है?
    (A) प्रेम और विवाह
    (B) राजनीति और सामाजिक अन्याय
    (C) युवा संघर्ष, महत्वाकांक्षा और प्रतियोगिता
    (D) ग्रामीण जीवन

    • उत्तर: (C) युवा संघर्ष, महत्वाकांक्षा और प्रतियोगिता
  4. पवन किस वर्ग से संबंधित है?
    (A) उच्च वर्ग
    (B) निम्न वर्ग
    (C) मध्यम वर्ग
    (D) राजसी वर्ग

    • उत्तर: (C) मध्यम वर्ग
  5. "दौड़" उपन्यास का मुख्य संदेश क्या है?
    (A) केवल धन अर्जित करना ही जीवन का उद्देश्य है।
    (B) जीवन की सफलता केवल निरंतर दौड़ने में नहीं, बल्कि संतुलन बनाए रखने में है।
    (C) समाज में सफलता सिर्फ भाग्य से मिलती है।
    (D) शिक्षा का जीवन में कोई महत्व नहीं है।

    • उत्तर: (B) जीवन की सफलता केवल निरंतर दौड़ने में नहीं, बल्कि संतुलन बनाए रखने में है।

2. संक्षिप्त उत्तर वाले प्रश्न

  1. "दौड़" उपन्यास का शीर्षक प्रतीकात्मक रूप से क्या दर्शाता है?

    • यह आधुनिक जीवन की अनवरत भागदौड़, प्रतियोगिता और संघर्ष का प्रतीक है।
  2. पवन किस प्रकार की मानसिक एवं सामाजिक चुनौतियों का सामना करता है?

    • वह प्रतियोगिता, पारिवारिक दबाव, सामाजिक अपेक्षाओं और नैतिकता बनाम सफलता के संघर्षों से जूझता है।
  3. पवन का चरित्र किसका प्रतिनिधित्व करता है?

    • पवन मध्यमवर्गीय युवाओं की महत्वाकांक्षा, संघर्ष और समाज में अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद का प्रतीक है।
  4. उपन्यास "दौड़" किस प्रकार के पाठकों के लिए उपयुक्त है?

    • यह युवाओं, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों और समाजशास्त्र में रुचि रखने वालों के लिए उपयुक्त है।
  5. उपन्यास का अंत किस प्रकार की सीख देता है?

  • यह सिखाता है कि सिर्फ सफलता के पीछे भागने से जीवन पूर्ण नहीं होता, बल्कि संतुलन और आत्मसंतोष भी ज़रूरी है।

Bsc 4th sem दौड़ उपन्यास में किन सामाजिक समस्याओं का निरूपण हुआ है?

 

"दौड़" उपन्यास में वर्णित सामाजिक समस्याओं का निरूपण।

लेखिका: ममता कालिया
शैली: सामाजिक यथार्थ एवं मनोवैज्ञानिक उपन्यास

परिचय:

ममता कालिया का उपन्यास "दौड़" भारतीय समाज में मध्यवर्गीय परिवारों के संघर्ष, महत्वाकांक्षाओं और सामाजिक मूल्यों के टकराव को दर्शाता है। यह उपन्यास मुख्य रूप से युवाओं की महत्वाकांक्षा, प्रतियोगिता, नैतिक मूल्यों और पारिवारिक तनावों को उजागर करता है।


सारांश:

"दौड़" उपन्यास का केंद्र बिंदु एक युवा नायक का जीवन संघर्ष है, जो समाज में अपनी जगह बनाने के लिए लगातार एक अनवरत दौड़ में शामिल है।

  1. युवाओं की प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा:

    • उपन्यास का नायक एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार से आता है।
    • वह अच्छी नौकरी, आर्थिक स्थिरता और सामाजिक प्रतिष्ठा पाने के लिए संघर्षरत है।
    • जीवन में आगे बढ़ने की यह दौड़ उसे लगातार मानसिक और शारीरिक रूप से थकाती जाती है।
  2. मध्यवर्गीय समाज की वास्तविकता:

    • परिवार, रिश्ते, समाज की अपेक्षाएँ और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के बीच संघर्ष दिखाया गया है।
    • माता-पिता की उम्मीदें, आर्थिक सीमाएँ और सामाजिक प्रतिष्ठा का दबाव युवा पीढ़ी को तनाव में डालता है।
    • उपन्यास इस बात को दर्शाता है कि कैसे समाज में सफलता को केवल धन और प्रतिष्ठा से आंका जाता है।
  3. नैतिकता बनाम सफलता का द्वंद्व:

    • नायक के सामने नैतिक मूल्यों और सफलता के बीच टकराव की स्थिति आती है।
    • उसे तय करना होता है कि वह इमानदारी और सिद्धांतों पर चले या फिर शॉर्टकट अपनाकर तेज़ी से सफलता की दौड़ में आगे बढ़े।
    • यह संघर्ष कई युवाओं की वास्तविकता को दर्शाता है, जो करियर, समाज और व्यक्तिगत संतोष के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करते हैं।
  4. भागमभाग भरी ज़िंदगी का अंतहीन संघर्ष:

    • उपन्यास का नाम "दौड़" प्रतीकात्मक है, जो यह दर्शाता है कि आधुनिक समाज में हर व्यक्ति किसी न किसी दौड़ में शामिल है।
    • यह सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि पूरे समाज की मानसिकता और उसके बदलते मूल्यों को चित्रित करता है।

मुख्य संदेश:

  • जीवन की सफलता केवल दौड़ में सबसे आगे आने से नहीं मिलती, बल्कि संतुलित जीवन जीने में है।
  • मध्यवर्गीय युवाओं पर सामाजिक और पारिवारिक दबाव बहुत अधिक होता है।
  • प्रतिस्पर्धा के चलते नैतिकता और मूल्यों का क्षरण हो रहा है।
  • व्यक्ति को सिर्फ बाहरी सफलता के बजाय आंतरिक शांति और आत्मसंतोष पर भी ध्यान देना चाहिए।

निष्कर्ष:

"दौड़" उपन्यास केवल एक युवा के संघर्ष की कहानी नहीं है, बल्कि यह आधुनिक समाज के जीवन की कठोर वास्तविकताओं का आईना है। इसमें प्रतियोगिता, सामाजिक अपेक्षाएँ, आर्थिक दबाव और आत्मसंघर्ष को बारीकी से दर्शाया गया है। लेखिका यह प्रश्न उठाती हैं कि क्या यह दौड़ वास्तव में हमें सुख और शांति देती है, या फिर यह सिर्फ एक अंतहीन भागमभाग बनकर रह जाती है?

B.com 2nd SEP वसंत आया रघुवीर सहाय

 

कविता की संपूर्ण व्याख्या

रघुवीर सहाय की यह कविता "वसंत आया" वसंत के आगमन को देखने, अनुभव करने और पहचानने की प्रक्रिया को बहुत ही संवेदनशील और आत्मीय ढंग से व्यक्त करती है। इसमें कवि प्राकृतिक परिवर्तनों को न सिर्फ महसूस करते हैं, बल्कि उन पर एक साधारण व्यक्ति की सहज और सहज बुद्धि से प्रतिक्रिया भी देते हैं।


1. वसंत का अनुभव और उसकी पहचान

कवि बताते हैं कि उन्होंने वसंत के आने को जाना, लेकिन यह किसी आधिकारिक सूचना या कैलेंडर की तारीख़ से नहीं जाना, बल्कि सहज अनुभव से महसूस किया। बहन जिस तरह ‘दा’ (संभवत: "आ गया" कहने का एक घरेलू तरीका) कहकर किसी चीज़ के आगमन की पुष्टि कर देती है, वैसे ही वसंत का आना एक साधारण, अनायास घटने वाली घटना की तरह प्रतीत होता है।

चिड़िया की कू-कू, सड़क पर चलने के दौरान लाल बजरी की चरमराहट, पेड़ों से गिरे पियराए पत्ते—इन सब छोटे-छोटे प्राकृतिक संकेतों के माध्यम से कवि ने जाना कि वसंत आ गया है। यह कोई नाटकीय या महिमामंडित अनुभव नहीं, बल्कि जीवन के साधारण क्षणों में समाया हुआ अहसास है।


2. प्रकृति के सूक्ष्म परिवर्तन और वसंत का सौंदर्य

कवि आगे बताते हैं कि सवेरे छह बजे की ठंडी, ताजी हवा, ऊँचे पेड़ों से गिरे पत्ते और खिली हुई हवा का एक झोंका—ये सभी संकेत वसंत के आगमन की ओर इशारा करते हैं। वह हवा फिरकी-सी आती है और चली जाती है, जैसे क्षणिक रूप से छूकर निकल जाने वाला एक अनुभव।

यह कविता उन अनुभूतियों को पकड़ती है जो किसी विशेष मौसम या बदलाव को दर्शाने के लिए जरूरी नहीं कि बहुत भव्य या स्पष्ट हों। वसंत का आना न कोई बड़ी घोषणा के साथ हुआ, न किसी विशेष आयोजन के तहत, बल्कि यह एक सहज रूप से घटने वाली चीज़ थी, जो चलते-चलते अनुभव हुई।


3. पारंपरिक ज्ञान और व्यक्तिगत अनुभूति में अंतर

कवि बताते हैं कि वसंत का आना उन्हें कैलेंडर से पहले ही पता था, क्योंकि पंचांग और त्योहारों के माध्यम से लोगों को पहले से मालूम होता है कि अमुक दिन बसंत पंचमी होगी, छुट्टी होगी, और यह वसंत का आगमन दर्शाएगा।

साहित्य में भी वसंत का चित्रण बार-बार मिलता है—ढाक के जंगल दहकेंगे, आम के पेड़ों में बौर आएँगे, पपीहे, भौंरे, और कोयल अपनी रचनात्मकता का प्रदर्शन करेंगे। लेकिन इन सब पारंपरिक जानकारियों और कविताओं से अलग, कवि के लिए वसंत का अनुभव एक बहुत ही व्यक्तिगत और साधारण क्षण में हुआ।


4. वसंत की साधारणता और उसके महत्व की पुनर्खोज

कवि इस विचार से प्रभावित होते हैं कि उन्होंने वसंत को पहचाना—"यही नहीं जाना था कि आज के नगण्य दिन जानूँगा / जैसे मैंने जाना, कि वसंत आया।"

यहाँ "नगण्य दिन" (एक सामान्य, महत्वहीन दिन) महत्वपूर्ण है। इसका मतलब है कि वसंत किसी भव्य या प्रतीकात्मक घटना के रूप में नहीं आया, बल्कि एक आम, बीतते हुए दिन में उसकी अनुभूति हुई। यह कविता इस ओर इशारा करती है कि सौंदर्य, प्रकृति, और बदलाव के बड़े अनुभव हमेशा किसी विशेष अवसर या आयोजन में नहीं होते—वे हमारे साधारण जीवन के क्षणों में ही छिपे होते हैं।


कविता का सार और संदेश

  • वसंत सिर्फ कैलेंडर की तारीख़, छुट्टी, या साहित्यिक कल्पनाओं से नहीं जाना जा सकता।
  • इसे महसूस करना एक बहुत ही व्यक्तिगत और सहज अनुभव होता है, जो रोज़मर्रा की जिंदगी के साधारण पलों में मिलता है।
  • जीवन में बड़े बदलाव या सुंदर चीज़ें हमेशा भव्य रूप से नहीं आतीं, वे कभी-कभी अनजाने में, चलते-चलते ही महसूस होती हैं।
  • यह कविता हमें छोटी-छोटी चीज़ों में सुंदरता को देखने और सराहने की प्रेरणा देती है।

निष्कर्ष

रघुवीर सहाय की यह कविता वसंत के अनुभव को एक नए दृष्टिकोण से देखने की सीख देती है। यह दिखाती है कि प्रकृति के बदलाव, मौसम का आना-जाना, और जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियाँ कितनी महत्वपूर्ण हो सकती हैं। वसंत पंचमी का पर्व, कविताओं का चित्रण, और प्रकृति की भव्यता तो अपनी जगह हैं, लेकिन असल मायने में वसंत तब आता है जब हम उसे अपने अनुभव में महसूस करते हैं।

B.com 2nd sem SEP छाया मत छूना मन

 

गिरिजाकुमार माथुर की कविता "छाया मत छूना" एक गहन दार्शनिक संदेश देती है, जो हमें मोह-माया, भ्रामक सुख, और जीवन की अस्थिरता को समझने की प्रेरणा देती है। इसका मूल भावार्थ इस प्रकार है:

1. मोह-माया से दूर रहने की सीख

कवि चेतावनी देते हैं कि छायाओं को छूने से दुख दोगुना हो जाएगा। यहाँ "छाया" प्रतीक है उन आकर्षणों का, जो वास्तविक नहीं होते—जो केवल भ्रम हैं। जीवन में हमें कई बार कुछ सुहावने और सुखद अनुभव होते हैं, लेकिन वे क्षणिक होते हैं। यदि हम इन्हें पकड़ने का प्रयास करेंगे, तो केवल दुःख ही हाथ लगेगा।

2. जीवन की अस्थिरता और वास्तविकता को स्वीकार करना

कवि कहते हैं कि जीवन में यादों की तरह सुखद क्षण आते हैं और चले जाते हैं। जैसे बालों में लगे फूलों की सुगंध रह जाती है, लेकिन फूल मुरझा जाते हैं, वैसे ही जीवन की खुशियाँ अस्थायी होती हैं। जो बीत गया, उसे पकड़ने का प्रयास करना व्यर्थ है।

3. भौतिक उपलब्धियाँ और भ्रम

यश, वैभव, और मान-सम्मान भी मृगतृष्णा के समान हैं। मनुष्य जितना इनकी ओर भागता है, उतना ही भ्रमित होता जाता है। प्रभुता (सत्ता, शक्ति) का आकर्षण एक छलावा है। हर चमकती चीज़ के पीछे अंधकार छिपा होता है। अतः, व्यक्ति को यथार्थ को अपनाकर ही संतोष पाना चाहिए।

4. कठिनाइयों का सामना और भविष्य की ओर देखना

कवि बताते हैं कि मनुष्य का साहस कई बार दुविधाओं के कारण डगमगा जाता है। शारीरिक सुख संभव है, लेकिन मानसिक कष्टों का कोई अंत नहीं। जीवन में कई इच्छाएँ अधूरी रह जाती हैं, लेकिन यह सोचकर दुखी होने का कोई लाभ नहीं।

कवि हमें यह सीख देते हैं कि बीते हुए सुखों और अधूरी इच्छाओं के पीछे भागने की बजाय, हमें यथार्थ को स्वीकार कर भविष्य की ओर देखना चाहिए।

निष्कर्ष:

"छाया मत छूना" कविता हमें यह संदेश देती है कि हमें भ्रामक सुखों और मृगतृष्णा का पीछा करने की बजाय जीवन के वास्तविक पहलुओं को अपनाना चाहिए। मोह-माया में उलझकर दुखी होने से बेहतर है कि हम सत्य को स्वीकार करें और संतोषपूर्वक आगे बढ़ें।

BBA 2nd sem SEP तुम्हारे साथ रहकर


कविता का सारांश:

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता "तुम्हारे साथ रहकर" प्रेम और साथी की उपस्थिति से जीवन में आने वाले सकारात्मक परिवर्तनों को दर्शाती है। कवि के अनुसार, प्रियजन के साथ रहने से दुनिया छोटी और सरल लगने लगती है, दिशाएँ पास आ जाती हैं, और हर रास्ता छोटा हो जाता है। यह भावना इतनी गहरी होती है कि जीवन का हर कोना एक परिचित आँगन की तरह प्रतीत होता है, जिसमें न बाहर और न भीतर कोई एकांत बचता है।

कवि महसूस करते हैं कि प्रिय व्यक्ति के साथ होने से हर वस्तु का एक विशेष अर्थ बन जाता है—चाहे वह घास का हिलना हो, हवा का खिड़की से आना हो, या धूप का दीवार पर चढ़कर जाना। यह संबंध जीवन को अधिक सार्थक बना देता है।

कविता में एक गहरी आशावादिता भी झलकती है। कवि कहते हैं कि हम अपनी सीमाओं से नहीं, बल्कि संभावनाओं से घिरे हैं। जहाँ दीवारें हैं, वहाँ द्वार भी बन सकते हैं, और उन द्वारों से पूरा पहाड़ भी गुज़र सकता है। यह संकेत करता है कि मनुष्य की इच्छाशक्ति से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है।

कवि यह भी बताते हैं कि अगर शक्ति सीमित है, तो निर्बलता भी स्थायी नहीं है। यदि हमारी भुजाएँ छोटी हैं, तो सागर भी सिमट सकता है। इस विचार के माध्यम से वह यह कहते हैं कि सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा रूप है, और जीवन व मृत्यु के बीच का क्षेत्र हमारी अपनी क्षमता से निर्धारित होता है, न कि केवल नियति से।

निष्कर्षतः, यह कविता प्रेम, संबल, और संभावनाओं के विस्तार को दर्शाती है, जिसमें किसी प्रियजन की उपस्थिति से जीवन की जटिलताएँ सरल और संभावनाएँ अनंत हो जाती हैं।

समानांतर लकीरें कविता का सारांश

 

कविता सारांश:

प्रयागनारायण त्रिपाठी की कविता "समानांतर लकीरें" प्रेम, दूरी और समाज द्वारा बनाई गई सीमाओं की गहरी अभिव्यक्ति है। कवि अपने प्रिय को अब तक न छू पाने की व्यथा व्यक्त करता है, क्योंकि उनके बीच कई अदृश्य दीवारें हैं, जो यद्यपि झीनी और कोमल हैं, फिर भी अवरोध बनी हुई हैं।

इन दीवारों में से कुछ पहले ही गिर चुकी हैं—जैसे अपरिचय की दीवार, जो अब दृष्टि के मिलन से समाप्त हो चुकी है। लेकिन अन्य अवरोध अब भी शेष हैं, जैसे—

  1. कायरता – यह वह डर है जो आत्मा की वास्तविक चाह को पहचानने के बावजूद उससे भागने की राह खोजता है।
  2. संशय – पुरुष-मन की अस्थिरता, जो पीपल के पत्ते की तरह हिलती रहती है।
  3. भय – समाज क्या कहेगा, इस छोटी सोच का डर।
  4. पाप-बोध – सामाजिक और धार्मिक नियमों की ग्रंथियाँ, जो पुण्य और पाप के नाम पर प्रेम को बंधनों में जकड़ती हैं।

इन कारणों से प्रेम की पूर्णता नहीं हो पाती, और दोनों प्रेमी समानांतर लकीरों की तरह सदा साथ रहते हुए भी कभी मिल नहीं पाते। अंततः, कवि इस व्यथा को स्वीकार करते हुए कहता है कि यह दूरी और यह स्वप्न अनवरत चलते रहेंगे—जिस प्रकार समानांतर लकीरें कभी नहीं मिलतीं, वैसे ही यह प्रेम भी अनछुआ और अधूरा बना रहेगा।

रविवार, 16 फ़रवरी 2025

कृष्ण की चेतावनी B.com 2 Sem SEP

 1

वर्षों तक वन में घूम-घूम-----देखे आगे क्या होता हैं।

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि दिनकर जी पाँडवों के संघर्षों के बारे में बता रहे हैं। पाँडव दुर्योधन के साथ द्यूत क्रीड़ा में हार गये थे। उसमें अपना सबकुछ हार जाने के बार कौरवों ने पाँडवों को 12 वर्षों के लिए वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञात वास दिया था। इस वनवास की समयावधि में पाँडवों को कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। तब जाकर वे सफल हुए तथा पहले से भी अधिक शक्तिशाली होकर लौटे।

व्याख्या :- कवि कहते हैं कि वर्षों तक पाँडव वनों में घूमते रहे हैं। उन्हें इस वनवास में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। जैसे जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण की चेष्टा, यक्ष की परीक्षा इत्यादि। अर्जुन को भी भगवान शिव से दिव्यास्त्र पाने के लिए उनसे भी युद्ध करना पड़ा जिससे शिव उनसे प्रसन्न होते हैं और अर्जुन को दिव्य अस्त्र प्रदान करते हैं। वन में उन्हें गर्मी, वर्षा तथा शीत का भी सामना करना पड़ा। तब जाकर पाँडव कुछ और अधिक निखर आते हैं, शक्तिशाली बन जाते हैं। कवि कहते हैं कि सौभाग्य कभी भी हर दिन सोता नहीं है। बल्कि समय आने पर जागता है। अर्थात् आज दुख है तो कल सुख अवश्य होता है। अब देखते हैं कि पाँडवों के भाग्य में क्या लिखा है और क्या होता है।

2

मैत्री की राह बताने को-------पाँडव का संदेशा लाये।

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि बताते हैं कि महाभारत का युद्ध जिसमें बहुत विनाश हुआ था उसको रोकने के लिए स्वयं भगवान कृष्ण ने भी चेष्ठा की थी। वे कौरवों तथा पाँडवों के बीच समझौता कराना चाहते थे।

व्याख्या:- कवि कहते हैं कि श्री कृष्ण पाण्डवों के वनवास पूरे होने के बाद कौरवों तथा पाँडवों में मैत्री अर्थात् मित्रता बनी रहे इसके लिए वे स्वयं हस्तिनापुर जाते हैं। सबको सुमार्ग की राह पर लाने के लिए, दुर्योधन को समझाने के लिए एवं युद्ध में होने वाले महाविनाश को रोकने के लिए वे हस्तिनापुर जाते हैं। श्री कृष्ण क्योंकि भगवान थे अतः वे जानते थे कि यदि महाभारत का युद्ध होता है तो फिर बहुत विनाश होगा। साथ-ही-साथ दोनों पक्षों को भी बहुत भीषण हानी पहुँचेगी। इस कारण वे इस महाविनाश को रोकने की अंतिम चेष्टा करते हैं तथा पाँडवों की ओर से संदेशा लेकर जाते हैं।

3

दो न्याय अगर तो आधा दो -----------परिजन पर असि न उठायेंगे।

प्रसंग :-प्रस्तुत पंक्तियों में कृष्ण दुर्योधन को समझाते हुए न्याय करने की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि आधा राज्य दो या फिर पाँच गाँव ही दे दो वे इससे ही प्रसन्न रहेंगे और परिजनो अर्थात् कौरवों पर तलवार नहीं उठायेंगे।

व्याख्या :- श्री कृष्ण हस्तिनापुर की राजसभा में दुर्योधन को समझा रहे हैं कि अगर पाँडवों के साथ न्याय करना चाहते हो तो आधा राज्य उन्हें वापस कर दो। क्योंकि द्यूत क्रीड़ा में हराने के बाद कौरवों ने यही शर्त रखी थी कि यदि पाँडवों ने सफलतापूर्वक 12 वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास पूरा कर लिया तो फिर उन्हें उनका राज्य वापस मिल जाएगा। परन्तु दुर्योधन ने ऐसा नहीं किया। तब कृष्ण उन्हें समझाते है कि यदि न्याय करना चाहते हो तो पाँडवों को आधा राज्य दे दो। यदि ऐसा करने में भी यदि असमर्थ हो तो केवल पाँच गाँव हो दे दो। अपने पास अपनी जीती हुई सारी धरती रख लो। पाँडव केवल इन पाँच गाँव को ही लेकर संतुष्ट हो जाएंगे। वे परिजनों अर्थात् कौरवों पर राज्य वापस पाने के लिए तलवार नहीं उठायेंगे।